गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

विसर्जन, प्रतिमा का...!

नमस्तस्यै... नमस्तस्यै...नमस्तस्यै...नमो नम: !!

मन अजीब सा हो रहा है पिछले कुछ दिन से .बहुत चाह कर भी कुछ  लिखने की इच्छा नहीं हुई.पिछले दिनों मेरा सारा शहर माँ मय हो गया था. बाबा भोले नाथ की नगरी में जित देखो , तित माँ के जयकारों की गूँज थी और ये हर संदर्भ में परम स्वभाविक स्थिति है क्योंकि स्वयं भोलेनाथ भी बिना शक्ति के शिव नहीं शव हैं तो शिव की नगरी में शक्ति के जयकारे पर अचरज कैसा ? 
सबने शुभ नवरात्रि का पर्व पूरी आस्था, भक्ति और विश्वास के साथ मनाया. इस पर्व का संदर्भ लेकर बनारस को मिनी बंगाल यूँ ही नहीं कहा जाता. जिसने भी काशी की दुर्गापूजा देखी है वो इसकी भव्यता से इन्कार  कर ही नहीं सकता.हम भी अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच समय निकाल कर पूजापंडालों में गये और माँ के भव्य-दिव्य स्वरूप का दर्शन किया.
 नवरातों में काशी के पूजा पंडाल देखने और देवीदर्शन करने का अर्थ है लगभग सारा शहर पैदल घूमना. ट्रैफ़िक व्यवस्था बनाये रखने और दर्शनार्थियों की सुविधा को देखते हुए तमाम रास्ते वनवे कर दिये जाते हैं और यातायात साधनों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है.मगर माँ के बच्चे सारी बाधाओं और परेशानियों को अपने ढेंगे पर रखते हुए सारी-सारी रात दर्शन कर निहाल होते रहते हैं.जैसा कि हर पर्व-उत्सव के साथ हमारी कोई न कोई आस्था या मान्यता जुडी होती है, नवरात्रि के साथ भी हमारी एक बेहद संवेदनात्मक आस्था जुडी है कि माँ इन दिनों अपने ससुराल से पीहर लौटती हैं और हमारे साथ पर्व मना कर दशमी के दिन वापस चली जाती हैं.एक बेहद भावुक विश्वास , जो मन को हर बार कहीं गहरे से छूता और विचलित कर जाता है. बेटी की विदा या माँ का जाना दोनो ही भाव मन को भिगो-भिगो देने वाले हैं. शायद यही वजह है कि हर बार देवीप्रतिमा विसर्जन के बाद एक भारीपन सा दिमाग पर छा जाता है. एक हफ़्ते की रौनक के बाद खाली और सूने पडे पूजापंडाल उदास कर जाते हैं और उदासी का सबसे गहन क्षण होता है माँ की प्रतिमा का विसर्जन .
दशमी रविवार को थी, इस दिन मान्यतानुसार बेटी विदा नहीं की जाती तो अधिकतर प्रतिमाएं सोमवार को विसर्जित की गयी.आफ़िस से लौट रही थी तो स्वभाविक रूप से जाम मिला. पुलिस-प्रशासन की मुस्तैद निगरानी के बीच कानफ़ोडू डीजे और नगाडों  पर बदहवास झूमते नाचते विसर्जन करने जा रहे   माँ के भक्तों को देख कर मन हमेशा की तरह विरक्त भाव से भर गया . माँ को विदा करने के क्षण में ये उल्लास कैसा...? 

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

युनुस भाई के बहाने...!

