शनिवार, 18 सितंबर 2010

तस्वीरों में कैद खूबसूरत यादें....!

कहते हैं, वक्त गुज़र जाता है, यादें रह जाती हैं. वो रह ही नहीं जातीं , बल्कि मन के एक कोने में हमेशा-हमेशा के लिये अपना घर भी बना लेती हैं.याद बुरी हो तो ज़िन्दगी भर की तकलीफ़ बन कर रह जाती है और अच्छी  हो तो तकलीफ़ में मरहम बन कर सुकून देती है,लेकिन याद रहती ज़रूर है.मेरे ज़ेहन में भी अनगिनत यादों का अम्बार है. अच्छी भी , कुछ बुरी भी... ! लेकिन कुछ यादें हैं जो इन दोनों परिभाषाओं से अलग..., अपना वजूद बनाये हुए हैं. वो यादें, जो मुझे ज़िन्दा रखती हैं ,मुझे मेरे जीने का मकसद और मायने देती हैं, तमाम परेशानियों में भी मुझमें ये यकीन जगाये रखती हैं कि ये दुनिया बेहद अच्छी है, जीने-देखने-महसूस करने के काबिल है और ऐसा मुझे शिद्दत से महसूस होता है, जब मैं कुदरत के करीब होती हूँ. बीती जुलाई में उत्तर भारत भ्रमण के दौरान कुदरत के करीब होने का मौका मिला तो इन यादों का खज़ाना कुछ और भर गया. सोचा था, लौट कर हर एक क्षण को ब्लोग में ज़रूर सहेज लूँगी लेकिन ऐसा कर न सकी.मगर आज फिर मन में ये ख्याल एक अधूरी ख्वाहिश सा कौंधा तो सोचा,क्यों न उन यादों के रंग में रंगी तस्वीरों को ही बाँट लूँ अपनों के साथ... और इसी बहाने मैं भी जी लूँ , फिर से वो सारे पल ................!
मैं... मनाली में....
वशिष्ठ मंदिर - मनाली

हुस्न पहाडों का...

क्या कहना , कि बारहों महीने....
यहाँ मौसम जाडों का... !
यकीन नहीं होता, जो जगह मेरे ख्वाबों में थी , वो अब इतने पास....
ख्वाब जैसा सच... , सचमुच !!

ये हसीं वादियाँ......

ये खुला आसमाँ.....

यकीं नहीं होता , हम हैं वाकई यहाँ...

मनाली में व्यास नदी के किनारे...

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मर्चेंट आफ़ दी वेनिस...!



 



 नही... ,नही..., आप धोखे में बिल्कुल मत आइयेगा . ये शेक्सपियर के मर्चेंट आफ़ दी वेनिस की झलक नही , हमारे शहर की एक व्यस्ततम सडक का नज़ारा है. अब कि सावन हमारे शहर में ज़रा झूम के आया और भादो ने भी कारे-कजरारे मेघों की अगवानी में बाहें पसार दी तो फिर क्या..., जित देखो, उत जल ही जल...! आनंद तो खूब आया लेकिन बकौल जनाब जावेद अख्तर साहेब -  दुनिया में हर शै की कीमत होती है तो हमने भी आनंद की कीमत चुकायी, जगह-जगह जल-जमाव झेल कर ! अब इन बेचारों की हालत पर गौर कीजिये - बिना कश्मीर गये डल झील के बीच बैठे हैं ग्राहकों के इंतज़ार में , ग्राहक कोई नाव मिले, तब तो पार करें ये वैतरणी...! वेनिस या डल झील में तो लोगों को ये सुविधा मिलती ही है न , फिर हमें क्यों नही.....,  किससे कहें ?  लगता है अब आसमान से ही पानी के साथ ही नाव या लाइफ़ बोट बरसे , तब कहीं जा कर इस मुसीबत से राहत हो ..., आपका क्या ख्याल है ? 

सोमवार, 13 सितंबर 2010

जुगलकिशोर जी के साथ साक्षात्कार के अंश...

आमिर खान प्रोडक्शन की फ़िल्म पीपली लाइव में मुख्यमंत्री की भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ कलाकार जुगल किशोर जी से मुलाकात का अवसर मिला. इस पोस्ट में इसी मुलाकात में की गयी कुछ बातों को शब्दों में बाँध कर प्रस्तुत कर रही हूँ-

हिन्दी बेल्ट में रंगमंच की स्थिति पर आपका क्या सोचना है ? हिन्दी रंगमंच को आज कहाँ पाते हैं आप ?

हिन्दी रंगमंच की स्थिति आज निश्चित रूप से संतोषजनक नहीं कही जा सकती है.वो गुणवत्ता अब नही रही जो पहले हुआ करती थी.हाँलाकि रंगमंच के लिये सुविधाएं ज़्यादा हो गयी हैं फिर भी वो क्वालिटी अब देखने को नहीं मिलती. वजह ये है कि हिन्दी रंगमंच अब भी प्रोफ़ेशनल का दर्जा हासिल नही कर पाया है. पैसे और शोहरत के लिये अच्छे कलाकार टीवी या फ़िल्म की ओर रूख कर लेते हैं .बिना किसी लाभ या पैसे के थियेटर करने वाले दीवाने कम ही मिलेगे और अगर मिलें भी तो क्वालिटेटिव वर्क ही उनकी प्राथमिकता होगी, जो कम हो चुका है 

आप रंगमंच का जाना-माना नाम हैं. आपकी फ़िल्म पीपली लाइव भी इस समय विश्वस्तर पर चर्चा में है.एक धारणा ये बनी हुई है कि अगर रंगमंच के कलाकार सिनेमा की ओर रूख करते हैं तो ये उनमें रंगमंचीय समर्पण में  कमी का द्योतक है. दोनों माध्यम को जीने के बाद आपका इस धारणा में कितना विश्वास है ?

