शनिवार, 19 दिसंबर 2009

कमाल है !

मैं चीजों को अपनी आँख से देख कर परखने की आदी हूँ , दूसरो की राय मुझ पर कम ही असर डालती है । लेकिन ये कोई शाश्वत सत्य नहीं । कभी - कभी स्थितियां इसके उलट भी हो जाती हैं । जैसा कि आज का उदहारण... । अभी - अभी "पा " से मिल कर लौटी हूँ और मन भावों से भरा हुआ है । रविश कुमार जी के कस्बे में अक्सर ही आना - जाना होता है । बहुत सारी बातें दिल के बहुत करीब आ कर छू जाती हैं ,जैसे उनकी वन रूम सेटहा , दिल्ली की जिंदगी का रोजनामचा । जब उनका दावा पढ़ा कि "पा " सिर्फ "पा " की फिल्म नहीं और भी बहुत कुछ है , सच कहूं , तब से ही मन में खलबली मची हुई थी कि कितनी जल्दी इस फिल्म को देख डालूँ । वैसे मैं फिल्म रिलीज़ होने के तीन - चार हफ़्तों के बाद ही (अगर वो सिनेमा घर में लगी रह जाए तो ...) देखना पसंद करती हूँ लेकिन शायद रविश जी की समीक्षात्मक पोस्ट का ही असर था कि मैंने दूसरा हफ्ता पूरा होते ही इसे देख लिया और अब मैं निर्विवाद रूप से कह सकती हूँ कि ........."सचमुच कमाल है !" कहानी , ट्रीटमेंट , प्रस्तुतीकरण बेहद प्रभावशाली बन पड़े हैं । ये एक नेकनीयत से बनाई गयी फिल्म है जो कई मायनों में हतप्रभ करती है, क्योंकि पूरी फिल्म में बनावट का कहीं नाम-ओ-निशान भी नहीं । अभिषेक बच्चन , परेश रावल , अरुंधती नाग को उनके किरदारों से अलग कर के देख पाने की कोशिश नाकाम हो जाती है । विद्या बालन शायद डाक्टर विद्या ही है , याद करना मुश्किल होता है कि इससे पहले किसी दूसरे किरदार में भी उन्हें देखा है। अपने किरदार की इतनी मौलिक , इतनी असली और इतनी विश्वसनीय छवि उकेर पाने का श्रेय विद्या को दे या निर्देशक बाल्की को , ये तय कर पाना कुछ कठिन है । साफ़ कर दूं कि विद्या बालन मेरी पसंदीदा अभिनेत्री कतई नहीं हैं , मगर "पा " देखने के बाद सिवाय इस प्रतिक्रिया के,मेरे पास कुछ और नहीं है । और अमिताभ बच्चन ......, उनको देखने के बाद तो मन में उठता है बस एक ही सवाल कि 'अब और ... क्या ?' अभी और कितने परीक्षण बाकी हैं "बिग बी " की प्रयोगशाला में । जिस देश में चालीस तक पहुंचते-पहुंचते ये कहने का रिवाज़ हो कि ' अब क्या नया करना ..., अब तो बुढ़ा गए । ' वहाँ असल बुढापे तक यौवन की उर्जा , जोश और जीजिविषा की ऐसी हनक बनाए रखने वाले को महानायक नहीं तो और क्या कहा जायेगा ! झुर्रीदार चेहरों के साथ जबरन रोमांटिक होने का मुगालता जीते अभिनेताओं के लिए अमिताभ बच्चन साक्षात् किवदंती हैं । ऐसे विविध किरदार , वोभी इस उम्र में, किसी को भी जलन हो सकती है। मुझे ख़ुशी है कि मैंने सही समय पर कसबे से इसके बारे में सूचना पायी और अपने व्यस्त होने के सारे बहाने दरकिनार कर के ये फिल्म देख आई । आप भी इसे एक बार ज़रूर देखें । वैसे भी आजकल अच्छी फ़िल्में देखने का सुअवसर कम ही मिलता है ।
प्रतिमा !

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

सरोद घर


पिछ्ले दिनो ग्वलियर जाना हुआ। सांस्कृतिक विरासत का निगहबान शहर , जिसे देख कर इतिहास से रूबरू होने की अनुभूति होती है । सिंधिया राजपरिवार का वैभवशाली अतीत समेटे जय विलास पैलेस , लगभग छः से भी ज़्यादा दशको का इतिहास संजोये ग्वालियर का किला , राजामानसिंह और गूजरी रानी मृगनयनी की प्रेम कहानी का साक्षी गूजरी महल ,मोहम्मद गॉस और तानसेन का मकबरा सब कुछ विस्मित कर देने वाला है । लेकिन इन्ही सब के बीच शहर के जीवाजी गंज क्षेत्र में है एक ऐसी इमारत, जो बहुत ही गरिमा और गहन दायित्व बोध के साथ न सिर्फ़ ग्वालियर , बल्कि पूरे भारत की सांगीतिक विरासत को सहेजे हुए है और उस इमारत का नाम है सरोद घर । नाम से ही स्पष्ट होता है कि सरोद घर में प्राचीन भारतीय संगीत वाद्य यंत्रो को संजो कर रखा गया है । इस नायाब संग्रहालय में सरोद , वायलिन ,रूद्र वीणा , सितार , तानपूरा , सुरमंडल, तबला देवप्रतिमाओ की तरह पूजित स्थान पर रखे गए हैं और ये वाद्य यन्त्र अति विशिष्ट भी हैं ,क्योकि इन्हें किसी बाज़ार या दुकान से खरीद कर नही सजाया गया है बल्कि ये भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गुरुजन के उपयोग किए हुए , निजी वाद्य यन्त्र हैं जिन्हें यहाँ संगृहीत करने के लिए उनके प्रियजन या परिजन द्वारा उपलब्ध कराया गया है । इसके अतिरिक्त सरोद घर में शास्त्रीय संगीत की लगभग सभी महान हस्तियों की तस्वीरो का भी संग्रह किया गया है जो इस स्थान को और भी पूज्य बनता है । पर इस स्थान की महिमा बखानने को शायद इतना ही काफ़ी नही होगा क्योकि इस सरोद घर की सबसे बड़ी खासियत है इसका उस्ताद हाफ़िज़ अली खान साहेब और उस्ताद अमज़द अली खान साहेब का अपना घर होना । एक अजब सी खुशबू है जो इस घर में घुसते ही सारे वजूद को घेर सी लेती है । मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही सामने आँगन में उस्ताद हाफ़िज़ अली खान साहेब की मूर्ती पर नज़र पड़ती है और लगता है जैसे आशीष मिल गया । गेरुए गुलाबी और आफ व्हाईट रंग के संगमरमरी पत्थरो से तराशा गया सा ये खूबसूरत घर मानो हरियाली का पैराहन पहने इतरा सा रहा है अपनी किस्मत पर .चारो ओर हरे - भरे पौधे , आँगन के बीच में नीम का पेड़ , एक अजब रूहानी सुकून उस वक्त कुछ और बढ़ सा जाता है जब ये मालूम चले कि इसी पाक घर में उस्ताद हाफ़िज़ अली खान साहेब रहा करते थे , रियाज़ किया करते थे और इसी नीम के तले उस्ताद अमज़द अली खान साहेब सुरों में अपना जीवन तलाशा करते थे और इसी आँगन में उस्तादों के आशीर्वाद और पिता की निगरानी में अमान अली और अयान अली बंगश ने अपनी महान सांगीतिक विरासत को सँभालने का जिम्मा अपने मज़बूत कंधो पर लिया था । सच ये अद्भुत अनुभूतियाँ वहा जा कर ही समझी जा सकती हैं । ये सरोद घर उस्ताद अमज़द खान साहेब का निजी प्रयास और योगदान है जो अतुलनीय है । अगर आप भारतीय संस्कृति और शास्त्रीय संगीत परम्परा में आस्था व श्रद्धा रखते है और ग्वालियर जाने वाले है तो सरोद घर ज़रूर जाइयेगा ,आपको बेहद खुशी होगी और अपनी विरासत पर फख्र भी ... !
"मैं " प्रतिमा !!!

