शनिवार, 16 मई 2020

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक्त नहीं, ना ही निम्न वर्ग की तरह रोज़ कुआं खोद कर प्यास बुझाने को अभिशप्त। फिर भी अपने निश्चित दुखों के सहारे सुख के साधन ढूंढता, गरीबी की सारी पहचान पर दिखावटी चादर डालकर अमीर अनुभव करने के स्वप्न सुख में डूबा हुआ 'मध्यमवर्ग'।

यक़ीन मानिए एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति बुरा नहीं होता लेकिन उसका संतोषधन तब किसी काम का नहीं रहता, जब उसे खींच-खींच के बाज़ार में सिर्फ़ यह दिखाने के लिए खड़ा कर दिया जाता है कि उसके पड़ोसी के घर उससे ज़्यादा बड़ी गाड़ी, उससे ज़्यादा बड़ा घर, उससे ज़्यादा बैंक बैलेंस मौजूद है। उसका सारा जीवन पड़ोसी की बराबरी करने में निकलता है लेकिन हाँ, वह फिर भी बुरा नहीं होता। आप यह भी कह सकते हैं कि उसके पास बुरा होने के लिए पर्याप्त वक़्त नहीं होता। अपनी रोज़ी-रोटी के लिए 12 घंटे के व्यवसाय या फिर 8 घंटे की नौकरी में उलझा यह मध्यमवर्ग अवसादग्रस्त होकर भी अवसादग्रस्त दिखने के लिए स्वतंत्र नहीं है। इसे बराबर यह माहौल बनाए रखना होता है कि यह बहुत ख़ुश है, संतुष्ट है और लगातार समृद्धि की ओर बढ़ता हुआ उच्च वर्ग में प्रवेश को तत्पर है। बच्चों की शादी, पढ़ाई, अपने लिए घर, ज़मीन नौकरी में प्रोविडेंट फंड और पेंशन यह सब ठीक-ठाक हो जाए तो  संसार में और धरती पर सबसे सुखी व्यक्ति माना जा सकता है। कम से कम वह तो स्वयं को मानता ही है। बड़े-बड़े सपने नहीं देखता लेकिन बड़े-बड़े सपने पर बातें करने से पीछे नहीं हटता। कहीं ना कहीं उसके अवचेतन में यह बात बैठी होती है कि बड़ा सोचने से ही बड़ा बनते हैं। यह अलग बात है कि बड़ा होने की ललक कभी-कभी उसे आजीवन त्रिशंकु बनाए रखती है।
लग्ज़री के नाम पर दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ पारिवारिक समारोह, बच्चों के साथ महीने में दो एक बार मॉल में जाकर फिल्में देख लेना, रेस्टोरेंट में जाकर खाना खा लेना और साल भर में एकाध बार कहीं बाहर वेकेशंस प्लान कर लेना इनकी ज़रूरतों में शामिल होता है।

बेशक यह तबका 'रोज़ कमाना-रोज़ खाना' के त्रासद घेरे से बाहर होता है लेकिन यह भी सच है कि इनकी जमापूंजी एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो  महीने तक इन्हें निश्चिंत रख सकती है। यह अरसा बीतते-बीतते इसके चेहरे पर भी भावी भूख और आगत आपदाओं का भय पसारने लगता है।

कोविड-19 के इस आपातकाल में जहाँ मानव जाति के सामने अब तक के सबसे भयभीत और व्यथित करने वाले दृश्य उपस्थित  हो रहे हैं ऐसे में इस मध्यमवर्गीय प्रजाति (?) की चिंताएं स्वतः ही non essentials की श्रेणी में डाल दी गई है। फिर भी यह सच तो अपनी जगह मौजूद है ही कि एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति के भी अपने दुख हैं। अपना डर, अपनी आशंका, अपने दुःस्वप्न हैं और सच मानिए यह सब उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं जितना सोचा जा सकता है।

इस आपातकाल में अपने इन तमाम डरों और दुःस्वप्नों से दूर भागने और कबूतर की तरह आँख बंद करके इनसे निष्प्रभावी दिखने का प्रयास करते मध्यमवर्ग ने ख़ुद को अवसाद से दूर रखने के लिए कुछ रास्ते ईजाद किये। जैसे अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाकर फ़ेसबुक पर डालना, कविताएं लिखना, गीत गाना, अच्छी-अच्छी बातें करना, जिससे यह बताया जा सके कि वह बहुत निश्चिंत और ख़ुश है। अपनेआप में मगन। उसे कोई भी अवसाद छू नहीं गया है लेकिन इस बात के लिए उनकी ख़ासी आलोचना की गई। यहाँ तक कि अब यह सब करने के लिए मध्यमवर्ग ख़ुद को अपराधी मान रहा है।
जबकि सच यह है कि यह थोड़ा आत्मकेंद्रित तो कहा जा सकता है लेकिन अपराधी नहीं, और आत्मकेंद्रित तो यह वर्ग हमेशा से था। कोई और विकल्प भी नहीं है इसके सामने। सामाजिक और आर्थिक रूप से मध्यमवर्ग के पास ऐसी कोई ताकत नहीं होती जिससे वह परिस्थितियों को आमूलचूल बदल देने का साहस कर सके। ऐसे में मध्यमवर्गीय लोग अपना-अपना देखने में ही विश्वास रखते हैं। अब भी वह ऐसा कर रहे हैं। यह अपराध नहीं है। हर किसी को अपने अवसाद से लड़ने का अधिकार है। तरीक़ा अलग हो सकता है। यह उनके लड़ने का तरीक़ा है। इसे बुरा नहीं कह सकते।

कोविड-19 के आफ्टर इफेक्ट में इसके दुष्प्रभाव का एक बड़ा हिस्सा इसी वर्ग को झेलना होगा। उनके सामने एक ऐसी लंबी लड़ाई है जिसमें खुलकर उतरने की तैयारी भी उन्होंने कभी नहीं की।

मेरे एक मित्र ने (जिनका अच्छा ख़ासा चल रहा निजी व्यवसाय कोविड-19 के चलते तबाह होने के कगार पर है) ने अपना डर मुझसे यह कहते हुए साझा किया था कि 'हम तो किसी से मुफ़्त का राशन भी नहीं माँग पाएंगे क्योंकि सामने वाला कहेगा कि आपके घर में तो कार है। जबकि वह कार EMI से ली गई है।'

