सोमवार, 26 अप्रैल 2010

उसने कहा है ...

चर्चा है कि सोशल नेटवर्किंग साईट्स बड़े लोगों की नोक -झोक और लड़ाई का नया मैदान बन चुकी हैंकिसी को किसी के भी लिए कुछ भी कहना हो , शोले उगलने हों या फिर फूल बरसाने हों , आज की तारीख़ में सबसे अच्छा तरीका है , अपनी नेटवर्किंग साईट पर जाना और सारी भड़ास निकाल देनायही वो माध्यम है जहां आपकी बात बिलकुल उसी प्रारूप में छप जाती है ,जैसा आप कहना चाहेंवो भी बिना किसी संपादन के ,सिर्फ एक क्लिक परअपने को अभिव्यक्त कर पाना सचमुच इतना आसान कभी नहीं थामुझे लगता है इस विषय पर नकारात्मक दृष्टिकोण की बजाय सकारात्मक तरीके से रिएक्ट किया जाना चाहिएआखिर बात चाहे जैसी क्यों हो , पहुँच तो अपने मूल रूप में ही रही है और ये एक शुभ लक्षण कहा जा सकता हैये स्थिति उन दिनों से तो अच्छी ही कही जाएगी जब सेलिब्रिटीज़ और आम लोगों के बीच में एक ख़ास जमात होती थी, जिन पर उन बड़े लोगो की बात को आम जनता तक पहुँचाने का जिम्मा हुआ करता था और जिनके हाथों में किसी भी बात को किसी भी हद तक तोड़मरोड़ कर अपने तरीके से पेश कर देने की विध्वंसकारी ताकत भी ... । कहा कुछ जाता था और लोगों तक पहुँचाया कुछ और जाता थाइस सबके पीछे अपने -अपने निहित स्वार्थों की भूमिका हुआ करती थी और बेचारा कहने वाला दिनों , महीनों , सालों तक सफाई देता फिरता था कि उसने ऐसा नहीं कहा या फिर उसके कहने का वो मलतब नहीं थाबेचारी जनता अलग ही कन्फ्यूज़न में पड़ी रहती थी कि किसे सही माने, किसे गलतये स्थिति अगर सौ फ़ीसदी सच नहीं तो पचास फ़ीसदी तो थी हीसमय बदला और समय के साथ हमारे कहने - सुनने के तरीके भी बदलेआज बात चाहे हमारे महानायक की हो , सुपर हीरो की हो , मनपसन्द खिलाडी की हो , या हो किसी विवादित हस्ती की , उनके ब्लॉग पर जाईये और जान लीजिये वो सब कुछ जो वो अपने पक्ष में आपसे कहना चाहते हैंउन्हीं के भाव ,उन्हीं के विचार , उन्हीं के शब्दों में , बिना किसी दूसरे की मिलावट के . हाँ , बात में खुद कहने वाले ने सच - झूठ की कितनी मात्रा का इस्तेमाल किया है ये परखना आपके विवेक पर निर्भर करता है लेकिन कम से कम आप इतना निश्चिन्त तो हो ही सकते हैं कि जो कुछ आप पढ़ रहे है ये उसी की अभिव्यक्ति है , जिसके नाम पर आप पढ़ रहें हैं ।निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की ये पारदर्शिता स्वागत और प्रशंसा के योग्य है ।
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शनिवार, 24 अप्रैल 2010

क्या सचमुच गुम जाएगी पाती ...?