बुधवार, 25 नवंबर 2009

परिंदों का दर्द

दहशत से भरी थी उनकी नन्ही आँखे ,
उन आँखों में था ,सामने इमारत से उठ रहे धुएं का काला साया ,
जो कल उनकी पहचान थी ,
या यूं कहे ,
कल तक वो थे पहचान ,
उस शानदार बुलंद इमारत के...,
वो नही जानते थे कि क्या हुआ
मगर
था उन्हें भी अंदाज़ , कि हो गया है कुछ ऐसा
जो नही होना चाहिए था ...,
पिछली शाम जहा झूम रही थी जिंदगी ,
आज वही गूँज रहे थे गोलियों के धमाके ,
बुरे ख्वाब जैसे एक हादसे ने
छीन लिया था सारे शहर के साथ
उनका भी सुकून ...,
और
वो
फडफडा कर अपने पंख ,
उड़ते फिर रहे थे ,
हवाओं में इधर से उधर ,
दर्ज करते हुए इस हादसे के ख़िलाफ़
अपना विरोध ... !
शर्मिंदा था सारा मुल्क ,
और शर्मिंदा थे वो मासूम परिंदे ,
वो नन्हे शान्ति दूत भी ,
कि उनके सामने होते हुए भी लग गई ये आग ,
वो भी कायम नही रख सके
अमन अपने शहर का ... !
(गेटवे ऑफ़ इंडिया की पहचान "अमन के दूत " कबूतरों के नाम ......)

प्रतिमा

सोमवार, 16 नवंबर 2009

सचिन तुस्सी सचमुच ग्रेट हो !


मन खुश गया । एक तसल्ली और सुकून से ज़ेहन भर गया । सचिन ,आपका शुक्रिया कि आपने जात , प्रान्त और भाषा की छोटी - संकुचित सरहदें तोड़ते हुए पूरी सच्चाई , ईमानदारी और बेबाकी से अपनी बात कहने का साहस दिखाया । आपकी महान छवि को यही शोभा भी देता है । शायद आपकी यही भावना और हमारा आप पर यही विश्वास है जिसने आपको विश्व खेल जगत में भारतीय गौरव और अस्मिता का पर्याय बना दिया है । खेल के मैदान में जब आप "इंडिया" लिखी हुई अपनी टी शर्ट पहन कर खेलने उतरते हैं तो जैसे सिर्फ़ आप ही नही , आपके साथ पूरा भारत विरोधी टीम के खिलाफ खेल रहा होता है क्योंकि आप किसी एक प्रान्त या भाषा के लिए नही बल्कि पूरे देश के सम्मान के लिए खेलते हैं । आपके एक - एक रन पर सिर्फ़ किसी एक प्रदेश के नही भारत भर के लोग झूम उठते हैं । आपका हर रिकार्ड किसी एक भाषा या प्रान्त तो छोडिये केवल आपका भी नही होता , वो हम सब भारतवासियों का सांझा होता है । ऐसे में अगर आप भी यही कहते कि " मैं भारतीय नही सिर्फ़ मराठी माणुस हूँ " तो सच जानिए न केवल हम सब का दिल बहुत दुखता बल्कि हमारा आपसे विश्वास भी डिग जाता । लेकिन आपने ऐसा नही किया । एक सच्चे इन्सान और भारतीय होने के नाते आपने अपने देश के प्रति अपनी आस्था , आदर और समर्पण व्यक्त किया और भारतीय संविधान की मर्यादा और महानता को स्वीकार करते हुए यह भी माना कि मुंबई हर भारतीय की है । यही सच भी है सचिन , सिर्फ़ मुंबई ही नही , बल्कि भारत का एक -एक अंश , भारत के एक -एक नागरिक का साँझा है और ये अधिकार स्वयं भारत के सर्वोच्च संविधान द्वारा प्रदत्त है । किसी को भी इस अधिकार के अतिक्रमण या उल्लंघन की शक्ति नही दी गई है । जो ऐसा कर रहे हैं वो किसी व्यक्ति के नही भारतीय संविधान के दोषी हैं । संकट की इस घड़ी में आपका, तुच्छ मानसिकता से बहुत ऊपर उठ कर ,अपनी बात कहने का ये अंदाज़ ये साबित करता है कि आप भारत लिखी हुई टी शर्ट पहनने और भारतीय अस्मिता की नुमाइंदगी करने के सच्चे हक़दार हैं और जो आपकी इस सच्चाई को नज़र अंदाज़ करते हुए , आपके नाम को गन्दी राजनीति के दलदल में खींचने में जुटे हैं उनके लिए फिलहाल बस इतनी ही प्रार्थना - "ऐ खुदा इन्हें कभी माफ़ मत करना , क्योंकि ये अनजान नही। ये अच्छी तरह जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं । ये किसी के भी सगे नही । धर्म - जाति- भाषा - प्रान्त - सम्प्रदाय के नाम पर राजनीति कर के वोट बटोरना ही इनका धंधा है और ये अपना धंधा चमकाने के लिए किसी भी हद तक जाने से नही चूकने वाले । तू , बस हमें सही और ग़लत समझने की तौफीक दे और इतनी हिम्मत भी कि हम ग़लत को ग़लत कहने का साहस कर सके । "
प्रतिमा

बुधवार, 11 नवंबर 2009

मुझे क्षमा करें


मैं सचमुच तहेदिल से माफ़ी मांगना चाहती हूं कि मैं हिन्दी बोलती हूं , हिन्दी लिखती हूं , शायद हिन्दी में ही सोचती भी हूं . मैं हिन्दी प्रदेश में पैदा हुई हूं , मेरे माता - पिता हिन्दी भाषी हैं ।अब तक नहीं थी लेकिन अब मैं सचमुच इस बात से शर्मिंदा हूं और भयभीत भी ... । पता नही क्या हो , कब मुझे हिन्दी बोलने के लिए दण्डित कर दिया जाय, नहीं जानती । मुंबई बहुतेरे लोगों कि तरह मेरी भी स्वप्न नगरी है मगर अब अपनी इस स्वप्न नगरी में जाने का ख्याल मुझे डरा रहा है क्योंकि मैं अपराधी हूं । मैं हिन्दी भाषी हूं।

