बरसों पहले स्कूल के आखरी सालों में ये कविता मैंने अपनी डायरी में लिखी थी । तब कुछ भी लिख कर किसी को दिखाने का ख़याल भी ज़ेहन में दूर - दूर तक नही होता था , बल्कि जो लिखा हो , उसे भी छुपाने की जुगत लगाई जाती थी , कि कहीं कोई पढ़ न ले । अब ये तो शायद इस कविता का नसीब था कि इसे आज मेरे आकाश में परवाज़ का मौका मिल गया वरना इतनी अच्छी तो ये नही थी । इस कविता में एक अजीब सा कच्चापन और अपरिपक्वता महसूस होती है जो शायद उस उम्र का तकाज़ा थी ...! ये मेरी उन चंद कविताओं में से एक है , जिनमे मैंने अपना नाम जोड़ा था ... !
जीवन की राह पर जो दीपक से जल रहे हैं ।
अपने ही हाथों अपनी किस्मत बदल रहे हैं ।
मत देखो सिर्फ़ उनको , जो भाग्य पे रोते हैं ,
उनसे भी लो सबक, जो गिरकर संभल रहे हैं ।
कर लो है जो भी करना , ये वक्त जा रहा है ,
चेतो , कि यूंही जीवन के क्षण निकल रहे हैं ।
हम कुछ नही कर सकते , सोचो न कभी, देखो ,
आकारहीन पत्थर प्रतिमा में ढल रहे हैं ।
2 टिप्पणियां:
बहुत ही अच्छी बन पड़ी है यह कविता.....बहुत सुन्दर. आभार.
आप लिखते थे.......... अभी लिखते हैं........... ये अच्छी बात है.............. निखार तो समय से आ ही जाता है
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