अब भी अच्छी तरह याद हैं बचपन के वो दिनकोमल सपनों के मन की डाल पर फरने के दिनसब कुछ कितना सुन्दर थावो हर रिश्ता, हर नाम , हर चीज़ , जो मन के पास थी , आस-पास थी , मानों ज़िन्दगी का ही हिस्सा थीजैसे उनके ही दम पर जीवन चल रहा होउनके बगैर भी जीवन है ये सोचना भी असंभव थाउनमें से ही एक था मोहल्ले का डाकिया और उसकी लाई हुयी चिट्ठियाँ । इंतज़ार के वो भी क्या हसीं पल थे । नानी की , मासी की ,सबसे बढ कर दोस्तों की चिट्ठियाँ , जो रहते तो अपने ही शहर में थे लेकिन उनसे भी बात करने लिए नीले अंतर्देशीय और पीले पोस्टकार्ड का सहारा लेना बेहद आत्मीय और सहज लगता था । अब की तरह घंटों मोबाइल से चिपके रहने का तो सवाल ही नहीं था ,क्योंकि मोबाइल ही नहीं था । तब स्कूल से लौट कर माँ से पूछना - '' कोई चिट्ठी आई क्या ?'' और जवाब में ' नहीं ' मिलने पर धूप वाली खड़ी दोपहरी में दरवाज़े पर जा कर डाकिये की राह देखना .... , क्या आनंद था उसमें , ये व्यक्त करना शब्दों के बस का नहीं । चिट्ठी में क्या लिखा है , उसका सुख तो पढ़ कर मिलता , लेकिन लिफाफे को छूने का सुख उससे कहीं बढ कर होता , मानों लिखने वाले के हाथ की खुशबू सीधे हम तक आ पंहुची हो । कॉलेज तक ये सिलसिला चलता रहा । फिर मानों समय ने अपनी जादुई झाड़ू फेरी हो , सालों कैसे बीत गए ,पता ही नहीं चला । सब कुछ बदलता रहा और पिछले पांच - छः सालों में तो इस बदलाव की गति कुछ ज्यादा ही तेज़ हो गयी । इस गति के बहाव में सबके साथ हम भी बहे इसलिए कुछ बदलता सा महसूस नहीं हुआ , लेकिन कल अचानक बहुत दिनों बाद मोबाइल पर विविध भारती सुन रही थी । फरमाईशी गानों का कार्यक्रम चल रहा था और फरमाईशें थीं एस ० एम० एस ० के ज़रिये । बेशक अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप विविध - भारती पर बज रहे गाने बहुत कर्णप्रिय थे लेकिन मेरे मन की किसी सतह पर कहीं और कुछ और ही याद बज रही थी । याद आ रहे थे आकाशवाणी के वो दिन , फरमाईशी प्रोग्राम के लिए आने वाली चिट्ठियों के वो ढेर के ढेर और हमारा घंटों वो पत्र छांटना ... । एक ही श्रोता परिवार के बीसियों पोस्टकार्ड देखना और कहना - '' हे भगवान ! कैसे दीवाने लोग हैं ? पता नहीं इतना टाइम कैसे निकाल लेते हैं ? '' और सच कहूं फरमाईशों के एस ० एम ० एस ० के बीच मुझे अचानक ही वो दीवाने लोग बेहद याद आने लगे । ... तो विविध - भारती से भी चिट्ठियाँ गयी ? हम तो पहले ही आधुनिकता की दुहाई दे कर एक क्लिक पर बात कह डालना सीख चुके थे । अब कोई दीवानगी में डूब कर किसी को पाती पर पाती नहीं भेजा करेगा । किसी के पास समय नहीं। न लिखने का, न पढने का । शार्ट मैसेजेज़ और मेल्स का ज़माना है और यही शायद अब हमारी ज़रुरत भी । वैसे तो इस पूरे किस्से में बदलने वालों में हमारा भी नाम आता है लेकिन जाने क्यों मन में हूक सी उठी । कार्यक्रम के स्वरुप में ये बदलाव निश्चित रूप समय के साथ कदम से कदम मिलाने के लिए किया गया है लेकिन ये बदलाव मन को सोचने पर मजबूर कर गया । अब क्या सचमुच गुम जाएगी पाती ? और शायद साथ ही साथ गुम जायेगे पाती लिखने वाले और पाती पा कर उसमें लिखने वाले किसी अपने के हाथों की खुशबू खोजने वाले दीवाने लोग ... !

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...