शनिवार, 29 मई 2010

इन लड़कियों को छूना है आसमां...


साल भर की मेहनत के बाद नतीजे निकलने का मौसम है । कहीं ख़ुशी - कहीं ग़म का आलम है । देश के सारे बोर्ड्स ने दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणाम घोषित कर दिए हैं । चूंकि ये मेरी कार्य सूची में शामिल है , मैं पिछले एक सप्ताह से सीबीएसई परीक्षा में टॉप करने वाले छात्र - छात्राओं का इंटरव्यू ले रही हूँ । काम तो अपनी जगह है ही , मगर उससे जुड़ा एक अलग ही एहसास है सफलता की खुशी से दमकते उन चेहरों को देखना , उनकी बातें सुनना और उनकी आँखों में जगमगा रहे सुनहले सपनों को उनके साथ बांटना...... और उससे भी बढ़ कर सुखद अनुभूति है इस सफलता की ऊंचाइयों पर अपना परचम बुलंद करने वाली बच्चियों से मिलना । अपने स्कूल और विषयों में टॉप करने वाली इन विजेता लड़कियों से मिलना, देश और समाज के आगामी उज्ज्वल भविष्य से मिलने जैसा है । बहुत करीब से देखती हूँ मैं , इनकी आँखों में अपने भविष्य और स्वप्नों को ले कर कोई संशय नहीं है , न ही मन कोई खौफ़ है किसी से हार जाने या पिछड़ जाने का। खुद पर इतना अटल विश्वास की पर्वत भी हैरान हो जाये , अपने लक्ष्य के प्रति ऐसा समर्पण की किसी किन्तु - परन्तु की कोई गुंजाइश ही नहीं । दिल - दिमाग एक क्षण के लिए भी अपने मार्ग से विचलित न हो , इरादों में ऐसी दृढ़ता ... । ऐसी बेटियों से मिलने और उनसे बात करने को मैं अपनी उपलब्धि मानती हूँ । हर साल परीक्षा परिणामों के घोषित होने के साथ ही अख़बारों में छा जातीं है सुर्खियाँ एक बार फिर बेटियों के बाज़ी मारने की । इस बार भी वही जाना -पहचाना नज़ारा है । मैं मन ही मन गद - गद हूँ , लेकिन हमेशा की तरह है मन में एक संशय भी , कि इन बेटियों को अपने सपनों का आकाश छूने के जिस मजबूत सीढ़ी की ज़रुरत होगी , क्या हम वो उन्हें दे पाएंगे ? कहीं ये सुनहले सपने बीच राह में ही हार तो नहीं मन बैठेंगे । क्या हम अपनी बेटियों का हाथ थाम कर उन्हें उनकी मनचाही मंजिल तक पहुंचाने में उनके सच्चे साथी बनेगे ? अगर आपका जवाब हाँ में है तो आपको बहुत - बहुत बधाइयां ... !

मंगलवार, 25 मई 2010

बस एक पल .............!


" मौत का एक दिन मुईन है " ये लिखते समय यक़ीनन ग़ालिब भी इस हकीकत से वाकिफ़ रहे होगें कि ये मामला दरअसल एक दिन नहीं ,बल्कि महज एक पल का हैबस ...... एक ...... पल ..... ! या फिर उसका भी हजारवां हिस्सा ..... , बस इतना सा ही फ़ासला होता है ज़िन्दगी और मौत के बीचइतनी ही देर लगती है हैं से थे होने मेंलिखना और भी बहुत कुछ चाहती हूँ मगर पता है , ये वक्त फ़लसफ़ा झाड़ने का नहीं सख्त अफ़सोस करने का है । विश्व की महाशक्तियों में शुमार होने के लिए कमर कसे हमारे देश में एक विख्यात उड्डयन कंपनी का विमान रनवे पर सुरक्षित उतरने में नाकाम रहा और १५८ लोग रात की नींद टूटने से पहले ही हमेशा के लिए मौत की गोद में सो गए । एक ऐसा भीषण हादसा , जिसने हर सुनने वाले का दिल दहला दिया । गलती किसकी थी , चूक कहाँ हुयी ,कारण क्या थे , ये सब जानने के लिए जाँच एजेंसियों को काम मिल चुकाहै । फ़िलहाल सारा दोष विदेशी पायलेट के सिर मढ़ा जा रहा है । ये आसान भी है क्योंकि वो बेचारा तो अब अपनी सफाई देने आने से रहा । लेकिन सौ बात कि एक बात ये कि जो चिराग उजाला होने के साथ ही बुझ गए उनमे अब फिर कभी रौशनी नहीं आयेगी ।

सोमवार, 24 मई 2010

इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है ?


