सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

बुद्ध की शरण में...!


बीते सितम्बर माह में मुझे कोलम्बो (श्रीलंका) जाने का अवसर मिला । हमारी फ्लाईट बोध - गया से थी सो पहले हम वहाँ पहुंचे, फिर वहाँ से कोलम्बो । इस पूरी यात्रा में बहुत कुछ देखने समझने का मौका मिला । श्रीलंका आशंका के प्रतिकूल एक बहुत ही सुंदर और आकर्षक जगह थी । एक तरफ़ शहर , दूसरी तरफ़ समंदर ... । धूप के बावजूद हवा में एक अजब प्यारी सी नमी थी । श्रीलंका को एक बुद्धमय देश कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । हर तरफ़ भगवान तथागत बुद्ध के दर्शन किए जा सकते हैं । सड़कों पर भी जगह-जगह भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित हैं । हमने कोलम्बो से तकरीबन ५०-६० किमी दूर कलूतरा नाम के स्थान पर भगवान बुद्ध के एक बेहद सुंदर मन्दिर के दर्शन किए । इस मन्दिर की ये विशेषता है कि ये स्तूप के आकार का है और इसकी परिक्रमा भीतर से की जा सकती है । प्रचलित रूप में बौद्ध स्तूप की परिक्रमा बाहर से की जाती है । (ये जानकारी मुझे जयसूर्या ने दी , जो श्रीलंका का स्थानीय निवासी होने के साथ ही इस यात्रा में हमारा ड्राईवर और गाईड भी था ।) स्तूप रुपी इस मन्दिर के भीतर चारों ओर भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाएँ थीं । चारों तरफ दीवार पर उनके जीवन पर आधारित चित्र उकेरे हुए थे । एक अलौकिक शान्ति की अनुभूति से युक्त ये मन्दिर सचमुच बहुत सुंदर था ।
प्रतिमा ...!

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

एक खूबसूरत पल !


कुछ पल शब्दों में बांधे नहीं जा सकते ,बस महसूस ही किए जा सकते हैं । ये एक ऐसा ही पल था । मैं सागर के बिल्कुल करीब थी । अपनी आंखों से उसकी अनंत असीमता को निहारती , उसकी अथाह गहराई में झाँकने का असफल प्रयास करती ,उसकी अकूत जलनिधि को अपनी नन्हीं अंजुरी में भर लेने का असंभव स्वप्न देखती ... , पूरी तरह चमत्कृत और निःशब्द ...



अचानक ही वो प्रशांत -धीर -गंभीर मानों चंचल हो उठा जैसे मेरी उदास खामोश निगाहों को पढ़ कर मेरी उदासी को अपनी उदात्त लहरों के साथ बहा ले जाना चाहता हो । जैसे बरसों बाद मिला कोई अपना सा साथी मीठी सी गुदगुदी कर अपनी दोस्त को हंसा देना चाहता हो । और सचमुच .... जाने कौन सी मीठी बात कही उसने मेरे कानों में , कि
मैं खिलखिला कर हंस पडी ।

''मैं '' प्रतिमा ...

(On Colombo Sea Beach-Srilanka)

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

सब जग हो उजियारा ...!


जलाओ दिए , पर रहे ध्यान इतना ,
अँधेरा धरा पर, कहीं रह न जाए ... !
सब अपनों को शुभ दीपावली की मंगल कामनाएं ...,
प्रतिमा की ओर से !!!

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

बताओ मुझे ...!

तुम मुझसे कहते हो ,
तो मैं सुनती हूँ...,
जो सुनती हूँ ,
वही गुनती हूँ ...,
गुन कर शब्द चुनती हूँ ...,
उनसे चाँद -तारों के ख्वाब बुनती हूँ ...
और हौले से काग़ज़ पर उतर देती हूँ ...,
हाँ...
बस ऐसे ही तो लिखती हूँ मैं ,
तो अब ,
जब इतने दिनों से ,
तुमने मुझसे कुछ कहा ही नही ,
फिर तुम ही बताओ ,
मैं लिखूँ कैसे ... !

प्रतिमा ... !

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009


ज़िन्दगी ,
तू अक्सर किसी एहसास सी आती है
और
मुझे छूकर ...
बहुत करीब से ,
हौले से गुज़र जाती है ।
अच्छा लगता है ,
यूं तेरा हौले से छूकर गुज़रना ,
सच ...
बहुत ही भला लगता है ,
तेरा यूं मुझे छू लेना ... ।
हाँ , ये और बात है कि
तू मुझे छू कर ,अगर यूं गुज़रती नहीं ,
बल्कि यहीं - कहीं ,
मेरे आस - पास ही ठहर जाती,
तो और भी अच्छा होता ...,
मगर फिर भी ,
तेरा मुझे यूं छू लेना भी
कोई कम बड़ी बात नहीं , ज़िन्दगी ... !
क्योंकि
ऐसा भी सबके साथ कहां होता है ?
तेरी छुअन, तेरा एहसास भी हरेक को कहां मिलता है ?
प्रतिमा ... !