सोमवार, 9 नवंबर 2009

तुम्हें गैरों से कब फ़ुरसत, हम अपने ग़म से कब ख़ाली ,
चलो बस हो चुका मिलना , न हम ख़ाली - न तुम ख़ाली !
बड़ी अजब सी कैफियत होती है , जब मन में कहने को बहुत कुछ हो लेकिन कहने के लिए न अल्फाज़ हों , न वक्त की मोहलत । और तो और सुनने वालो को भी सुनने की फ़ुरसत न हो । ऐसे में अचानक ही महसूस होता है जैसे सब कुछ बेकार , बेवजह , बेसबब है। ये ज़िंदगी , ये दुनिया , ये लोग , सब कुछ ... । एक शैतान अँधेरा , जाने किधर से आता है और सारे वजूद को अपनी गिरफ्त में ले लेता है । कुछ यूँ ही सी रही , मन की हालत पिछले दिनों ... । दुनियावी मसरूफियात में उलझा मशीन बना ये जिस्म और इसके भीतर किसी और ही सतह पर पता नहीं क्या खोजता , तलाशता, भटकता , छटपटाता मन ... । लेकिन शुक्र है । अंधेरे की शैतानी जब हद से बढ़ जाती है , रौशनी , किसी न किसी दरार से मेरे भीतर आने का रास्ता बना ही लेती है । तो ...... एक बार फिर मन रोशन है । मैं फिर अपनी धुन में चल पडी हूँ। पसार लिए हैं फिर से पंख , अपने आकाश में परवाज़ भरने के लिए ... !

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

बुद्ध की शरण में...!


बीते सितम्बर माह में मुझे कोलम्बो (श्रीलंका) जाने का अवसर मिला । हमारी फ्लाईट बोध - गया से थी सो पहले हम वहाँ पहुंचे, फिर वहाँ से कोलम्बो । इस पूरी यात्रा में बहुत कुछ देखने समझने का मौका मिला । श्रीलंका आशंका के प्रतिकूल एक बहुत ही सुंदर और आकर्षक जगह थी । एक तरफ़ शहर , दूसरी तरफ़ समंदर ... । धूप के बावजूद हवा में एक अजब प्यारी सी नमी थी । श्रीलंका को एक बुद्धमय देश कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । हर तरफ़ भगवान तथागत बुद्ध के दर्शन किए जा सकते हैं । सड़कों पर भी जगह-जगह भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित हैं । हमने कोलम्बो से तकरीबन ५०-६० किमी दूर कलूतरा नाम के स्थान पर भगवान बुद्ध के एक बेहद सुंदर मन्दिर के दर्शन किए । इस मन्दिर की ये विशेषता है कि ये स्तूप के आकार का है और इसकी परिक्रमा भीतर से की जा सकती है । प्रचलित रूप में बौद्ध स्तूप की परिक्रमा बाहर से की जाती है । (ये जानकारी मुझे जयसूर्या ने दी , जो श्रीलंका का स्थानीय निवासी होने के साथ ही इस यात्रा में हमारा ड्राईवर और गाईड भी था ।) स्तूप रुपी इस मन्दिर के भीतर चारों ओर भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाएँ थीं । चारों तरफ दीवार पर उनके जीवन पर आधारित चित्र उकेरे हुए थे । एक अलौकिक शान्ति की अनुभूति से युक्त ये मन्दिर सचमुच बहुत सुंदर था ।
प्रतिमा ...!

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

एक खूबसूरत पल !


कुछ पल शब्दों में बांधे नहीं जा सकते ,बस महसूस ही किए जा सकते हैं । ये एक ऐसा ही पल था । मैं सागर के बिल्कुल करीब थी । अपनी आंखों से उसकी अनंत असीमता को निहारती , उसकी अथाह गहराई में झाँकने का असफल प्रयास करती ,उसकी अकूत जलनिधि को अपनी नन्हीं अंजुरी में भर लेने का असंभव स्वप्न देखती ... , पूरी तरह चमत्कृत और निःशब्द ...



अचानक ही वो प्रशांत -धीर -गंभीर मानों चंचल हो उठा जैसे मेरी उदास खामोश निगाहों को पढ़ कर मेरी उदासी को अपनी उदात्त लहरों के साथ बहा ले जाना चाहता हो । जैसे बरसों बाद मिला कोई अपना सा साथी मीठी सी गुदगुदी कर अपनी दोस्त को हंसा देना चाहता हो । और सचमुच .... जाने कौन सी मीठी बात कही उसने मेरे कानों में , कि
मैं खिलखिला कर हंस पडी ।

''मैं '' प्रतिमा ...

(On Colombo Sea Beach-Srilanka)

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

सब जग हो उजियारा ...!


जलाओ दिए , पर रहे ध्यान इतना ,
अँधेरा धरा पर, कहीं रह न जाए ... !
सब अपनों को शुभ दीपावली की मंगल कामनाएं ...,
प्रतिमा की ओर से !!!

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

बताओ मुझे ...!

तुम मुझसे कहते हो ,
तो मैं सुनती हूँ...,
जो सुनती हूँ ,
वही गुनती हूँ ...,
गुन कर शब्द चुनती हूँ ...,
उनसे चाँद -तारों के ख्वाब बुनती हूँ ...
और हौले से काग़ज़ पर उतर देती हूँ ...,
हाँ...
बस ऐसे ही तो लिखती हूँ मैं ,
तो अब ,
जब इतने दिनों से ,
तुमने मुझसे कुछ कहा ही नही ,
फिर तुम ही बताओ ,
मैं लिखूँ कैसे ... !

प्रतिमा ... !

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009


ज़िन्दगी ,
तू अक्सर किसी एहसास सी आती है
और
मुझे छूकर ...
बहुत करीब से ,
हौले से गुज़र जाती है ।
अच्छा लगता है ,
यूं तेरा हौले से छूकर गुज़रना ,
सच ...
बहुत ही भला लगता है ,
तेरा यूं मुझे छू लेना ... ।
हाँ , ये और बात है कि
तू मुझे छू कर ,अगर यूं गुज़रती नहीं ,
बल्कि यहीं - कहीं ,
मेरे आस - पास ही ठहर जाती,
तो और भी अच्छा होता ...,
मगर फिर भी ,
तेरा मुझे यूं छू लेना भी
कोई कम बड़ी बात नहीं , ज़िन्दगी ... !
क्योंकि
ऐसा भी सबके साथ कहां होता है ?
तेरी छुअन, तेरा एहसास भी हरेक को कहां मिलता है ?
प्रतिमा ... !

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

ज़िद...!


अपनी ही ख्वाहिशों की आग में जल जाऊं मैं ।
दिल को ये ज़िद है कि अब खाक़ में मिल जाऊं मैं ।
नज़र में ले के कोई ख्वाब जी नहीं सकती ,
मेरे हालत चाहते हैं , बदल जाऊं मैं ।
ग़ज़ब की भीड़ है , इक शोर मचा है हरसू ,
काश , इन सबसे कहीं दूर निकल जाऊं मैं ।
छूके महसूस कर चुकी हूँ , चाँद-तारों को ,
कैसे अब टूटे खिलौनों से बहल जाऊं मैं ।
मेरे अहसास जम गए हैं , बर्फ़ की मानिंद ,
फिर कोई आग लगाओ कि पिघल जाऊं मैं ।
''मैं '' प्रतिमा ...!

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

महिलाओं और विकलांगों के लिए ...


पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान रेलवे स्टेशन पर मैं एक अजीब कैफियत से गुज़री । मैं टिकट बुकिंग काउंटर पर खडी थी और सामने लिखा था '' महिलाओं और विकलांगों के लिए ''। एक पल को निगाह उस तहरीर पर अटक सी गयी । विकलांग तो नही , हां, महिला होने के नाते मुझे नियमतः वहां खडा होना था सो मैं खडी रही ,मगर दिमाग में लगातार घूमता रहा ये प्रश्न कि आख़िर महिलाओं और विकलांगों में क्या समानता हो सकती है जिसकी वजह से रेलवे टिकट काउंटर जैसी सार्वजनिक जगह पर दोनों को समान अधिकार और सुविधाएं (?) प्रदान की गईं हैं। क्या ये सुविधा (?) प्रदान करने वाले का ये मानना है कि - (1) ये दोनों ही समान रूप से असमर्थ और अक्षम हैं , (2) ये दोनों ही विशेष कृपा के मोहताज हैं , (3) ये दोनों ही भीड़ या समूह में आत्मरक्षा नहीं कर सकते , (4) ये दोनों ही बिना किसी अतिरिक्त मदद के अपने हक में खड़े नहीं हो सकते , (5) या फिर ये दोनों ही समाज की मुख्य - धारा से अलग, हाशिये पर पड़ी वो बेचारी कौमें हैं जिन पर निरंतर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना इस महान समाज का कर्तव्य है और अधिकार भी , ताकि महानता का आभामंडल जगमगाता रहे । प्रश्न काफी देर तक जेहन में उमड़ते -घुमड़ते रहे मगर उत्तर कोई भी नही मिला । कमजोरों को विशेष सुविधाएं मिले ,इससे किसी को कोई इनकार नही , मुझे तो बिल्कुल भी नही ,लेकिन किसी को जबरदस्ती कमज़ोर सिद्ध करना ...? ये कहां का न्याय है ? जिस देश में एक महिला ही देश की प्रथम नागरिक हो, जिस देश की नारी की शौर्य गाथाएं विश्व प्रसिद्द हों और नारी के शक्ति स्वरुप की पूजा की जाती हो,वहां महिला होने के नाते ऐसी सुविधायें लेना और देना दोनों ही विचित्र स्थिति है । सच तो ये है कि शारीरिक रूप से कुदरतन अक्षम व्यक्ति को भी एक हद तक ही मदद दरकार होती है क्योकि लक्ष्य हमेशा मन की शक्ति से ही साधे जाते हैं ।आश्चर्य है कि ख़ुद को विकलांगों की श्रेणी में पाकर हम महिलाएं कभी कोई विरोध दर्ज क्यों नहीं करतीं ? ये महज,आराम से मिल रही सुविधाओं को पाते रहने की सहज मानवीय वृत्ति है या वाकई एक प्रकार की मानसिक विकलांगता का कोई लक्षण... ? मैं इन जिज्ञासाओं का उत्तर पाती इससे पहले ही मेरा नंबर आ गया और मैं टिकट ले कर उस जगह से हट गयी , जिसकी शोभा ये तहरीर बढ़ा रही थी । अपने इन सवालों के कटघरे में मैं भी हूं क्योंकि मैंने भी इस सुविधा का फायदा उठाया , लेकिन जवाब पाने की इच्छा मन में ज्यों की त्यों है कि शायद अगर सही जवाब मिल जाए तो कभी इस कटघरे से निकल सकूं ।
क्या आपके पास है जवाब ... ?

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

एक सपना ...!

मैं अक्सर सपने में देखती हूँ
नर्म ,श्वेत ,सपनीले बादलों तक जाता हुआ
एक मखमली रास्ता ... ,
और उस रास्ते के पार ,
एक छोटा , मगर बेहद प्यारा संसार ,
वो संसार ,जो 'हमारा' है... ।
जिसमें और कोई नहीं
मेरे और तुम्हारे सिवा ...,
और उस सपनीले संसार को
लम्हा भर के लिए
सजा लेती हूं
सारे रंग , सारी खुशबुओं से ... ।
और उस पल लगता है
जैसे
तुम मुझे बाहों में समेटे
आसमान के सादे कैनवास पर
जिंदगी की बेहद हसीन कविता लिख रहे हो ...
और
मैं तुम्हारे काँधे पर सिर रख कर
उन बादलों के पार
चमकते - झिलमिलाते
सितारे गिन रही हूं ... ।


प्रतिमा !!!!!!!

सोमवार, 21 सितंबर 2009

ईद मुबारक ...




चाहत के जाम लेकर ,
दिलकश पयाम ले कर ,
खुशियां तमाम लेकर ,
फिर ईद आ गई है !
कोई भी शिकायत हो ,
कैसी भी अदावत हो ,
मन में न कुछ भी रखना ,
सबको गले लगाना,
ये जश्ने दोस्ती है ,
पैगामेज़िंदगी है ,
सबको यही खुशी है ,
कि ईद आ गई है ।
बच्चे उमंग में हैं ,
मस्ती तरंग में हैं ,
घर -घर से सेवईयों की ,
खुशबुयें उठ रही हैं ,
राहों पे हैं निगाहें ,
हर लब पे हैं दुआएं,
उठती हैं ये सदायें ,
लो , ईद आ गई है ।

प्रतिमा !!!!!!!!

रविवार, 20 सितंबर 2009

ऐसा हो जाने दो ...

सदाएदिल को हवाओं में बिखर जाने दो ।
उदास रात की तक़दीर संवर जाने दो ।
ग़मों के बोझ को कब तक उठाए रक्खोगे ,
अब तो पत्थर को कलेजे से उतर जाने दो ।
फूल की तरह इनसे खुशबुएँ भी उठ्ठेगीं ,
पहले ज़ख्मों को ज़रा और निखर जाने दो ।
कैसे तुम रोकोगे उड़ते हुए परिंदे को ,
मन की मर्ज़ी है ,वो जाता है जिधर ,जाने दो ।

प्रतिमा !!!!!!!!

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

एक धोखा ...!


ये सहरा किस कदर फैला हुआ है ।
समंदर का मुझे धोखा हुआ है ।
तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।
पटकती है लहर , सिर साहिलों पर ,
ये मंजर मेरा भी देखा हुआ है ।
बनेगी बात कैसे अब हमारी ,
ये धागा , बेतरह उलझा हुआ है ।
प्रतिमा !!!!!!!!

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

मकसद


कितनी
छोटी -छोटी ख्वाहिशें,
छोटे - छोटे सपनें ,
मुट्ठी में भरे ,
जी रही हूं मैं
इन दिनों ,
बहुत खुशी से ... ,
तुमसे मिल लेना ,
तुम्हें देख लेना ,
बातें कर लेना तुम्हारी ,
बस इतना ही ... ,
और
जैसे मिल जाती है ज़िन्दगी
आज के लिए ,
मिल जाता है मकसद
कल के लिए !!!!!!!!
"मैं '' प्रतिमा

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

हम बेटियां ...!