आज जब देश तकरीबन 2 महीने की पूर्ण बंदी यानी लॉक डाउन के भयावह यथार्थ से जूझते हुए इतिहास के अब तक के सबसे विवश समय का साक्षी होने को बाध्य है। लाखों की संख्या में पैदल ही देश का ओर-छोर नापते, भूख-प्यास से बिलबिला कर दम तोड़ते, ट्रेन की पटरी पर कट कर मरते या बस और ट्रक से कुचलकर मारे जाते गरीबों-मजदूरों द्वारा अपने ही देश में किए जा रहे महापलायन को देखने पर मजबूर है।
ऐसे में मध्यमवर्ग अपनेआप को अवसाद के ब्लैक होल में समाने से रोकने का भरपूर प्रयास कर रहा है क्योंकि उसे मालूम है कि जो कुछ भी हो रहा है, उसका दृष्टा बने रहने के अलावा उसके सामने फिलहाल कोई दूसरा चारा नहीं है। जिसे योगदान या प्रयास कहा जा सकता है, अपनी तनख्वाह का कुछ अंश दान कर या फिर अपने आसपास के कुछ भूखे लोगों को भोजन करवाकर, वह अपने हिस्से का यह योगदान कर चुका है। इससे ज़्यादा वो क्या करे, यह सोच पाना फिलहाल उसकी सामर्थ्य के बाहर है। ऐसे में बस एक ही काम है  जिसे  करने से आशा की कुछ उम्मीद बनती है और वह है अपने आप को मजबूत और सकारात्मक रखना ताकि आगत परिस्थितियों का सही मनोदशा के साथ सामना किया जा सके।
जब उसकी ऐसी कोशिशों को लक्ष्य किया जाता है तो वह ख़ुद भी अपराध बोध से घिर जाता है -
अपनी नज़रों में गुनाहगार ना होते क्योंकर,
दिल ही दुश्मन है मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह।

हालांकि मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई भी कोशिश ग़लत कहीं जाने चाहिए। अवसाद को अगर आना ही है तो वो दबे पाँव आएगा ही लेकिन जितनी देर उसे टाला जा सके डाला जाना ही चाहिए। ख़ुद को ख़ुशी का दिलासा देते हुए मुसीबत का समय बीत जाए तो इसमें क्या बुरा है ?

- एक प्रतिनिधि (मध्यमवर्गीय-आम जनता)

मंगलवार, 12 मई 2020

बदल जायेगा बहुत कुछ !


जाने-माने पत्रकार और फ़िल्म समीक्षक श्री Ajay Brahmatmaj जी ने अपने यू ट्यूब चैनल 'सिने-माहौल' में वर्तमान परिस्थितियों पर चर्चा करते हुए एक बहुत अहम प्रश्न उठाया गया है।
'क्या किस्सों तक ही रह जाएंगे सिनेमाघर ?'
कला, संस्कृति, रंगमंच तथा फिल्मों से जुड़े हुए लोगों के लिए यह प्रश्न दरअसल सिर्फ प्रश्न नहीं आगत भविष्य की आहट भी है। इस प्रश्न में भविष्य के प्रति डर है तो उस डर का सामना करने की तैयारियों का बिगुल भी है। जैसा कि अजय सर ने इस वीडियो में कहा भी है, रंगमंच और सिनेमा अगर एक सामूहिक कला है तो अब तक इसका आनंद लेना भी एक सामूहिक क्रिया ही थी। एक साथ हॉल में फिल्म देखने का जो मज़ा हुआ करता था उसका कोई जोड़ नहीं हो सकता लेकिन अब 'समय' हमें उस आनन्द से कुछ दिनों तक वंचित रखने वाला है। कोरोनावायरस संकट के बादलों से घिरे हुए समय में लॉकडाउन खत्म होने के बाद हमारी जीवनचर्या अब लम्बे समय तक नॉर्मल होने वाली नहीं है। बदलेगा, बहुत कुछ बदलेगा। हम चाहें या न चाहें। हम बदलाव को अपनाने में चाहे कितनी भी देर लगाएं लेकिन यह बदलाव हमारे जीवन का अनिवार्य और अस्थाई अंग बनेगा ही बनेगा।
जीवन और इसकी परिस्थितियों का मार्च 2020 से पहले के स्वरूप में लौट पाना थोड़ा मुश्किल है और यह ज़रूरी भी है।
जैसा कि जानकार लोग कह रहे हैं कि कोरोनावायरस कोई पहला और आखिरी वायरस नहीं है जिससे लड़ने के लिए हमें एक बहुत बड़ी रणनीति बनाने की आवश्यकता पड़ रही है। दरअसल पिछले कई दशकों से हमने जिस तरह से प्रकृति का दोहन किया उसके परिणाम स्वरूप अभी बहुत सारे प्राकृतिक विषाणु हमसे प्रतिशोध लेने के लिए आने वाले हैं। विशेषरूप से यह वायरस अगर सच में, जैसा कि संदेह किया जा रहा है, मानव निर्मित है तो यह 'सच' भविष्य में और बड़े खतरे का संकेत मात्र है।
अर्थव्यवस्था और सामरिक शक्ति के क्षेत्र में सबसे ताकतवर होने की भूख मानव से अभी और अनिष्ट करवाएगी। ऐसे में हमारे पास अपनी जीवनचर्या को बदलने और अपने आसपास अपना निजी सुरक्षा चक्र स्वयं निर्मित करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा और इस प्रक्रिया के अंतर्गत जो चीज सबसे पहले छोड़ी जाएगी, वह है अनजान और अनावश्यक भीड़ में हमारा मौजूद होना।

मेलों, बाजारों, नाटक और सिनेमा देखने के लिए थियेटरों, यात्राओं के दौरान स्टेशनों और हवाई अड्डों में जब भी हम रहे, कभी यह ध्यान नहीं दिया कि हमारे आसपास कौन है ? कौन बैठा है ? कौन हमसे स्पर्श हो रहा है ? हम किसे स्पर्श कर रहे हैं ? हमसे कितनी दूर बैठकर कौन खांस रहा है ? किस को बुखार है ? बल्कि कोई बीमार दिखा तो उसकी मदद करने में तत्पर होना अपना कर्तव्य लगा। मगर अब यह सब बदल जाएगा। हम बदल जाएंगे। कब तक के लिए पता नहीं लेकिन फ़िलहाल तो ज़रूर और यहीं शायद हमारे हक़ में भी होगा। दूसरों की मदद के काबिल भी हम तभी हो पाएंगे जब हम खुद मजबूत और सेहतमंद होंगे। हमें अपना इम्यून सिस्टम मज़बूत करना होगा और उन सारे हालात से जितना हो सके दूर रहना होगा जो हमें किसी भी तरह के संक्रमण से ग्रस्त कर सकें।
यात्राएं कुछ हद तक बची रहेंगी लेकिन बाज़ार, सांस्कृतिक आयोजनों, मेलों और थियेटरों की रौनक कम हो जाएगी। अरबों-खरबों रुपए कमा कर देश की अर्थव्यवस्था में योगदान करने वाली हमारी फिल्में अब एक नए समय का सामना करने के लिए तैयार होंगी जहाँ पर उन्हें दर्शकों को पहले से ध्यान में रखना होगा। सिनेमाघरों और मल्टीप्लेक्स पर टूट पड़ने वाली भीड़ कुछ समय तक गायब रहेगी और इसका पूरा असर नाटकों पर भी पड़ने की संभावना है। थिएटर में दर्शकों का आना संशय में है। ऐसे में नई संभावनाएं तलाशना हमारे लिए चुनौती, आवश्यकता और मजबूरी तीनों एक साथ बन गया है।
फ़िलहाल डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बढ़ी सक्रियता ने हमें संतोष दिलाया है कि सब कुछ ख़त्म नहीं होगा सिर्फ अपना तरीक़ा बदलेगा लेकिन यह भी सच है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म की भी अपनी सीमाएं हैं। उनमें से कुछ प्रस्तुतियों से जुडी हुई हैं और कुछ का संबंध इंटरनेट पर लगातार बढ़ रहे दबाव से जन्मी परिस्थितियों से भी है। नेटवर्क पर अचानक जितनी भीड़ लगी है उसके भी अपने कुछ प्रभाव होंगे ही। अभी तो हमें उसके लिए भी तैयार होना है।
हाँ अभी बहुत सारी तैयारियां करनी हैं और उसके लिए बस तीन चीज़ों की आवश्यकता है - धैर्य, आशा और सकारात्मकता।