आजकल मेरे शहर में प्रगति कार्य ज़ोरों पर है और चूंकि मेरे शहर में हर प्रगति कार्य की शुरुआत सड़क की खुदाई से होती है इसलिए अब आलम ये है कि शहर की लगभग सारी मुख्य सड़कें या तो खोदी जा चुकी हैं या फिर खोदी जाने वाली हैं इस अनवरत और धुआंधार सड़क खुदाई के चलते मेरा शहर मैदानी से पहाड़ी और शहरी से ग्रामीण क्षेत्र में तब्दील हो चुका है चूंकि प्रगति की बहुत जल्दी थी इसलिए ये व्यवस्था नहीं बनाई गयी कि एक काम पूरा हो जाने के बाद ही दूसरे काम में हाथ लगाया जाये और हर तरफ एक साथ ही काम शुरू हो गया अब अगर घर से ऑफिस की दूरी घड़ी देख कर आधे घंटे की है तो बेहतर ये होगा कि घर से दो घंटे (बिना किसी अतिश्योक्ति के) पहले निकला जाए वरना टाइम पर पहुँचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है कारण --- हर मुख्य चौराहे और रास्ते पर बेतहाशा - बेतरतीब जाम तेज़ धूप, चिलचिलाती गर्मी में घंटो जाम में फंसने का दर्द वही जानता है जिसने ये त्रासदी झेली हो इस स्थिति का असर धीरे - धीरे ज़हर सा फैलता जा रहा है पहले जहाँ रिक्शे और ऑटो वालों से झिक - झिक की नौबत कभी - कभार ही आती थी वहाँ अब शायद ही कोई दिन हो जब ऐसा होता हो लगता है सब पगला गए हैं धूल - धूप - गर्मी - जाम और घंटों की फजीहत से बौखलाए लोग जैसे दिमागी संतुलन खोते से जा रहे हैं एक तरह की मानसिक त्रासदी के शिकार होते जा रहे हैं सब के सब दिमाग और शरीर की ऊर्जा सडकों पर खोने के बाद घर पहुँचने पर इतनी हिम्मत भी बाकी नहीं रहती कि सुकून के चन्द पल घरवालों के साथ बिताये जा सके दिन भर दिलोज़ेहन में इकट्ठा तनाव और शोरगुल इस हालत में नहीं छोड़ता कि शाम के कुछ लम्हे चैन से गुज़ारे जाएँ