ये बात तो आप भी मानेंगे कि दुनिया में जो कुछ होता है उसके पीछे कोई न कोई वजह ज़रूर होती है. हर होनी का कोई न कोई बहाना ज़रूर बन जाता है.अब अगर ये सच है तो बिलाशक मेरे आकाश के इस सफ़हे पर उतरने वाले अल्फ़ाज़ की वजह हैं युनुस भाई. 
युनुस भाई बोले तो, युनुस खान... विविध भारती मुंबई की वो हरदिलअज़ीज़ आवाज़, जिसके तार्रुफ़ के लिये मेरे लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं. एक दफ़ा अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा के दौरान जब मैंने गुलमर्ग की ऊँचाइयों पर विविध भारती सुनते हुए लोगो को देखा  था तो तहेदिल से महसूस और स्वीकार किया था कि जो चीज़ें हिन्दुस्तान को एक छोर से दूसरे छोर तक जोडे रखतीं हैं, विविध भारती उनमें से ही एक है तो इस लिहाज़ से युनुस खान को भी किसी तार्रुफ़ की ज़रूरत नहीं. 
तो बिना कुछ और कहे सीधे अपनी बात पर आती हूँ.
युनुस भाई की मेहरबानी से एक बेहद कीमती, नायाब और अपने दिल के  बहुत करीब रहने वाले एहसास से एक नये अंदाज़ में रूबरू हुई हूँ मैं. 
उनकी मेहरबानी ये कि उन्होंने अपने ब्लोग और लिंक्स के ज़रिये ये बेशकीमती चीज़ अपने चाहने वालों और अपने दोस्तो से बाँटी है और वो चीज़ है - गुलज़ार साहेब की रूहानी शायरी से सजा बेहद खूबसूरत               " गुलज़ार कैलेन्डर "
कैलेन्डर है तो ज़ाहिर है तारीखें भी हैं जो साल के साथ बदल जायेंगी, पुरानी हो जायेंगी.लेकिन इस कैलेन्डर पर सजे अल्फ़ाज़ का नशा पुरानी शराब सा बढता ही जाना है इसमें कोई शक नहीं. 
इसको देखा तो जाने कब से बंद मन के दरीचे जाने कैसे खुदबखुद खुल गये और उनसे भीतर आकर यादों की खुश्बू ने मानों मेरे सारे वजूद को खुद में समेट लिया. मेरे तसव्वुरात मुझे हाथ पकड कर वहाँ ले गये, जहाँ से गुज़र चुके एक अरसा हुआ... मगर लगता है जैसे अभी कल... नहीं, बस कुछ पल पहले की बात है.......
क्या वक्त था, जब हम गुलज़ार को पढते नहीं, जिया करते थे, उनके अल्फ़ाज़ को पिया करते थे. १९९७ से २००१ तक का वो दौर जब आकाशवाणी वाराणसी में हम कुछ दोस्तो का वो अंतरंग सा दायरा, जिसका मर्कज़ थे गुलज़ार..., अपने अल्फ़ाज़ की शक्ल में. 
तब ज़िंदगी को समझने का हमारा सीधा फ़लसफ़ा हुआ करता था गुलज़ार समझना. यानी " जिन लाहौर नही वेख्या........" की तर्ज़ पर जिसने गुलज़ार को नही समझा उसने कुछ नही समझा...और गुलज़ार को समझना कोई हँसी-खेल तो था नहीं. अल्फ़ाज़ का ये जादूगर कब-कहाँ-किस तिलस्म में बाँध दे, क्या पता. सबकी कोशिश रहती कि बस उस हर तिलस्म की तह तक पहुँचा जा सके क्योंकि उसे तोडना कोई नहीं चाहता था.
मैं इस मामले में उन खुशनसीब लोगो में थी जिन्हें गुलज़ार को समझने के लिये कभी किसी ज़ेहनी मशक्कत से नहीं गुज़रना पडा. उनकी कलम से निकला हर लफ़्ज़ सीधे मेरे दिल तक यूँ पहुँचता रहा है मानों अपना ठिकाना खोज रहा हो. कई दफ़ा सिर्फ़ ये सोच कर रोई हूँ मैं कि आखिर इस शाएर ने मेरे मन को , मेरे दर्द को अपने लफ़्ज़ में कैसे लिख डाला ? हाँ... उस आसमान के सामने खुद के एक ज़र्रे से भी कमतर होने की हकीकत को स्वीकारते हुए भी अनगिनत बार मैंने अपने मन को उनके लफ़्ज़ में साँस लेते महसूसने की गुस्ताखी की है.  
मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पडा है.....ये नज़्म जब सुनी है, जैसे सारा जिस्म ही कानों में तब्दील हो गया है कि कहीं कोई एहसास छूट न जाए सुनने से.
गुलज़ार की सिर्फ़ रूमानी और रूहानी शायरी से ही इश्क नहीं किया हमने बल्कि उनके उस मासूम दुलार ने भी हमें कई बार रुलाया है जिस पर उनकी प्यारी बिटिया बोस्की (मेघना गुलज़ार) का एकाधिकार है   
" बिट्टू रानी बोस्की-बूँद गिरी है ओस की..."  
और एक स्वीकारोक्ति ये कि हर दफ़ा इन लाइनों ने बेवजह ही बोस्की से ईर्ष्या करने पर मजबूर सा किया है .
क्या दिन थे....! गुलज़ार साहब का शाहकार मरासिम हमारे जीने की वजह बन गया था.
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोडा करते...,
वक्त की शाख से लम्हे नहीं तोडा करते...! 