अजय ब्रह्मात्मज सर के चैनल 'सिने-माहौल' का लिंक यह रहा......

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

#किताबों_वाली_प्रतिमा #किताबों_की_प्रतिमा !!

"WORLD BOOK DAY"
आज दिल से एक बात से स्वीकार करना चाहती हूँ।
मैं वैसी हूँ जैसा 'मुझे किताबों ने बना दिया है।'
वो किताबें, जो तब मेरे पास रहीं जब कोई और नहीं था। वो किताबें जो तब मेरी दोस्त बनीं जब मुझे दोस्ती का अर्थ भी नहीं मालूम था। मेरा बचपन मोबाइल, टीवी, सिनेमा ही नहीं बल्कि यात्राओं, समारोहों और आयोजनों से भी रिक्त था। मेरे उस बचपन में सखियों रिश्तेदारों हमउम्रों की उपस्थिति भी नहीं थी। अपने उस एकाकी बचपन में कुछ भी कहने-सुनने के लिए मेरे पास सिर्फ़ एक ही शख़्स था, वह थी मेरी माँ और किसी भी घर संभालने और बनाने वाली स्त्री की तरह उनके पास भी समय का अभाव था। सो उन्होंने अपनी बातूनी और कल्पना में खोई रहने वाली, स्वप्नजीवी बेटी को किताबें और पत्रिकाएं पकड़ा दीं ताकि वह हरदम उनका दिमाग ना खाया करे। इस चक्कर में उन्होंने मुझे अपनी किताबों तक जाने का अधिकार दे दिया। जाहिर है उनके पास भी कोई आला दर्जे की लाइब्रेरी नहीं थी। पढ़ने के उनके अपने निजी शौक ने उनके सिरहाने और अलमारी में कुछ किताबों का ज़ख़ीरा बना दिया था बस..., जहाँ तक मेरी पहुँच भी हो गयी। फिर मैंने बेरोकटोक हर पत्रिका, हर किताब पढ़ी।
चंपक, नंदन, पराग, चंदा मामा, मधुर मुस्कान, लोटपोट, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी से लेकर सरिता, मुक्ता, मनोरमा, गृहशोभा, मेरी सहेली, मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां, मायापुरी, फिल्मी दुनिया, माधुरी, धर्म युग....(सूची जारी)
गुलशन नंदा, रानू, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक से लेकर मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चंद, हरिशंकर परसाई, शिवानी, ममता कालिया, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी.....(सूची जारी) मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन और धर्मवीर भारती से लेकर मिर्जा ग़ालिब, अहमद फ़राज़, साहिर लुधियानवी, सरदार अली जाफ़री, गुलज़ार, जावेद अख़्तर, बशीर बद्र......(सूची जारी) (इंग्लिश या किसी अन्य भाषा किताबें शायद इसलिए नहीं पढ़ पाई क्योंकि मम्मी के संग्रह में वह शामिल नहीं थीं।) यह कक्षा 2 से कॉलेज तक की सूची है इसके बाद इसकी लंबाई बढ़ती ही गई। आज भी बढ़ गई है।
आपको यह सूची ख़ासी बेढब लग सकती है।ख़ासतौर पर शुरुआत में। कहाँ लोटपोट और कहाँ धर्मयुग ? कहाँ गुलशन नंदा और कहाँ मुंशी प्रेमचंद ? लेकिन मेरे लिए यह किताबें दरअसल उत्कृष्टता या गुणवत्ता के आधार पर महत्व नहीं रखती थीं। मेरे लिए तो हर किताब एक कहानी थी और हर कहानी एक रोमांच। जितनी लम्बी कहानी, उतना लम्बा रोमांच। अब याद करती हूँ तो वाकई हँसी आती है। नानी जब भी हमारे यहाँ आती थीं वह समय मेरे लिए कर्फ्यू लगने जैसा होता था क्योंकि उनको मेरे हाथ में किताबें पसंद नहीं होती थीं। या यूँ कहें कि उनके लिए किताबों का एक ही मतलब होता था, कोर्स की किताबें। उसी दौरान एक और (बुरी ??) आदत लग गई थी मुझे। खाना खाते हुए किताब पढ़ना या कह सकते हैं किताब पढ़ते हुए खाना खाना। इस बात पर कितनी डांट खाई है याद नहीं। पाप-पुण्य क्या नहीं समझाया गया। विद्या माँ और अन्न देवता के रूठ जाने का भय भी मुझे सुधार नहीं सका।
मुझे गुलशन नंदा पढ़ते हुए देखकर नानी ने एक दफ़ा मम्मी को इतना कोसा कि मम्मी ने मुझे पीट दिया। उन पर इल्ज़ाम था कि उन्होंने मुझे ग़लत किताबों की लत लगा दी है। इसके बाद मैं छिप-छिप कर वह सारी 'वर्जित' किताबें पढ़ने लगी। जिस उम्र तक अक्सर बच्चों को चित्रकथाएं दी जाती हैं ताकि वह रंगीन फोटो देखकर किताबों में रुचि पैदा कर सकें उस उम्र में सरसों सी बारीक छपाई वाले गुलशन नंदा और रानू के उपन्यास मुझे इतना भाते थे कि मैं सबकी निगाहें बचा कर तीन-चार दिन में इन्हें चट कर जाती थी। अपराध पत्रिका हो या साहित्यिक पत्रिका पढ़ने में मज़ा आना चाहिए था फिर दो दिन में पूरी मैगज़ीन ख़त्म करने की गारंटी मेरी। हाँ, मेरे पास भी वैसी वाली यादें भी हैं कि जिस पुड़िया में चनाज़ोर गरम लेकर आई उसे खोलकर पढ़ा भी ज़रूर। कोई भी पन्ना बचता नहीं था।
इस तरह जो-जो भी पढ़ा, उस उम्र में वो सब समझ कितना पाई यह नहीं जानती लेकिन इतना तय है कि इस वैविध्यपूर्ण पाठन ने मेरे शब्दकोश को बहुत वृहद कर दिया। हिन्दी भाषा पर जितना अधिकार बना, वह इस शिक्षणेत्तर पठन पाठन से ही बना, वरना हिन्दी मेरा विषय कभी नहीं थी। पिछले 20 वर्षों से मंच संचालिका के रूप में, बिना एक शब्द भी लिखे, मंच से उद्घोषणा करने की मेरी शैली के पीछे शायद इन्हीं पत्रिकाओं और पुस्तकों का हाथ है जो मेरे अवचेतन में कहीं परमानेंट फोल्डर बन कर सेव हो चुकी हैं। कोई भी विषय हो मंच संचालन करते वक़्त मुझे कभी शब्दों के लिए भटकना नहीं पड़ता। कैसे मुझे भी नहीं पता। बस इतना जानती हूं कि शब्द खुद-ब-खुद दिमाग़ के किसी कोने से निकलकर जुबान तक आते जाते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि कह कर भूल भी जाती हूँ कि क्या कहा था।माँ ने तो शायद मेरा ध्यान बँटाने के लिए मुझे किताबों की ओर मोड़ा था। किताबों के चयन में भी उनकी ज़्यादा सलाह शामिल नहीं होती थी। फिर भी उनकी शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने खिलौने से ज़्यादा मेरी किताबों की फ़रमाइश पूरी की, वह भी सब की नाराज़गी मोल लेकर। सोचती हूँ, मेरी चयनक्षमता पर उन्हें भरोसा रहा होगा या वह जानती थीं कि मैं निकाल ही लूँगी अपने काम का कुछ।
थोड़ा अफ़सोस तो होता है, जब लगता है कि जितना कुछ पढ़ा था उसका इस्तेमाल बोलकर कर डाला।
इतना बोला कि जाने क्या-क्या दोहराया।
बस लिख नहीं पाई उतना, जितना लिखना था।
या फिर वैसा, जैसा लिखना था।
आज तो दावे से कह सकती हूँ कि मेरी (आकार की दृष्टि से) नन्हीं सी लाइब्रेरी में सचमुच उत्कृष्टता और गुणवत्ता की दृष्टि से संग्रहणीय पुस्तके मौजूद हैं। कुछ पढ़ ली गई हैं। कुछ पढ़ी जानी बाक़ी हैं लेकिन मैं बिना हुए कृतघ्न हुए स्वीकारना चाहती हूँ कि बचपन से आज तक मैंने जो कुछ भी पढ़ा, वो सब मेरे काम आया। उन सबने मुझे परिपक्व बनाया।
चाहती हूँ कि अगर अब चंदेक किताबें लिख भी पाऊँ तो मरने से पहले कोई काम पूरा कर पाने की संतुष्टि तो कमा लूँ।
"I have always imagined that Paradise will be a kind of library." Jorge Luis Borges



मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

क़ैद में ज़िन्दगी !


लॉक डाउन का पाँचवा दिन है।


सुबह-सुबह पुलिस की जीप और अनाउंसमेंट से आँख खुलती है, “आप लोग कृपया ध्यान दीजिए। अनावश्यक रूप से सड़कों पर न निकलें। अपने-अपने घरों में जाएं।
मैं घर में ही हूँ।
अपने कमरे की सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की से बाहर देखती हूँ। तकरीबन दो सौ
मीटर लम्बी उसके आगे एक घुमाव लेती सड़क पर लोगों की आवाजाही लगी हुई है। स्कूटर, साइकिल, पैदल, ठेला, लोग चल रहे हैं। सड़क पर एक तरफ़ हॉस्पिटल और दूसरी तरफ़ दवा की दुकानें हैं। कुछ लोग जो दवाएं लेने आये हैं, मैं उनके लिए दुआ करती हूँ।
फलों और सब्ज़ी के ठेलों पर कुछ भीड़ सी लगी है। हर कोई हड़बड़ी में दिख रहा है। खरीदने वाले ज़रूरत भर सामान ले कर निश्चिन्त होना चाह रहे हैं और ठेले वाला इस जल्दी में कि सारा माल बिक जाये ताकि उसके पास भी अगले कुछ दिनों के लिए निश्चिन्त होने का सामान हो सके। मैं अपनी खिड़की से उसे देखते हुए सोच रही हूँ कि इसे अपने घर के लिए भी कुछ सब्ज़ी अलग से रख लेनी चहिये। उम्मीद है रख ली होगी।
ऊपर से शांत दिख रहा सड़क पर चल रहा हर शख्स भीतर ही भीतर एक अजीब अफरा-तफरी में है।
दिन के ग्यारह बजते - बजते सड़क आहिस्ता - आहिस्ता ख़ाली होने लगती है। आम दिनों में ट्रैफ़िक जाम और हॉर्न की आवाज़ से भरी सड़क पर सन्नाटा पसर जाता है। ज़रूरी सामान लेने घरों के बाहर निकले लोग वापस घरों में दुबक जाते हैं। सभी होम अरेस्ट हैं।
पुलिस जीप से दिन भर में कम से कम दस बार एनाउंसमेंट होता है, ‘लॉक डाउन चल रहा है. घरों के अन्दर रहें।
मैं अपने तीसरी मंजिल पर बने कमरे की खिड़की से अन्दर रह कर भी बाहर देख सकती हूँ। गलियों के शहर मेरे बनारसमें बहुत से लोगों को शायद यह सहूलियत नहीं है। वो गलियों में रहते हैं। सड़क तक आने के लिए उन्हें कभी-कभी आधा किलोमीटर तक चलना पड़ता है।उनकी परेशानी दूसरे तरह की है। बनारस जैसे मिज़ाजी शहर में लॉक डाउनका मतलब है अपनेआप से ही दूर हो जाना। नेमी लोग मन्दिर नहीं जा पा रहे। गंगा मईया का दर्शन, पूजन, स्नान नहीं कर पा रहे। कचौड़ी-जलेबी-मलाई-रबड़ी तो दूर जीवन का आधार पान का मिलना भी मुहाल हो गया है। ऐसे जीवन के बारे में किसी ने नहीं सोचा था। हमने बड़े से बड़े संकट से जूझने की, बड़ी से बड़ी लड़ाई में जीतने की तैयारी कर रखी थी मगर इसकी नहीं। दुश्मन सामने हो तो हम सीना ठोंक कर घर से चिल्लाते-गरियाते बाहर निकलने और निपट लेने की धमकी देने में तो एक्सपर्ट थे लेकिन दुश्मन की आशंका से ही घर के भीतर कैद हो जाने का विचार तक हमारी संस्कृति में नहीं था अमल तो दूर की बात है। फिर ऐसे दुश्मन का किया भी क्या जाए जो अदृश्य है। अदृश्य दुश्मन से तो कोई अदृश्य शक्ति ही बचा सकती है। अभी तो महादेव भी कुछ नहीं कर रहे। सुना है वह भी लॉक डाउन में हैं तो सिवाय प्रतीक्षा की कोई दूसरा रास्ता नहीं।