शनिवार, 8 मई 2010


केलेंडर बता रहे हैं कि नौ मई को मदर्स डे हैमाँ का दिन ... । अपने बच्चे के ही लिए जीने वाली , उसकी ही आँखों से सोने - जागने वाली , उसके ही सपनों पर कुर्बान होने वाली माँ को एक प्यार भरा आभार देने का दिन ... । जिस माँ से बस लेते ही लेते रहते हैं , उस माँ को एक नन्हा मगर दुलार भरा उपहार देने का दिन .... । सब अपनी -अपनी माँ को उपहार देने और उसे खुश करने की योजना बनाने में व्यस्त हैं और मैं ...........................
मैं सोच रही हूँ कि क्या दूँ माँ को , जो उस तक पँहुच जाये क्योकि मेरी माँ तो अब वहाँ है , जहां शायद मेरी आवाज़ भी नहीं पँहुच सकतीएक अजब सा खालीपन महसूस कर रही हूँ जिसे बाँट पाना मुमकिन ही नहीं हैजब मैं छोटी थी तब ऐसे पर्व नहीं होते थेअपनी माँ से बेपनाह मोहब्बत करने के बावजूद मैं उससे कभी नहीं कह सकी कि माँ मैं आपको बहुत प्यार करती हूँमैंने उसे कभी ये भी नहीं बताया कि उसके नहीं होने पर मेरी जिंदगी किस कदर अधूरी और ख़ाली हो जायेगीमैंने अपनी माँ को कभी आभार भरा उपहार या सुन्दर संदेशों वाला कार्ड नहीं दियाशायद हमेशा यही सोचा कि माँ तो सब जानती ही है , अगर नहीं जानती तो उसे जानना चाहिए ,आखिर वो माँ जो हैपता नहीं, माँ के रहते मैं कभी ये क्यों नहीं सोच पायी कि प्यार का एहसास कितना भी रूहानी सही मगर कभी - कभी शब्दों के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति भी अहमियत रखती हैकोई हमारे लिए कितना ज़रूरी है ये बताना कभी - कभी उसकी उम्र बढाने जैसा हो सकता हैमेरी माँ मेरे लिए कभी खुद से अलग इकाई नहीं रहीवो पहले भी मुझ में थी , आज भी है और तब तक रहेगी जब तक उसकी कोख में आकार लेने वाला मेरा शरीर ख़त्म नहीं हो जातालेकिन आज सोच रही हूँ तो लगता है कि हाँ मुझसे भूल हो गयीमुझे माँ से कहना चाहिए था, वो सब कुछ, जो मैं कहना चाहती थी उससेमुझे उसे बताना चाहिए था कि चाहे उसने मुझे अपने भीतर सिरजा हो , मगर मैं उसे अपने भीतर महसूस करती हूँमुझे माँ से कहना चाहिए था कि मेरे लिए सारी दुनिया में उससे ज्यादाख़ास, प्यारा और कीमती कोई था, होगामुझे माँ को बता देना चाहिए था कि ऊपर से चाहे मैं कितनी भी निश्चिन्त , निर्लिप्त दिखूं , लेकिन सच ये है कि उसके हर सुख - दुःख से मैं भीतर तक टूटती - जुड़ती, बनती - बिगड़ती हूँमुझे माँ को ये भरोसा भी ज़रूर दिलाना चाहिए था कि हालात ने ऊपर से भले ही मेरे रास्ते उससे अलग बना दिए हो मगर मेरा हर रास्ता उससे ही हो कर गुज़रता हैजिंदगी चाहे कितने भी रास्ते बदले मगर उसके ही लहू - अस्थि - मज्जा से बनी मैं उससे अलग नहीं होउगींहां...... मुझे माँ से ये सब कह देना चाहिए था,मगर मैंने नहीं कहा और आज ये एहसास मुझे बेतरह तकलीफ़ दे रहा है कि माँ ये सारा सच जाने बिना ही चली गयीदुनिया की हर माँ को अपने बच्चे से ये सुनने का हक़ है कि वो उसके लिए कितनी ख़ास है और मेरी माँ को उसका ये हक़ नहीं मिल सकाआज दुकानें हृदयस्पर्शी संदेशों वाले कार्डों से सजी हैं मगर मैं चाहूं तो भी उन्हें खरीदकर माँ तक नहीं पहुँचा सकतीमैं गिफ़्ट की दुकानों पर माँ के लिए सजे उपहारों को देखती हूँ और उदास हो जाती हूँदिख रही चीज़ें अचानक धुंधला जाती हैं और एहसास होता है कि कुछ आंसू सा कर अटक गया है

शुक्रवार, 7 मई 2010

कुदरत तुझे सलाम !