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

ज़िद...!


अपनी ही ख्वाहिशों की आग में जल जाऊं मैं ।
दिल को ये ज़िद है कि अब खाक़ में मिल जाऊं मैं ।
नज़र में ले के कोई ख्वाब जी नहीं सकती ,
मेरे हालत चाहते हैं , बदल जाऊं मैं ।
ग़ज़ब की भीड़ है , इक शोर मचा है हरसू ,
काश , इन सबसे कहीं दूर निकल जाऊं मैं ।
छूके महसूस कर चुकी हूँ , चाँद-तारों को ,
कैसे अब टूटे खिलौनों से बहल जाऊं मैं ।
मेरे अहसास जम गए हैं , बर्फ़ की मानिंद ,
फिर कोई आग लगाओ कि पिघल जाऊं मैं ।
''मैं '' प्रतिमा ...!

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

महिलाओं और विकलांगों के लिए ...


पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान रेलवे स्टेशन पर मैं एक अजीब कैफियत से गुज़री । मैं टिकट बुकिंग काउंटर पर खडी थी और सामने लिखा था '' महिलाओं और विकलांगों के लिए ''। एक पल को निगाह उस तहरीर पर अटक सी गयी । विकलांग तो नही , हां, महिला होने के नाते मुझे नियमतः वहां खडा होना था सो मैं खडी रही ,मगर दिमाग में लगातार घूमता रहा ये प्रश्न कि आख़िर महिलाओं और विकलांगों में क्या समानता हो सकती है जिसकी वजह से रेलवे टिकट काउंटर जैसी सार्वजनिक जगह पर दोनों को समान अधिकार और सुविधाएं (?) प्रदान की गईं हैं। क्या ये सुविधा (?) प्रदान करने वाले का ये मानना है कि - (1) ये दोनों ही समान रूप से असमर्थ और अक्षम हैं , (2) ये दोनों ही विशेष कृपा के मोहताज हैं , (3) ये दोनों ही भीड़ या समूह में आत्मरक्षा नहीं कर सकते , (4) ये दोनों ही बिना किसी अतिरिक्त मदद के अपने हक में खड़े नहीं हो सकते , (5) या फिर ये दोनों ही समाज की मुख्य - धारा से अलग, हाशिये पर पड़ी वो बेचारी कौमें हैं जिन पर निरंतर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना इस महान समाज का कर्तव्य है और अधिकार भी , ताकि महानता का आभामंडल जगमगाता रहे । प्रश्न काफी देर तक जेहन में उमड़ते -घुमड़ते रहे मगर उत्तर कोई भी नही मिला । कमजोरों को विशेष सुविधाएं मिले ,इससे किसी को कोई इनकार नही , मुझे तो बिल्कुल भी नही ,लेकिन किसी को जबरदस्ती कमज़ोर सिद्ध करना ...? ये कहां का न्याय है ? जिस देश में एक महिला ही देश की प्रथम नागरिक हो, जिस देश की नारी की शौर्य गाथाएं विश्व प्रसिद्द हों और नारी के शक्ति स्वरुप की पूजा की जाती हो,वहां महिला होने के नाते ऐसी सुविधायें लेना और देना दोनों ही विचित्र स्थिति है । सच तो ये है कि शारीरिक रूप से कुदरतन अक्षम व्यक्ति को भी एक हद तक ही मदद दरकार होती है क्योकि लक्ष्य हमेशा मन की शक्ति से ही साधे जाते हैं ।आश्चर्य है कि ख़ुद को विकलांगों की श्रेणी में पाकर हम महिलाएं कभी कोई विरोध दर्ज क्यों नहीं करतीं ? ये महज,आराम से मिल रही सुविधाओं को पाते रहने की सहज मानवीय वृत्ति है या वाकई एक प्रकार की मानसिक विकलांगता का कोई लक्षण... ? मैं इन जिज्ञासाओं का उत्तर पाती इससे पहले ही मेरा नंबर आ गया और मैं टिकट ले कर उस जगह से हट गयी , जिसकी शोभा ये तहरीर बढ़ा रही थी । अपने इन सवालों के कटघरे में मैं भी हूं क्योंकि मैंने भी इस सुविधा का फायदा उठाया , लेकिन जवाब पाने की इच्छा मन में ज्यों की त्यों है कि शायद अगर सही जवाब मिल जाए तो कभी इस कटघरे से निकल सकूं ।
क्या आपके पास है जवाब ... ?

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...