हम बेटियां ... ,
फूल से भी नाज़ुक ,
ओस की बूँद से भी स्निग्ध ,
बादलों से भी चंचल ,
तितली के परों से भी कोमल ,
हम बेटियां ... ,
जनमेगीं ... तो ...
बनायेगीं , इस दुनिया को और भी सुंदर ,
देगीं , सृजन को ..., निर्माण को ...,
नए अर्थ ...
रचेगीं संभावनाओं के नए शिखर ... ,
हम बेटियां ...,
जनमेगीं ..., तो ...,
हर लेगीं हर पीड़ा मन की ,
संजोयेंगीं विश्वास , भावनाओं का ,संबंधो का ,
उकेरेगीं उम्र के खाली पन्नों पर जीवन की नयी कविताएँ ,
हम बेटियां ... ,
अपनी निश्छल मुस्कराहट से भर देंगीं ,
जग भर की रीती झोली...,
फिर क्यों लगते हो पाबन्दी हमारे जन्म पर ...?
क्यों मार डालते हो हमें जीने से पहले ...?
लेने दो हमें जन्म ...
क्योंकि,
हम बेटियां ही जन्म लेकर बनायेगीं
तुम्हारी इस असंतुलित हो चुकी सृष्टि को ,फिर से ,
जीवन के योग्य ... !
''मैं'' प्रतिमा !!!!!!

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

एक सुंदर अनुभव ...!




सम्पूर्ण विश्व को अपनी मोहन वीणा के सुरों से मोहने वाले महान कलाकार पद्मश्री पंडित विश्व मोहन भट्ट जी को कौन नहीं जानता । अपने काम के सिलसिले में यूं तो मुझे अक्सर ही बड़े लोगों और गुरुजन का सानिध्य पाने का सुअवसर मिलता रहता है लेकिन पिछले दिनों जब पंडित वि० मो० भट्ट जी से मिलने का सुयोग बना तो पहला विचार मन में यही आया कि ये अनुभव आपसे भी बंटाना है । आख़िर मेरे स्वप्नाकाश में मेरे सहचर अब आप भी तो हैं । पंडित जी जैसे सरल ,स्वर्ण हृदय , स्नेही , मृदुभाषी ,आत्मीय अंतर्राष्ट्रीय महान कलाकार से वो बहुत ही सहज और अन्तरंग मुलाक़ात मेरे जीवन का अविस्मरणीय अनुभव है और ये कुछ चित्र उन्हीं यादगार पलों के स्मृति - अंश हैं ।
''मैं'' प्रतिमा .....!

शनिवार, 29 अगस्त 2009

(18) आँखें ... !


चुप भी रहूं तो आँखें बोलती हैं ,
न जाने कितने पोशीदा राज़ खोलती हैं ,
दिल का हाल चेहरे पर लाती हैं
और दुनियां भर को बताती हैं ,
यूं तो मैं परेशान नहीं ,
क्योंकि इस बात से अनजान नहीं ,
कि इस बेशुमार भीड़ में
मेरी आंखों की भाषा जानने वाला
कोई भी इंसान नहीं ,
हां ...
डर है तो सिर्फ़ तुमसे ,
क्योंकि तुम ही हो ,
जो , मेरा चेहरा पढ़ लेते हो
और
सुन लेते हो ,वो सब भी ,
जो मेरी आँखें बोलती हैं ... !
''मैं'' प्रतिमा............

रविवार, 23 अगस्त 2009

(17) उलझन...!


तुम मेरे कितने करीब हो ...!
इतने ,
कि हाथ बढ़ा कर छूं लूं तुम्हें ,
आवाज़ देकर बुला लूं तुम्हें ,
नज़रें उठा कर देख लूं तुम्हें ,
तुम्हारे जिस्म की खुशबू से ,
पहचान लूं तुम्हें ,
फिर भी कितनी दूर ...,
कि
मैं तुम्हें छू नही पाती ,
तुम्हें बुला नही पाती ,
तुम्हें देख नही पाती ,
ये
चंद क़दमों का फासला
जाने क्यूं ,
सदियों में भी तय नहीं होता ... !


''मैं '' प्रतिमा ........ !

बुधवार, 19 अगस्त 2009

(16) उनके शब्दों में ...!

बहुत दिनों बाद ख़ुद से मुखातिब हुई हूं। हाँ... लिखना मेरे लिए अपने आपसे मिलने जैसा ही तो है । कुछ न लिखूं तो लगता है जैसे ख़ुद से मुलाकात नही हुई । इतने दिन ख़ुद से दूर कहां रही , क्या किया ...इन बातों की चर्चा शायद बेमतलब ही होगी । आज बैठी हूं तो कुछ दिल की कहना चाहती हूं ...!लेकिन कभी -कभी यूं भी तो होता है न कि दिल तो बहुत कुछ कहना चाहता हो मगर जेहन से अल्फाज़ ही गुम हो जायें । कुछ ऐसी ही कैफियत से गुज़र रही हूं और लगता है , आज अपने जज़्बात को जुबां देने के लिए मुझे किसी और के अल्फाज़ का सहारा लेना होगा । कोई ऐसा जो इस वक्त वाकई मुझे बयां कर सकता है ।श्रद्धेय बच्चन जी की ये कविता इस वक्त मुझे छूती हुई सी महसूस हो रही है .... (निशा - निमंत्रण से ...)

गीले बादल , पीले रजकण ,

सूखे पत्ते , रूखे तृन घन ,

ले कर चलता करता ' हरहर '- इसका गान समझ पायोगे ?

तुम तूफ़ान समझ पायोगे ?

गंध भरा यह मंद पवन था ,

लहराता इससे मधुबन था ,

सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान , समझ पायोगे ?

तुम तूफ़ान समझ पायोगे ?

तोड़ - मरोड़ ,विटप - लतिकाएँ ,

नोच -खसोट , कुसुम - कलिकाएँ ,

जाता है अज्ञात दिशा को ! हटो विहंगम , उड़ जाओगे !

तुम तूफ़ान समझ पाओगे ... ?

''मैं'' प्रतिमा...

शनिवार, 15 अगस्त 2009

(15) जश्ने आज़ादी सबको मुबारक ... !


आज़ादी की खूबसूरत सौगात ले कर आयी आज की तारीख हम सबके लिए एक ख़ास अहमियत रखती है । आज १५ अगस्त है । सुबह से ही गली - चौराहों , स्कूलों - कॉलेजों , ऑफिसों और रेडियो पर देश - भक्ति गीत बज रहे हैं । हर हाथ में तिरंगा शान से लहरा रहा है । जिसे देखो वही देश भक्ति के रंग में रंग कर इतरता फिर रहा है ।सचमुच बहुत ही अच्छा लग रहा है , मगर कल ... । कल शायद तारीख पुरानी पड़ते ही ये सारी बातें भी पुरानी हो जायेगीं । देश भक्ति के गीत बजने बंद हो जायेगें , दैनिक व्यस्तता में देश - प्रेम की बातें बिसरा दी जायेगीं और आज हाथ - हाथ में शान से लहरा रहा तिरंगा कल कचरे के डिब्बे में पहुँच जायेगा । माफ़ कीजियेगा अगर मेरी बातें बुरी लगें लेकिन क्या करूं सच यही है । आज़ादी के जश्न के मायने अब हमारे लिए एक छुट्टी से ज़्यादा नही रहे । कितना अच्छा हो , अगर हम आज के दिन घूमने - फिरने , पिक्चर देखने और मौज - मस्ती करने के साथ ही साथ एक बार ही सही अपने देश के बारे में सोच सकें । अपने बच्चों को आज़ादी के सही मायने समझा सकें और वाकई पूरी ईमानदारी से कह सकें - हाँ ... हमें भारतीय होने पर गर्व है । अगर आप ऐसा कर पाए हैं तो आपको स्वतंत्रता दिवस की असीम शुभ कामनाएँ ... !