मेरे कमरे की खिड़की से ठीक सामने सड़क के उस पार की इमारत की छत पर एक जोड़ा बंदर-बंदरिया रोज़ बैठ कर अपना समय बिताया करते हैं। निर्विकार, निर्लिप्त भाव से एक-दूसरे की जुएँ बीनते या करवट लेकर एक मुद्रा में देर तक पड़े हुए. कभी कभी दोनों में से कोई एक उठ कर थोड़ी दूर तक टहलने चला जाता है और दूसरा बड़े ही अन्यमनस्क भाव से पड़ा-पड़ा उसे जाते, फिर लौटते देखता रहता है। घर की कुछ ना खुलने वाली खिड़कियों के बाहरी हिस्से में बहुत सारे कबूतरों ने डेरा बना रखा है। यह हाल सारे शहर में है। सड़क पर कुत्ते, गाय आराम से कहीं भी बैठे नज़र आते हैं। उनको अब तेज़ भागती गाड़ियों का खौफ़ नहीं रहा। आजकल सुबह शाम तरह-तरह के पक्षियों और चिड़ियों की चहचहाहट साफ़ सुनाई दे रही है। मैं अनुमान लगाने की कोशिश करती हूँ कि क्या इन जीव-जन्तुओं को इस समय मनुष्य पर मंडराते भयावह संकट का कोई आभास होगा ? क्या इस बात से उन्हें कोई फ़र्क पड़ता होगा ? या ये पक्षी, जानवर, और दूसरे जीव प्रकृति पर शासन करने का दम्भ पाले हुए मनुष्यों को इस समय ख़ुद ही डरा हुआ देख मन ही मन राहत या बदला पूरा होने जैसी ख़ुशी महसूस कर रहे होंगे ? अगले ही पल अपनी इस अजीबोग़रीब कल्पना पर ख़ुद ही मुस्कुराती हूँ।

लॉक डाउन का छठा दिन है और ऐसा सिर्फ मेरे कमरे की खिड़की के बाहर बिछी 200 मीटर लंबी सड़क पर नहीं बल्कि सवा अरब जनसंख्या वाले हमारे पूरे देश है। 


सांस्कृतिक विभिन्नताओं और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं वाले इस देश में पहली बार है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक सब एक ही रफ़्तार का शिकार हो गए हैं। न कोई ज़्यादा धीमा, न कोई ज़्यादा तेज़। अमीर-ग़रीब, मूर्ख-ज्ञानी सबकी दिनचर्या समान हो गयी है। देश इसके लिए तैयार ही नहीं था। होता भी कैसे ? पिछली चार पीढ़ियों के लोगों के लिए यह ऐसा पहला तजरबा जो है। इस नातजुर्बेकारी ने कुछ खौफ़नाक मंज़र भी दिखाये हैं।
कल सुबह के अखबारों और समाचारों में दिखाई देती तस्वीरों ने अच्छे अच्छों का दिल बैठा दिया है। दिल्ली में अपने-अपने घरों की ओर लौट पड़े लाखों लोगों की भीड़. रोज़गार, ठिकाना ही नहीं अपना भरोसा और उम्मीद खो चुके, अपने शहरों की ओर लौट रहे, नहीं बल्कि भाग रहे ये लोग, इस बात से बेअसर, बेफ़िक्र कि बाक़ी देश इस वक़्त उन्हें एक बड़े ख़तरे की तरह देख रहा है। घर लौट कर भी लौट नहीं सके हैं ये। थकान, भूख, प्यास से बचते हुए पहुँचे उन्हें बाहर ही रोका गया। कीटनाशक दवा से नहलाया गया। अपने ही देश में शरणार्थी बने सिर पर सामान और गोद में बच्चे उठाये मीलों पैदल चले जाते ये लोग 1947 के बंटवारे का दृश्य याद कराते रहे। तर्क ये है कि इन्हें, जहाँ थे, वहीँ रुकना चाहिए था। तथ्य ये है कि इन्हें, जहाँ थे वहाँ सुरक्षित व बेफ़िक्र होने का वो भरोसा नहीं दिलाया जा सका। अब वो ख़तरे के सन्देशवाहक बन कर चारों तरफ़ बिखर गये हैं। ग़लती किसकी ? पता नहीं। आशंका है कि कहीं सबको ख़ामियाज़ा न भुगतना पड़े।

यह लॉक डाउन दुनिया भर में है। वाशिंगटन में रहने वाली भाभी ने मैसेज में बताया है। सभी ‘क्वेरेंटाइन’ में हैं। स्वीडेन से एक दोस्त का वॉयस मैसेज मिला है। उसे जून तक वहीँ ज़िन्दा रहने का संघर्ष करना होगा। वापसी के बाद भी सब कुछ तुरन्त ठीक होने के आसार कम हैं। पहली बार सारी दुनिया डरी हुई है।

लॉक डाउन का सातवाँ दिन है। मैं कुछ कुछ दार्शनिक हो रही हूँ। कुदरत के सिलेबस में कोई ऐसा भी चैप्टर है, किसने सोचा था