बिलकुल नहीं !  रंगमंच और सिनेमा दो अलग स्तर की अभिव्यक्तियाँ  हैं जिनमें तुलना व्यर्थ है . एक अच्छा  और अच्छे काम के लिये उत्सुक कलाकार इन दोनो ही माध्यमों से खुद को व्यक्त करना चाहेगा और उसे ऐसा करना भी चाहिये. नाटक और सिनेमा में एक सबसे बडा अंतर है पहुँच का. मैं इस वक्त यहाँ बैठा आपसे बातें कर रहा हूँ और इसी वक्त दुनिया के तमाम थियेटर में मेरी फ़िल्म चल रही होगी और मैं एक्टिंग कर रहा हूँगा, ये है सिनेमा की रीच. नाटक एक बार हो कर खत्म हो जाता है . फिर उसकी चर्चाएं होती हैं, समीक्षाएं होती हैं, अखबार में खबर छपती है, लेकिन नाटक खत्म हो जाता है, अगले शो तक के लिये .... , लेकिन फ़िल्म चलती रहती है. आप सो रहे हों तो भी आपका काम देखा जाता है, आप न भी रहें तो आपका काम रहता है और आपको भी ज़िन्दा रखता है , तो ये पहुँच है सिनेमा की. फ़िल्म और थियेटर के बीच भेद-भाव  की बातें बेसिर-पैर की हैं . बल्कि मुझे तो लगता है कि समर्थ कलाकार को दोनो ही माध्यमों में काम ज़रूर करना चाहिये. लोगों को भी अच्छा काम देखने को मिलेगा.

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

नेमतें लाया चाँद ईद का..... !


एक महीने की इबादत ,रोज़े,नमाज़,तरावीह और जब्त के साथ बिताये गये वक्त का ईनाम मिलने ही वाला है. चाहत का जाम लेकर, दिलकश पयाम लेकर,खुशियाँ तमाम लेकर,लो ईद आ रही है...कितने खुशकिस्मत हैं हम लोग,जो हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं और हमें कुदरत और इंसान दोनो की बख्शीं नेमतें और खुशियाँ जीभर के जीने का मौका ऊपर वाले ने दिया है. जिस-जिस तक मेरे ये अल्फ़ाज़ पहुँचे, उन सबको मेरी और मेरे वतन की ओर से ईद की ढेरों मुबारकें...!
ईद की दुआएं, सबके लिये




सब खुश हों ,हर मुँह में सेंवई की मिठास हो, हर ज़ुबान पर अमनोअमान के लिये दुआएं हों, हर दिल में सबके लिये प्यार-दोस्ती हो, हमारे लिये तो बस यही सबसे कीमती ईद हो जायेगी.और ये एक बहुत प्यारा सा शेर ,आप सबके लिये, जो मेरे शहर और अदबोशायरी के बहुत मकबूल और हरदिलअज़ीज़  शाएर जनाब मेयार सनेही की कलम से निकला है -

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मुख्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ एक मुलाकात



बात पूरी करने पहले साफ़ कर दूँ कि मुख्य प्रदेश को भारत के नक्शे पर खोजने की कोशिश मत कीजियेगा . ये प्रदेश आपको आमिर खान प्रोडक्शन की हालिया फ़िल्म पीपली लाइव में मिलेगा और अगर आपने ये फ़िल्म देखी है तो निश्चित रूप से आपको मुख्यमंत्री महोदय भी याद होगें जो नत्था की आत्महत्या के एलान के बाद नत्था और अपनी इमेज दोनों को बचाने के द्वन्द्व में फँसे रहते हैं. पर्दे पर इस किरदार को दमदार तरीके से निभाने के लिये आमिर खान प्रोडक्शन ने जिस कलाकार को चुना , वो थे रंगमंच के सशक्त अभिनेता और भा० ना० अ० , लखनऊ-रंगमंडल के प्रमुख श्री जुगल किशोर जी. पिछले दिनों एड्स पर आधारित त्रिपुरारी शर्मा द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक शिफ़ा की टीम के साथ जुगल जी बनारस में थे . स्थानीय समन्वय हमारी संस्था सेतु ही कर रही थी तो मुझे जुगल जी से कुछ बातें करने मौका मिल गया , जो हमेशा की तरह मेरे लिये एक खास अनुभव था.रंगमंच जीवन के यथार्थ से जुडा माध्यम है , जबकि सिनेमा को लार्जर दैन लाइफ़ कहा जाता है .दोनो ही माध्यमों में सबसे बडा फ़र्क है पहुँच का. जुगल जी ने बातचीत के दौरान कहा भी कि इस वक्त मैं आपसे यहाँ बैठा बातें कर रहा हूँ और दुनिया भर में जाने कितने लोग इसी वक्त मुझे सिनेमा के पर्दे पर देख रहे होंगे.नाटक में हमें रोज़ अपनी जगह ,अपने किरदार में मौजूद होना पडता है जबकि फ़िल्म एक बार बन जाये तो वो कालजयी हो जाती है. फिर उस कहानी में वो किरदार और किरदार के माध्यम से कलाकार हमेशा ज़िन्दा रहता है.और भी ढेरों बातें हुई और ये मुलाकात भी मेरे यादगार लम्हों में शामिल हो गयी.

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...