मैं- प्रतिमा !!!

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

(14) एक दोस्त के लिए ... !


मेरे दोस्त
याद है न ... ,
तुमने दिया था
मेरी सोच को विस्तार ,
मेरे भावों को आकार ,
जगाया था विश्वास
स्नेह संबंधों पर ,
हृदय के अनुबंधों पर ,
थामा था मेरी डूबती उम्मीद का हाथ
और
जगाई थी आसकिरण
मेरे अंधेरों में ,
याद है न ... ,
तुमने ही दी थी मुझे
मेरी कल्पना ,
मेरी कल्पना को रंग ,
मेरे रंगों को इन्द्र - धनुष ,
मेरे इन्द्र - धनुष को आकाश
और
मेरे आकाश को चमकीला अनंत क्षितिज ,
याद है न
इतना कुछ दिया था तुमने मुझे ,
आज मैं भी तुम्हे कुछ देना चाहती हूं ,
मुट्ठी भर रंग ,
पलक भर स्वप्न ,
अंजुरी भर उम्मीद
और
एक असीम आकाश , संभावनों का ,
जिस पर तुम फिर से भर सको
नई उड़ान ,
फिर से सजा सको रंग ,
अपनी कल्पनाओं के ,
ढूढ़ सको फिर से वो सारे सपने ,
जो वक्त की गर्दिश में कहीं गुम से गए है ... !
( अपनी प्यारी दोस्त कल्पना के लिए , जिसका आज जन्मदिन है ...)

बुधवार, 12 अगस्त 2009

(13) संवेदना ... !


मुखर संवेदना
और
मौन अभिव्यक्ति के बीच
खड़ी हूं
चुपचाप
निःशब्द ,
हाथों में लिए असीम स्नेह
अनंत भावनाएँ ... ,
सूझ नही रही प्रेषण की कोई भाषा ... ,
मिल नही रहा कोई शब्द - सेतु ... ,
फिर भी
मन है आश्वस्त ,
है अटूट विश्वास ,
कि
बिना किसी शब्द के भी
प्रेषित हो रहा है
वो सब कुछ
तुम तक ... ,
जो कहना है मुझे ,
तुमसे ... !

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

(12) एक अनुत्तरित प्रश्न ... !


रहस्य तुम्हारे
सारे के सारे
जानना चाहती हूं मैं ... !
सारे आवरण
तोड़ कर पहुंचना चाहती हूं
तुम्हारे सच तक ... ,
तुम्हें देखना चाहती हूं
अपनी आंखों से ,
छूना चाहती हूं
अपने हाथों से ,
मिलना चाहती हूं तुमसे
बिना किसी माध्यम
बिना किसी निमित्त के ... ,
पूछना चाहती हूं तुमसे
बहुत कुछ ... ,
और
ये सारी इच्छाएं , मन में समेटे
बरसों से ढूढती फिर रही हूं
तुम्हें ,
अपने भीतर - बाहर
हर दिशा में ,
मगर
हर बार
हाथ आयी है असफलता
और
रह गया है
एक अनुत्तरित प्रश्न ...,
हे मेरे ईश्वर
तुम मुझे नजर क्यों नही आते ... ?

सोमवार, 10 अगस्त 2009

(11) एक उदास शाम ... !


पतझर में ,
शाख से टूट कर बिखरते ,
पीले पत्तों के साथ ,
कुछ और भी है ,
जो बिखर रहा है ,
वक्त है शायद ... ,
हर सुबह - दोपहर ,
शाम - रात के साथ ,
पल - पल बीतता
कुछ और भी है ,
जो गुज़र रहा है ,
वक्त है शायद ... ,
मगर ,
इस हर दम दौड़ती ,
तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में ,
वक्त के लगातार
बिखरते - गुज़रते जाने के बावजूद ,
कुछ और भी है ,
जो ,
मन के ही आस - पास कहीं ,
ठहर सा गया है ,
तुम्हारी याद है शायद ... !

शनिवार, 8 अगस्त 2009

(10) एक पुराने पन्ने से ...!

बरसों पहले स्कूल के आखरी सालों में ये कविता मैंने अपनी डायरी में लिखी थी । तब कुछ भी लिख कर किसी को दिखाने का ख़याल भी ज़ेहन में दूर - दूर तक नही होता था , बल्कि जो लिखा हो , उसे भी छुपाने की जुगत लगाई जाती थी , कि कहीं कोई पढ़ न ले । अब ये तो शायद इस कविता का नसीब था कि इसे आज मेरे आकाश में परवाज़ का मौका मिल गया वरना इतनी अच्छी तो ये नही थी । इस कविता में एक अजीब सा कच्चापन और अपरिपक्वता महसूस होती है जो शायद उस उम्र का तकाज़ा थी ...! ये मेरी उन चंद कविताओं में से एक है , जिनमे मैंने अपना नाम जोड़ा था ... !

जीवन की राह पर जो दीपक से जल रहे हैं ।
अपने ही हाथों अपनी किस्मत बदल रहे हैं ।
मत देखो सिर्फ़ उनको , जो भाग्य पे रोते हैं ,
उनसे भी लो सबक, जो गिरकर संभल रहे हैं ।
कर लो है जो भी करना , ये वक्त जा रहा है ,
चेतो , कि यूंही जीवन के क्षण निकल रहे हैं ।
हम कुछ नही कर सकते , सोचो न कभी, देखो ,
आकारहीन पत्थर प्रतिमा में ढल रहे हैं ।

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

(9)एक शर्मनाक इतिहास ... !


मानव सभ्यता, बीत चुकी जिन घटनाओं से आज भी शर्मसार है , ये चित्र उन्ही में से एक का है । इतिहास का वो काला पृष्ठ , जिस पर नज़र पड़ते ही आज भी सबकी रूह फ़ना हो जाती है । क्या लिखा है इस काले पृष्ठ पर ... ? अंहकार, जिद और ग़ुस्से में पगलाए दुनिया के सबसे दम्भी , मगरूर और ताकतवर देश की काली करतूत का कच्चा चिठ्ठा... । दूसरा विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था , लेकिन इससे पहले मानव - इतिहास की सबसे भयावह त्रासदी घटने की प्रतीक्षा कर रही थी । छः महीने तक जापान के ६७ शहरों पर बमबारी करने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस ० ट्रूमैन ने छः और नौ अगस्त , १९४५ को हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम गिराने का आदेश दिया । आका के हुक्म की तामील हुयी । परमाणु बम गिराए गए और लगभग एक लाख चालीस हज़ार लोग मौत की आगोश में समा गए । जो बचे , उनके हिस्से आई ,मौत से भी बदतर ज़िन्दगी । एक अध्ययन के अनुसार , इस त्रासदी में बचे लोगों में से ज्यादातर विकिरण से फैले कैंसर और ल्यूकेमिया के कारण मारे गए और ये सिलसिला आज भी जारी है । अपनी सभ्यता , विवेक और विकास का ढोल पीटते ,आत्ममुग्धता में इतराते और अपने गौरवशाली (?) अतीत का प्रशस्तिगान करते मानव समाज के लिए इस भयावह हादसे का कलंक मिटा पाना असंभव है । ये एक ऐसी शर्मनाक याद है जिससे मानव सभ्यता कभी निजात नही पा सकती, और इससे भी ज़्यादा शर्म इस बात की , कि हमने इस खौफनाक तबाही से अब भी सबक नही लिया है । ख़तरनाक हथियारों को जमा कर लेने की होड़ में सबसे आगे रहना ही आज विकसित और शक्तिशाली का पैमाना है, और छोटा हो या बड़ा ,कोई भी इस पैमाना पर कम साबित नही होना चाहता । क्या डा० बशीर बद्र की ये पंक्तियां ताकत की हवस में पागल इंसानों को कोई सबक दे सकती हैं-
'' उम्र बीत जाती है एक घर बनने में , तुम तरस नही खाते बस्तियां जलने में ... ! ''
प्रतिमा सिन्हा ...