सन 2020 की रॉकेट से भी तेज़ स्पीड वाली ज़िन्दगी कितनी अच्छी कट रही थी। दिन के घण्टों से ज़्यादा तो अप्वाइंटमेंट होते थे हमारे। एक पूरी भीड़ थी जो हमें हमारे होनेका बोध कराती थी। हर सुबह को नया तमाशा, हर रात नया जश्न। एक छद्म संतुष्टि, एक खोखली पहचान, एक शोर भरी संस्तुति ही सही लेकिन ज़िन्दगी तो मस्त थी। मानो कोई कमी नहीं। सब कुछ ख़रीदने के आदी थे। खाने से लेकर ख़ुशी तक... हर चीज़ ऑनलाइन। बस वक़्त नहीं था। अब वक़्त मिला है तो पता ही नहीं कि इसका करना क्या है ? इतने सारे वक़्त को सिर्फ़ अपने साथ रह कर जीना हमें आता ही नहीं ? सुपरफास्ट लाइफ़ को जैसे कोई पॉवर ब्रेक लग गया है।
अच्छा है कि यह लॉक डाउन किसी गृहयुद्ध या विश्व युद्ध के कारण नहीं हुआ है। शुक्र है कि इस लॉक डाउन में हमें अपने पड़ोस रहने वाले किसी दूसरे मजहब के लोगों से कोई ख़तरा नहीं है। इसीलिए हम फ़िलहाल एक-दूसरे को जान से मारने की कोई योजना नहीं बना रहे। इसके लिए कोई हथियार या रणनीति तैयार नहीं कर रहे। गनीमत है कि इस ख़तरे से निपटने के लिए हमें अपने-अपने लोगों के साथ झुण्ड, सेना, जुलूस या भीड़ की शक्ल में बाहर निकल कर नारे लगाते हुए शक्ति प्रदर्शन नहीं करना है बल्कि हमें एक-दूसरे से बहुत दूर अपने-अपने घरों में सिमटे रहना है। जो जितना दूर, जितना अकेला होगा वो अपने लिए, अपनों के लिए उतना ही महफूज़ होगा।
सोचने की बात है। हमने किस-किस को अपना दुश्मन माना। ज़ात, धर्म, हिंदू, मुसलमान, ईराक़, ईरान, अमेरिका, जापान. गोरा, काला, अगड़ा, पिछड़ा, पड़ोसी मुल्क तो खैर एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते ही हैं। अपनी-अपनी कौम को मज़बूत करने की जुगत लगाते रहे ताकि दूसरी कौम को मारकर ज़िन्दा रहें। सारी दुनिया में एकछत्र राज कर सकें। एक दूसरे पर हमला करना ही रक्षा का तरीका समझते रहे।
प्रकृति ने एक बार फिर हमें समझाया है कि हमारी ख़ुद की हैसियत एक जीव से ज़्यादा की नहीं। बुरा न लगे तो जीवको ‘कीड़ा’ भी पढ़ा जा सकता है। हमें दरअसल अपनेआप से ही ख़तरा है। ख़ुद को बचाने के लिए कहीं हमला नहीं करना बल्कि अपनेआप को किसी एकांत में, आइसोलेशन में डाल देना है। किसी और से नहीं अपने अंदर पल रही विषाक्तता से जीतना है। दूसरों के लिए निरंतर प्रार्थना करते रहना है। कुदरत का कहर दीन-धर्म, रंग-नस्ल देख कर नहीं आता। हॉलीवुड की फ़िल्मों की तरह पहली बार पूरी मानवजाति ख़तरे में है.
प्रकृति अब अपनी सत्ता फिर से अपने हाथ में लेने जा रही है। आने वाले समय में हमें प्रकृति की इस ताकत के आगे नतमस्तक होना होगा। इस ताकत का मुक़ाबला किसी श्लोक-मन्त्र अथवा आयत-कलमे से नहीं बल्कि सिर्फ़ विज्ञान से किया जा सकता है और विज्ञान प्रकृति के ही अनंत रहस्यकोष में छुपी हुई वह कुंजी है जिससे कुछ रहस्यों को खोलने में इंसान कामयाब हो जाता है। अगर आप विज्ञान को मनुष्य की उपलब्धि समझते हैं तो जान लीजिये कि अभी मात्र .00001 (दशमलव शून्य, शून्य, शून्य, शून्य एक) प्रतिशत  ही रहस्य खोल पाने में मनुष्य सफल हो सका है।

लॉक डाउन का आठवाँ दिन है और मैं इस लम्बी, एकाकी समयावधि की सार्थकता के बारे में सोच रही हूँ। 


हमारा सबसे प्रिय और सुलभ बहाना ‘क्या करें ? वक़्त ही नहीं मिलता।’ अभी के लिए अपना अर्थ खो चुका है लेकिन इस अतिरिक्त मिले वक़्त में हमें सब कुछ मनचाहा कर पाने की छूट नहीं मिली है। जैसे ढेर सारे प्रतिबंधों में घिरे अतिरिक्त ओवर्स, जो चाहे वो शॉट नहीं मार सकते। घर की सीमाओं में रह कर क्या कर सकते हैं हम ? कुछ गढ़ सकते हैं, रच सकते हैं, सहेज सकते हैं, जी सकते हैं। सोशल मीडिया पर बच्चों के साथ खेलते, कहानियाँ सुनाते पिताओं की तस्वीरें, पत्नी के कामों में हाथ बंटाते पतियों की तस्वीरें, घर के अन्दर मिलजुल कर खिलखिलाते चेहरे वाली तस्वीरें सुख पहुँचा रही हैं लेकिन कब तक ? थक जाना, ऊब जाना मानव स्वभाव है। फिर उसके बाद क्या ? सुना है पिछले छः दिनों में थम सी गयी इंसानी रफ़्तार के चलते प्रदूषण अचानक कम हो गया है. शोर कम हो गया है। हवा में घुला ज़हर घट रहा है। ओज़ोन लेयर रिपेयर हो रही है। पृथ्वी कुछ दिनों के लिए स्वास्थ्य लाभ कर रही है लेकिन यह शाश्वत नहीं है। यह लॉक डाउन ख़त्म हो जायेगा। जीवन धीरे-धीरे ही सही अपने ढर्रे पर लौट आयेगा। सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा लेकिन क्या हम भी पहले जैसे रहेंगे या कुछ बदलेगा हममें ? क्या हम पहले से कुछ ज़्यादा समझदार हो पाएंगे ? अपनी रफ़्तार पर संयम लगाना सीख सकेंगे ? स्वीकार कर सकेंगे कि सबसे शक्तिशाली हम नहीं बल्कि प्रकृति है ?
मैं सोच रही हूँ कि क्या इस लॉक डाउन के बाद हम कुछ संवेदनशील हो सकेंगे ? क्या हम उन ‘कुछ लोगों’ का दर्द भी समझ सकेंगे जो सालोंसाल से ‘लॉक डाउन’ में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं ? उन औरतों की तकलीफ़ महसूस कर सकेंगे जो सामान्य दिनों में भी लॉक डाउन रहने को विवश होती हैं, वो भी जीवन भर के लिए ? मैं सोच में डूबी हूँ. 

लॉक डाउन का नौवां दिन है. 


उम्मीद है आज से तेरहवें दिन ये बंदिशें (सम्भवतः) हट जायेंगी. फिर हम पहले की ही तरह सड़कों पर चीखते-चिल्लाते टूट पड़ेंगे. अपनी-अपनी रफ़्तार में दौड़ पड़ेंगे.

लेकिन क्या हम पहले से अधिक ‘मनुष्य’ भी हो पायेंगे ??


मंगलवार, 31 मार्च 2020

सकारात्मक ऊर्जा और उत्कट जिजीविषा से साक्षात्कार !

जानी - मानी लेखिका और रंगकर्मी श्रीमती विभा रानी के जन्मदिन पर कवयित्री सरोज सिंह ने अपनी फ़ेसबुक वाल पर उनके लिए यह post लिखी. उनकी अनुमति से इसे 'स्वयंसिद्धा' के मंच से शेयर कर रही हूँ. आप भी पढ़ें.

