मंगलवार, 11 अगस्त 2009

(12) एक अनुत्तरित प्रश्न ... !


रहस्य तुम्हारे
सारे के सारे
जानना चाहती हूं मैं ... !
सारे आवरण
तोड़ कर पहुंचना चाहती हूं
तुम्हारे सच तक ... ,
तुम्हें देखना चाहती हूं
अपनी आंखों से ,
छूना चाहती हूं
अपने हाथों से ,
मिलना चाहती हूं तुमसे
बिना किसी माध्यम
बिना किसी निमित्त के ... ,
पूछना चाहती हूं तुमसे
बहुत कुछ ... ,
और
ये सारी इच्छाएं , मन में समेटे
बरसों से ढूढती फिर रही हूं
तुम्हें ,
अपने भीतर - बाहर
हर दिशा में ,
मगर
हर बार
हाथ आयी है असफलता
और
रह गया है
एक अनुत्तरित प्रश्न ...,
हे मेरे ईश्वर
तुम मुझे नजर क्यों नही आते ... ?

1 टिप्पणी:

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन रचना.......अवर्णिय. आभार.

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