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

(8)मेरा आकाश ... !


रच रही हूं अपने ही हाथों अपना आकाश ...
सुंदर , सलोना,
आकांक्षाओं के सतरंगी इन्द्र - धनुष को ,
अपनी असीम अनंतता में समेटे ,
मेरे स्वप्नों के लिए नित नए क्षितिज रचता ,
मेरा अपना आकाश ... !

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

(7) ये राखी बंधन है ऐसा .... !

बरस बिता कर आख़िर आ गया वो दिन , जिसका इंतज़ार हर बहन और भाई को पूरे बरस रहता है । रक्षाबंधन का पर्व हमारी नैसर्गिक स्नेह भावना का मूर्त रूप है जो हमें याद दिलाता है कि दुनिया में अब भी कुछ है जिसका मोल नही लगाया जा सकता । लेकिन अफ़सोस , इस भौतिकवादी युग में सरे बाज़ार अपने ज़मीर का भी दाम लगा कर विकास का ढोल पीटने वाले हमारे समाज के तथाकथित वर्तमान नीतिनिर्माता अमोल को भी बेमोल कर देने के अपने हुनर से बाज़ नही आते हैं और देखते ही देखते इस पावन स्नेह बंधन पर भी दाम की पर्चियां चस्पा कर दी जाती हैं । राखी - पर्व के करीब आते ही हमें बताया जाने लगा कि अगर भाई ने अपनी प्यारी बहना को एक विशेष ब्रांड का मोबाइल फोन उपहार में नही दिया तो उसके प्यार की सच्चाई पर खतरा हो सकता है । अन्य दूसरे ब्रांड्स के और भी कीमती उपहार बाज़ार में भाई - बहन के प्यार को अपनी कसौटी पर कसने को तैयार शो केस की शोभा में वृद्धि कर रहे हैं । भाई किसी भी शुभ अवसर पर बहन को उपहार दे ये तो सचमुच अच्छी बात है मगर उपहार ही प्रेमाभिव्यक्ति की शुद्धता की कसौटी बन जाए ये अच्छी बात नही है । बचपन में लेन-देन की शर्त या उम्मीद पर उपजी स्नेह की कोमल कोंपल कभी - कभी आगे चल कर एक ऐसी बेल बन जाती है जो मन से लिपट कर तब बहुत तकलीफ देती है जब कोई उम्मीद पूरी न हो सके । आखिर बचपन की नन्ही आशाएँ हमेशा तो नन्ही नही रहती हैं न .......! राखी के इस पावन दिन भाई अपनी बहन को उपहार ज़रूर दे क्योंकि आख़िर ये हर बहन का हक भी है और हर भाई का फ़र्ज़ भी , मगर कितना अच्छा हो कि ये उपहार बाज़ार में कीमत दे कर खरीदी जा सकने वाली चीजों की बजाय वो सम्मान , वो आदर ,वो पाक जज्बा हो जिसकी हर स्त्री हकदार होती है । कितना अच्छा हो अगर इस पावन दिन हर भाई ,बहन के सम्मान की रक्षा का सचमुच संकल्प ले और सम्मान भी केवल अपनी सहोदरा बहन का नही , हर लड़की का । छेड़छाड़ की घटनाएं , यौनहिंसा की प्रताड़नाएं और बलात्कार के हादसे जब समाज में कभी न हो और हर घर की बहन - बेटी किसी भी सड़क चौराहे पर ख़ुद को महफूज़ महसूस कर सके तो समझो कि भाई ने बहन को सच्चा तोहफा दे दिया। रक्षा बंधन के दिन जब मैं भाईयों को कलाई पर राखी बंधे हुए और माथे पर शुभ तिलक लगाये देखती हूं तो सोचती हूं कि क्या इन्होनें लिया होगा नारी के सम्मान का संकल्प ... ?

प्रतिमा ...

रविवार, 2 अगस्त 2009

(6) दोस्ती ख़ुदा है ..........!

ज़मीं और आसमां मिल जाए ये तो फिर भी मुमकिन है , मगर एक दोस्त , दुनिया में बड़ी मुश्किल से मिलता है ।
अगर ये सच है तो मैंने इस सच को अपनी रूह की गहराईयों से जिया है । मेरी ज़िन्दगी में दोस्ती उस ताकत की तरह रही है , जिसने मुझे हर मुश्किल में संभाला है , वो प्रेरणा रही है , जिसने मुझे हमेशा सही राह दिखाई है , वो रौशनी रही है , जिसने मुझे हर अंधेरे से उबारा है । मैं शायद भावुक हो रही हूं लेकिन सच यही है, तो है । मेरे लिए दोस्ती कभी भी कोई ऐसा औपचारिक विषय नही रही जिस पर मैं कोई लेख लिखूं या विचार व्यक्त करूं । मैं इस लफ्ज़ को जीती आई हूं। ख़ुदा की ये नेमत मुझे सौगात में मिली है । ज़िन्दगी ऐसे भी कई मौके आए , जब ख़ुद से भी भरोसा उठ गया ,हर रास्ते बंद से महसूस हुए , लेकिन ऐसे वक्त में भी मेरी आखों में उम्मीद के दिए जलते रहे जिनकी लौ में मेरे दोस्तों का मुझ पर यकीन जगमगा रहा था। सोचती हूं आज फ्रेंडशिप डे के मौके पर अगर कुछ देना भी चाहूं तो क्या दूं उन्हें , जिन्होंने मुझे ज़िन्दगी पर और मुझ पर मेरा विश्वास दिया । क्या बाज़ार में सजे बेशकीमती कार्ड्स , गिफ्ट्स और सजावटी - बनावटी सामान काफ़ी हो पायेंगे , मेरा धन्यवाद उन तक पहुंचने में ? शायद नही ... !क्या दे सकती हूं मैं अपने दोस्तों को सिर्फ़ अपनी भावना और शुक्रिया के सिवा ... ।
शुक्रिया कि उन्होंने मुझ पर मुझसे बढ कर यकीन किया , मुझे मेरे ही रूप में स्वीकारा, मेरी हँसी ही नही मेरे आंसूयों का भी मोल जाना , मेरे साथ तब भी रहे , जब मेरा साया भी मेरा साथ छोड़ रहा था । मैंने अपनी कामयाबी के मोती और नाकामी की किरचें , दोनों ही अपने दोस्तों से बाटीं हैं और आज बस इतना ही कहना चाहती हूं कि मेरे लिए दोस्ती महज़ एक लफ्ज़ नही , ज़िन्दगी है... ,ख़ुदा है... । मैंने इसे जिया है और अगर आप भी हैं मेरी तरह खुशनसीब तो आपको भी फ्रेंडशिप डे की असीम शुभकामनाएँ ... !अपने दोस्तों को हमेशा अपने दिल के करीब रखियें क्योंकि यही वो मोती हैं जो ज़िन्दगी को आब देते हैं और जब कोई मुश्किल आन पड़े तो उस से लड़ कर जीतने की ताब देते हैं ।

'' मैं '' प्रतिमा ... !