तुम्हारे माथे पे वो महज़ बिंदी नहीं बल्कि प्रतिष्ठित है सूर्य जिसकी चमक से और भी दमक उठता है तुम्हारा ओजमय स्वरुप, गाँव के आँगन ओसारे में जहाँ पुरखिनों के गीत व सोहर गुलज़ार थे कभी, जिन्हें कागज़ दवात नसीब न हुए दब गए उनके राग आँगन के लेपन में सिल दिए गए कई विरह गीत चउपता के पेवन में, कई तो झउन्स गए चुहानी में, ठीक उनके अरमानो की तरह. आज के दौर में सहल नहीं था उनके गीतों को खोजकर सहेज पाना तुम उन पुरखिनों की आवाज़ बन गयी लोक की बिसरी गाथाओं को समेटा ताकि लोक का राग,रंग,रस बचा रहे अज़ल तक तभी तो........ माटी की सोंधी गंध आती है तुमसे कंक्रीट होती माटी को उर्वर बनाने में तुमने कोई कसर नहीं रख छोड़ी है. अरे तुमने तो यमराज को भी चुनौती दे डाली मौत के भय पर विजय प्रेरणा देती है हम सभी को. तुमसे मिलकर लगता है कि ऊर्जा की गंगा में डुबकी लगा ली हो हर क्षण कुछ नया कुछ बेहतर कर गुजरने का जूनून कर देता है. तुम्हारा कद और ऊँचा. मासूम बच्चों सी तुम्हारी हंसी उम्र की रेत घड़ी को देती है पलट....बुढ़ापे को बेझिझक कह देती हो 'चल परे हट .......'मेरी दिल से यही आरज़ू है के यूँ ही तुम सदा रहो जवां खुशमिजज़ी रहे रवां रवां !
या मैं यूँ कहूँ कि सखी विभा से मिलना महज़ महफ़िल से मिलना ही नहीं बल्कि सकारात्मक ऊर्जा और उत्कट जिजीविषा से साक्षात्कार करना है । मेरी उनसे पहली मुलाकात २०१७ में दिल्ली अवितोको चैप्टर की कवि गोष्ठी में हुई थी ।उनसे मिलकर ये अहसास ही नहीं हुआ कि पहली बार मिल रही हूँ । इतनी सहज,सरल स्नेह से परिपूर्ण हैं कि कोई भी उनसे मिलकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । यह मेरे लिए सौभाग्य की बात थी कि रूम थियेटर अवितोको से जुड़ने का अवसर मिला जिसके मार्फ़त सखी विभा जी को और जानने व बहुत कुछ सीखने को मिला । एक अरसे से मेरी जो एक खोज थी कि समाज के लिए निस्वार्थ भाव से सकारात्मक रूप से जमीनी तौर पर कुछ अलग कुछ ख़ास कर पाऊं वो खोज अवितोको के हवाले से पूरी हुई । उनका व्यक्तित्व ,परिधान ,व्यवहार, अभिनय उनकी कला एवं भाषा किस-किस की चर्चा करूँ ? इन सभी गुणों में पारंगत उन्हें विशिष्ट से अति विशिष्ट बनाती हैं ।
उनकी " समरथ~CAN " 'सेलेब्रेटिंग कैंसर' सीरीज से गुजरते हुए यह आभास होता है कि रेडियशन से झुलसती देह से कैंसर को मात देते हुए जीवन में सौंदर्य कैसे रचा जा सकता है।
ऐसी जिंदादिली पर किसको न रश्क आ जाए । मारक मर्ज़ व उम्र को ताक पर रख कर इन्होने जितना हुनर और हौसला पाया है मैं समझती हूँ कि मैं उसका 10% भी पा लूं तो बहुत है । ऐसी सखी के लिए दिल से यही नारा निकलता है "सखी जिंदाबाद" !!! हे सखी जन्मदिन तहरा खूब खूब मुबारक हो ।

जिनगी के कुल दुआ तहरा नावे
तू सलामत रहs क़यामत तक
अऊर क़यामत कब्बो ना आवे
सांच हो जाव सब आरजु तमन्ना अउर ख्वाब
चमकत रहे तहरा चेहरा पे नूर के आफताब
दुःख के परछाई भी कब्बो छूये ना पावे
तू सलामत रहs क़यामत तक अऊर क़यामत कब्बो ना आवे।।।

प्रस्तुति - सरोज सिंह (रचनाकार)

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

बहुत समृद्ध है हमारा "स्त्री रंगमंच" !


नाट्य लेखिका, सशक्त  अभिनेत्री और रंगकर्म के माध्यम से पूरे देश में एक अलग ही तरह की क्रांति लाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता  विभा रानी को कौन नहीं जानता ? विभा जी ने  मैथिली भाषा के तीन साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेताओं हरिमोहन झा, प्रभास कुमार चौधरी और लिली रे की छह किताबों का मैथिली से हिंदी में अनुवाद किया है। साथ ही हिंदी रंगमंच को 'मैं कृष्णा कृष्ण की', 'एक नई मेनका', 'भिखारिन' के अलावा 'आओ तनिक प्रेम करें', 'दूसरा आदमी-दूसरी औरत', 'अगले जन्म  मोहे बिटिया न कीजो' और 'प्रेग्नेंट फादर' जैसे मौलिक पुरस्कृत नाटक देकर एक कीर्तिमान स्थापित किया है. 



विभा दीदी को जितना मैं जानती हूँ, उनके काम और समग्र व्यक्तित्व पर पूरी की पूरी एक किताब लिखी जा सकती है लेकिन उनके जिस एक अभियान ने मुझे मन मस्तिष्क से लेकर आत्मा की गहराइयों तक प्रेरित  किया था, वह था विभिन्न जेलों में कैदियों के बीच जाकर  रंगकर्म के माध्यम से उनका मानसिक पुनर्वास करना, उन्हें अवसाद और प्रायश्चित से भरी गहरी पीड़ा से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना. एक महिला रंगकर्मी होने के नाते यह निश्चित रूप से आसान नहीं था लेकिन विभा दी आसान कामों को हाथ में लेती ही नहीं. वह स्वभाव से ही चुनौती पसंद हैं.  ब्रेस्ट कैंसर जैसे भयानक राक्षस से लड़ने और इस मारक लड़ाई में जीतने वाली हमारी यह जीवट योद्धा कोरोनावायरस के चलते लागू हुए 'क्वॉरेंटाइन' समय में भी अपनी रचनात्मकता के माध्यम से लोगों में प्रेरणा का प्रसार करने में लगी हैं. 

वर्षो पूर्व ही फिल्म 'धधक' और टेली फिल्म 'चिट्ठी' में पर्दे पर अभिनय क्षमता का लोहा मनवाने वाली विभा रानी ने वर्ष 2019 में रिलीज़ हुई सैफ़  अली खान स्टारर फ़िल्म 'लाल कप्तान' में  सबसे ज्यादा चर्चित होने वाला किरदार अदा किया या यूँ कहें कि उनकी अभिनय से ही वो किरदार इतना चर्चित हो गया. 

फ़िलहाल उनका यूट्यूब चैनल "बोले विभा" बहुत चर्चित हो रहा है जिसमें वह नित नए विषय के साथ दर्शकों से रूबरू होती हैं उनमें जीवन के प्रति राग-अनुराग और प्यार भरती हैं. आशा और नए सपनों की किरण जगाती हैं.