शाम से आँख में नमी सी है.
आज फिर आपकी कमी सी है.
वक्त रहता नहीं कहीं टिक कर,
इसकी आदत भी आदमी सी है.



सीने में जल रहा है क्यों बुझता नहीं धुँआ.
उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुँआ.
आँखो से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं,
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुँआ.



 मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे...!

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

मैं और ताजमहल...

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बीते रविवार मैं ताजमहल के साथ थी. सच..., वहाँ पहुँच कर किसी के साथ होने का सा ही एहसास होता है.तेज़-तीखी धूप के बावजूद ताज के सामने मौजूद होने की अनुभूति किसी ठंडक भरी राहत से कम नहीं थी. ये पहली बार नही था कि मैं वहाँ थी पहले भी कई दफ़ा दुनिया की इस नायाब खूबसूरती को बहुत करीब से देखने और महसूस करने का मौका मिला है. हर बार लगा है कि इसे तो बार-बार देखा जाय तो कम है और हर बार जब-जब ताज के सामने पहुँची हूँ , जेहन में गूँजता ये शे’र बेसाख्ता ज़ुबाँ पर आ गया है-



एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल; 
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है.

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

ये समय खुद को बधाई देने का है.

बात का संदर्भ निश्चित रूप से राष्ट्रीय है लेकिन इस वक्त मन सिर्फ़ अपने शहर के बारे में बात करने का हो रहा है और स्पष्ट कर दूँ कि इसके पीछे वजह , विचारों का संकुचन नहीं , बल्कि भावों की गहनता है. कल यानी तीस सितम्बर की तारीख हमारे इम्तहान का क्षण था .न सिर्फ़ एक व्यक्ति बल्कि एक लोकतन्त्र के रूप में भी हमारे कसौटी पर कसे जाने का दिन था कल. बीस साल पहले और उससे भी आगे साठ साल पहले की तल्ख यादों और कटु अनुभवों ने मन को न चाहते हुए भी कमज़ोर सा बना रखा था.
कुछ भी नहीं होगा के विश्वास को अगर कुछ हो गया तो... की आशंका का दंश लाख कोशिशों के बाद भी डस रहा था. सबकी तरह हम भी शाम ढलने के पहले घर पहुँच जाने को उत्सुक थे. मन में अपने लिये भय नही,हाँ जल्दी वापस लौट कर घर वालों को आश्वस्त करने का भाव ज़रूर था. ये बात और कि फ़ैसला क्या और किसके पक्ष में ? जैसे सवाल सोच के दायरे से भी कोसों दूर ही थे. इच्छा थी तो इतनी कि जो भी हो , सब सकुशल निकल जाए. फिर शाम हुई, देश का बहुप्रतीक्षित फ़ैसला आया और सब कुछ कुशलता से बीत गया.शाम के गहराने के साथ ही शहर बनारस की विश्व प्रसिद्ध अलमस्ती सडकों को गुलज़ार कर गयी. सारी आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए काशी की गंगा-जमनी तहज़ीब ने एक बार फिर अपना परचम लहरा दिया.
हम तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं अपने शहर के लोगों के,मीडिया के और प्रशासन के जिन्होंने मिल कर-हाथ से हाथ मिला कर न सिर्फ़ इस इम्तहान का सामना किया बल्कि अव्वल भी आये.
एक बार फिर जीती इन्सानियत,
एक बार फिर जीता बनारस !
होठों पर फिर आया एक शेर...

कभी तो यूँ हो कि दोनों का काम चलता रहे,
हवा भी चलती रहे और दिया भी जलता रहे !

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...