शनिवार, 1 अगस्त 2009

(5)एक आदत सी बन गई है तू .....

कई दिनों बाद आज आपने आकाश में परवाज़ भरने का वक्त मिला है,लग रहा है कि जाने कितने दिन बीत गए ।
जब से आकाश का ये नन्हा सा कोना अपने लिए खोज निकला है, एक नया ही जोश महसूस कर रही हूँ । पिछले तीन दिन काफी व्यस्त बीते । ३१ जुलाई को विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती थी । इस अवसर पर हमारी सेतु सांस्कृतिक संस्था ने इस बार तीन दिवसीय आयोजन किया । पहले दिन ' प्रेमचंद साहित्य में नारी विमर्श ' विषय पर गोष्ठी , दूसरे दिन ' प्रेमचंद नाट्य पद यात्रा ' और तीसरे दिन ' प्रेमचंद जी के जन्म स्थान लमही गाँव में उनकी लिखी कहानिओं का नाट्य मंचन । सब कुछ बहुत ही रचनात्मक और संतुष्टिपूर्ण रहा । बनारस जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के शहर में हमने अपना प्रवाह बनाये रखा है ये हमारे लिए तोष का विषय है मगर ये एहसास भी है कि अभी बहुत कुछ करना है । मैंने विस्तृत आकाश का ये एक नन्हा पृष्ठ अपने लिए इसी लिए चुना है ताकि मै उन जाने - अजाने चेहरों और नामों तक पहुँच सकूं जिनकी सोच, विचार और कार्य विधि विशेष है । मैं भी उनसे जुड़ कर ख़ुद में नयापन और सृजनशीलता का विकास कर सकूं । आज अपने ब्लॉग पर तीन विशिष्ट जन के विचार अपने लिए पाकर मैं प्रफुल्लित हो उठी । लगा , अपना प्रयास सफल हो रहा है । अगर आप भी मेरे आकाश में मुझसे मिलें तो अपनी बेशकीमती राय ज़रूर दीजियेगा । मेरी लेखनी आपसे जुड़ कर और सशक्त होगी । मैं कह सकूंगी '' विस्तृत नभ का एक कोना आखिर मेरा हो ही गया '' ।

आकाश में अपने हिस्से के रंग तलाशती मैं ' प्रतिमा ' ...................... !

बुधवार, 29 जुलाई 2009

(4) वो दिन हवा हुए ...

बचपन में कहावत सुना करते थे '' घर की मुर्गी दाल बराबर '' , जिसका मतलब था ' घर की बेहतरीन चीज़ को भी बाहर की चीज़ की तुलना में कमतर समझाना । सीधे शब्दों में मुर्गी के सामने दाल की कोई बिसात नही थी , और दाल से तुलना करना मुर्गी का अपमान था । लेकिन अब ज़माना बदल चुका है जनाब ! अब दाल और मुर्गी की तुलना के पहले ज़रा सावधानी बरतें , क्योंकि ये दाल का अपमान होगा। जी हां, महंगाई के इस दौर में दाल ने अपनी हैसियत में खासा इजाफा कर लिया है और इसकी पीली रंगत ने सोने के तेवर अख्तियार कर लिए हैं । वैसे आम आदमी के लिए ये कोई अच्छी ख़बर तो नही है बल्कि इससे मन ही दुखता है क्योंकि अब तो दाल रोटी खा कर प्रभु के गुन गाना भी आसान नही रहा ।दाल ने कीमत के अब तक के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और बेचारा गरीब आदमी अपनी टूटी कमर और फूटी किस्मत लिए बस यही सोच रहा है कि क्या अब सचमुच दाल रोटी की जगह मुर्ग बिरियानी खानी होगी ? बेचारे ने अपने और अपने बच्चों के लिए इतनी अच्छी दुआ तो कभी ख्वाब में भी नही मांगी थी ..... !

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

(3) ये कैसा सच ... !

आजकल स्टार प्लस पर कई लोग सच का सामना कर रहे हैं और रूपये जीत रहे हैं । ये बात दूसरी है कि उनका सच सुनने वालों का सर शर्मिंदगी से झुका जा रहा है । जिंदगी में गलतियां शायद हर किसी से होती होगी मगर कभी-कभी बीती बातो को भुला कर अपने आज में जीना ज्यादा सुकून देता है । ख़ुद को भी और दूसरों को भी । फिर भला ऐसी बातों की बेशर्म नुमाइश का क्या मतलब ? और मज़े की बात ये कि अगर सच bolne wala बेचारा नौ सच के बाद agla झूठ बोल दे to pahle कि jeeti sari रकम भी डूब jati है । यानि maya मिली न ram । सच बोल कर phajihat हुई , रूपये भी गए । कितना achchha होता कि ऐसे programs में आम आदमी को निशाना बनने की bajaay politicians को बुलाया jata और उनके सच की पोल kholi jati । kuchha to bhalaa होता लोकतंत्र का ।

pratima sinha

सोमवार, 27 जुलाई 2009

My second day on blog...

kabhi-kabhi mehsoos hota hai jaise zindagi bhagati hi chali ja rahi hai.Band Mutthi se phisalti ret ki tarah... pichhe mud kar dekho to lagta hai jaise kal ki hi baat ho. Jo kuchha beet chuka hai, wo sab kuchha yahi kahi thahar gaya sa lagta hai. lekin..., akhir sach to yahi hai, ki, waqt har pal guzar raha hai aur isi sach ke sath har pal ko jeena hi samjhdaari hai. kal nag-panchmi thi, aj Sawan maah ka third monday hai. shukra hai bhagwan ka, ki mere shahar mei abhi bhi maati se jude in teej-tyohar ki khushboo baki hai, warna bade kahe jane wale (?) shaharo mei to din-raat ke siwa bhahut kuccha pata hi nahi chalta.Jo bhi ho sawan ke pure maheene mei baba vishwanath ki nagari KASHI ki chhata hi nirali hoti hai aur iis baat ko wahi samajh sakta hai, jisne sawaan mei kashi ko karib se dekha ho.

see you all again !

शनिवार, 25 जुलाई 2009

My First Day of writing AKASH...

Mera Akash...
kitna sundar..., manmohak..., yaha se waha tak sirf aur sirf mera... !
I still can't believe that I have created my own blog finally and now I'm able to express my feelings & emotions with the whole world. I must be thankful to internet.
Kitna Kuch hai mere paas, kahne ko, batane ko,
Dhire-Dhire batoungi & I hope aap sabko bhi mera akash mei mere saath parwaz Bharna Achchha Lagega.Saat Rang batungi aap sabke saath...
mera aaj ka din sachmuch bahut achchha raha... .
Good Day...
meet you again...

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...