अनेकानेक नाटक लिखने वाली, अनेकानेक किरदार जीने वाली और एकल महिला नाटकों को सबसे ज्यादा प्रसारित करने वाली देश की वरिष्ठ रंगकर्मी विभा रानी के सबसे बेहतरीन योगदानों में से एक है -  "एक बेहतर विश्व - कल के लिए - अवितोको रूम थिएटर" अभियान, जिसके अंतर्गत उन्होंने रूम थिएटर की परिकल्पना को एक नया आयाम दिया है. नाटक करने वालों के स्वप्न को नया पंख, नया आकाश दिया है. नाटक कहीं भी हो सकता है. सीमित से सीमित संसाधन में 'अभिनय' के साथ रंगकर्म किया जा सकता है. अगर दर्शक नाटक तक ना पहुंचें तो नाटकों को दर्शक तक पहुंचाया जा सकता है. इस असंभव को संभव बनाने में विभा रानी का बहुत बड़ा योगदान है. मायानगरी मुंबई में आज रूम थिएटर और छोटे कक्षों में किए जाने वाले तमाम रचनात्मक कार्यक्रमों का जो सिलसिला चल रहा है, उसकी शुरुआत करने का श्रेय विभा रानी को जाता है , यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी.

विगत चार दशकों से निरंतर रंगकर्म और लेखन में संलग्न  और पिछले साल ही कार्यालयीय सेवा से निवृत हो कर पूर्ण रूप से रचनाकर्म को समर्पित हो जाने वाली विभा रानी अभी संतुष्ट नहीं हुई हैं.  उनका मानना है कि मंज़िल अभी दूर है. उनके ही शब्दों में "महिला रंगमंच पर अभी भी बहुत काम करना बाकी है. हर भाषा, हर समाज में अभी भी ऐसे लोग हैं जो रंगमंच को सही नहीं मानते. सम्माननीय नहीं मानते इसलिए उन जगहों पर अपने घर की बहू बेटियों, बीवियों का काम करना पसंद नहीं करते. महिला नाट्य लेखन हो रहा है लेकिन मुख्य रूप से उन्हीं के द्वारा जो नाटक से जुड़े हुए हैं. आज भी नाट्य लेखन को साहित्य का अंक हिंदी में कम से कम नहीं माना जा रहा है. इस कारण भी महिलाएं नाट्य लेखन में कम उत्सुक होती हैं नाटक लिखने के बजाय वह उपन्यास लिखना पसंद करती हैं क्योंकि इसकी मांग अधिक है." 
उम्मीद पर दुनिया कायम है और प्रयासों से ही नए निर्माण होते आये हैं. इस दृष्टि से प्रख्यात 'महिला' रंगकर्मी के रूप में विभा रानी जी का यह सतत प्रयास रंगकर्म में रत असंख्य महिला कर्मियों के लिए दिशा निर्देशक की भूमिका निभाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं.

प्रस्तुति - प्रतिमा सिन्हा (लेखिका)

गुरुवार, 26 मार्च 2020

"पढ़ी-लिखी जागरूक स्त्री ही सशक्त है।" - ममता कालिया

अपने उपन्यास 'दुक्खम सुक्खम' के लिए प्रतिष्ठित 'व्यास सम्मान' से अलंकृत सुविख्यात, सुप्रतिष्ठित कथाकार एवं मेरी प्रिय रचनाकार आदरणीया श्रीमती ममता कालिया जी का लेखन संसार बेहद विशाल है.
कुछ-कुछ अनंत आकाश सा.....



मैं और मेरे जैसी जाने कितनी ही महिला रचनाकारों ने उनको अपना आदर्श माना होगा, यह वो ख़ुद भी नहीं जानती होंगी. अपने जीवन की पहली लम्बी कहानी जो मैंने पढ़ी थी वो उनकी ही लिखी हुई थी. एक पूरा युग बिता कर पिछले साल दिसम्बर में उनसे मुलाक़ात हुई. उन्हें बिलकुल वैसा ही पाया जैसा सोचा था. ममतामयी, अपनत्व से भरी हुई. जब उनसे संकोच के साथ "स्वयंसिद्धा" हेतु उनके कुछ शब्द माँगे तो उन्होंने तुरन्त मेरे संकोच का मान रखते हुए अपनी सहमति दे दी.  
'स्वयंसिद्धा' ने उनसे तीन बातें जाननी चाही थीं.
*आपके विचार से सशक्त नारी कौन है
*आप स्वयं अपने आप पर किस एक बात के लिए गौरव महसूस करती हैं
*आपके जीवन का कोई एक ऐसा क्षण जब आपने अपने  या किसी दूसरे के हित के लिएसचमुच शक्ति प्रयोग किया हो।

पढ़िए कि मेरी प्रिय रचनाकार ने बिना किसी बनावट और लागलपेट के क्या कहा....... 



"कितनी अच्छी बात है कि इक्कीसवीं सदी में स्त्री को अपनी शक्ति दिखाने के लिए तीर कमान लेकर नहीं निकलना पड़ता।  बिना इतिहास में जाये, यह कहना पर्याप्त होगा कि आज पढ़ी-लिखी जागरूक स्त्री ही सशक्त है। सबसे ज़रूरी है कि वह अपने को शिक्षित करे। उसके बाद अपने किसी रोजगार से लगे। दूसरी बात, वह अपनी निर्णय क्षमता का विकास करे। कोशिश करे कि कार्यक्षेत्र में किसी हिंसा की चपेट में ना आए। इसका अर्थ यह कतई नहीं कि वह स्वयं शोषक की भूमिका में आ जाए। उसके अंदर स्त्रियोचित सौम्यता, सरलता और लचीलापन भी बना रहे अन्यथा परिवार नष्ट हो जाएगा।
"गर्व नहीं संतोष कर सकती हूँ कि अनेक मुसीबतों, बेवकूफियों और बेइज्जतियों से अपने घर परिवार को बचाकर एक रचनात्मक जीवन जिया। बच्चों का कैरियर बन गया।रवींद्र भी मनचाहा लिख पाए,मनमाना जी पाए। मैंने भी किसी भी हाल में लिखना नहीं छोड़ा। परिवार को दीनता और पलायन, हीनता और पराजय से बचा सकी, इसका ही संतोष या गर्व समझ लो।" 
*
"छोटे-छोटे युद्ध लड़े और जीते। कॉलेज को कच्चे से पक्का कराने का संघर्ष 17 साल चला। एक लद्धड़ संस्था को पटरी पर लाने में जीवन की आधी ताकत खर्च हुई। संतोष यह कि जीत हासिल हुई। अपना लेखन तो किया ही बहुत सी लड़कियों को साहित्य में रुचि देने का काम किया। रवि के दिवंगत होने के बाद अकेले रहने का पराक्रम तो चल ही रहा है अभी। यहाँ बसने के साथ रचने का भी सुख है।"

- ममता कालिया

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...