सात मई की सुबह एक अलग ही अनुभव ले कर आयीमैं सोच रही थी कि ये हंगामा सिर्फ मेरे शहर में ही बरपा मगर अगले दिन की ख़बरों से मालूम हुआ कि पूरा पूर्वांचल और हमारा पड़ोसी बिहार भी इसकी चपेट या कहें कि लपेट में थासुबह साढ़े छः बजे उठी तो सब ठीक - ठाक थारोज़ की तरह ... । लेकिन सात बजते - बजते '' दिन में रात हो गयी '' और फिर स्क्वाल (एक प्रकार का तूफ़ान ) नाम के बिन बुलाये अतिथि महोदय कुछ इस अंदाज़ में धमके कि मज़ा गयाबाद में मौसम वैज्ञानिकों के हवाले से मालूम चला कि ये अतिथि महोदय दरअसल बिन बुलाये नहीं , बाकायदा निमंत्रित थेये बात दूसरी है कि ये निमंत्रण हमने नहीं , पिछले कुछ दिनों से लगातार बढ रही गर्मी और नमी के चलते खुद कुदरत का दिया हुआ थातभी तो ये इतने बिंदास तरीके से आये , गरजे, बरसे और बस मिनटों में हंगामा मचा कर गएसच कहती हूँ बहुत अद्भुत नज़ारा थातेज़ हवाएं , मूसलाधार बारिश ,तूफ़ान में बौराए झूम कर दोहरे हो रहे पेड़ , हवा के तूफानी वेग से उखड़ कर यहाँ - वहाँ उड़ रहे - गिर रहे लोहे के बड़े - बड़े होर्डिंग्स , बिजली के खभे और पेड़ों के मोटे - मोटे तनेये भी इत्तेफ़ाक था कि मैं ठीक उसी वक्त सुबह की ड्यूटी पर जाने के लिए रास्ते में थी शायद इसीलिए इस नज़ारे को और भी करीब से महसूस कर सकीलगता था कि किसी भी वक्त कोई पेड़ या होर्डिंग उखड़ कर गाड़ी पर गिरेगाईश्वर की कृपा से मैं तो सुरक्षित गंतव्य तक पहुँच गयी लेकिन इस तूफ़ान ने कितना कहर ढाया ये तो अगले दिन के अखबार से पता चलाउस बर्बादी का ब्यौरेवार वर्णन करना नहीं चाहती लेकिन ये ज़रूर सोच रही हूँ कि ............ सच कितनी ताकत होती है कुदरत में और जब वो ताकत जगती है तो हमारी सारी शक्ति , सारी ताकत पनाह मांगने लगती हैफिर भी कितने दुस्साहसी होते हैं हम इंसान भी , बार - बार कुदरत को छेड़ना नहीं छोड़तेज़रा सोचिये, इस छेड़- छाड़ से कुपित हो कर जिस दिन ये कुदरत अपने प्रकोप का तीसरा नेत्र खोल देगी, उस दिन हमारा क्या होगा ?

गुरुवार, 6 मई 2010

देर आया ,क्या दुरुस्त भी आयेगा ??????????/


वैसे तो संसार का हर धर्म दया , करुणा और क्षमा की शिक्षा देता है और विशेषकर हम भारतीय इस शिक्षा को सही अर्थो में आत्मसात भी करते रहे हैं ,मगर कभी - कभी अन्याय और अत्याचार उन हदों के पार चला जाता है जहाँ किसी भी नैतिक शिक्षा की कोई भूमिका नहीं रह जाती वहाँ होता है सिर्फ क्रोध , तिलमिलाहट तीव्र आक्रोश और रगों में सुलगता लावा जो सिर्फ और सिर्फ प्रतिशोध लेना और अत्याचारी को दंड देना चाहता है २६/११ को भारत की अस्मिता पर हुए आतंकी हमले के बाद शायद हर भारतीय ने ही अपनी रगों में इसी लावे को पिघलता महसूस किया है । ऊपर से सितम ये कि अपनी - अपनी जगह रह कर - रुक कर सिवाय देखते रहने के कुछ किया भी नहीं जा सकता क्योकि दंड देना एक कानूनी और संवैधानिक प्रक्रिया है जिसके अपने तरीके हैं, प्रावधान हैं , जिनमे समय लगता है , प्रतीक्षा करनी पड़ती है शुक्र है कि प्रतीक्षा - काल बीता और छः मई , २०१० को वो फैसला ही गया जिस पर पूरे देश की नज़र टिकी थी अजमल कसाब को अंततः सज़ा--मौत का फ़र्मान सुना दिया गया ये वो शख्स है जिसकी बेरहमी ने ऐसा कहर बरपा किया था जिसमे जाने कितनी जिंदगियां ख़त्म हो गयीं , कितनी बर्बाद हो गयीं और कितनी ही हमेशा - हमेशा के लिए जिंदा लाशों में तब्दील हो गयीं एक ऐसा जुर्म , जिसके लिए रहम की सोचना भी गुनाह सरीखा है अदालत ने मुजरिम को वही सज़ा दी , जिसका वो हकदार था फ़ैसला आने में वक्त लगा , मगर आया तो मन को ठंडक मिली लेकिन .............
बात अभी खत्म पर नहीं पहुंची है ये फैसला तो कुछ देर के लिए दर्द का एहसास भुला देने वाली दर्दनिवारक दवा की गोली जैसा है ,दर्द का पूरा इलाज नहीं और अब सवाल है यही कि क्या ....... दर्द का पूरा इलाज होगा ? कसाब की अंधी दरिंदगी ने जिन जिंदगियों को हमेशा के लिए अंधे कुएं में धकेल दिया , क्या...... उन्हें न्याय मिलेगा ?
क्या इस सज़ा के फ़ैसले पर अमल होगा ?
या फिर --------------------------------------------------- ???


अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...