सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

महिलाओं और विकलांगों के लिए ...


पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान रेलवे स्टेशन पर मैं एक अजीब कैफियत से गुज़री । मैं टिकट बुकिंग काउंटर पर खडी थी और सामने लिखा था '' महिलाओं और विकलांगों के लिए ''। एक पल को निगाह उस तहरीर पर अटक सी गयी । विकलांग तो नही , हां, महिला होने के नाते मुझे नियमतः वहां खडा होना था सो मैं खडी रही ,मगर दिमाग में लगातार घूमता रहा ये प्रश्न कि आख़िर महिलाओं और विकलांगों में क्या समानता हो सकती है जिसकी वजह से रेलवे टिकट काउंटर जैसी सार्वजनिक जगह पर दोनों को समान अधिकार और सुविधाएं (?) प्रदान की गईं हैं। क्या ये सुविधा (?) प्रदान करने वाले का ये मानना है कि - (1) ये दोनों ही समान रूप से असमर्थ और अक्षम हैं , (2) ये दोनों ही विशेष कृपा के मोहताज हैं , (3) ये दोनों ही भीड़ या समूह में आत्मरक्षा नहीं कर सकते , (4) ये दोनों ही बिना किसी अतिरिक्त मदद के अपने हक में खड़े नहीं हो सकते , (5) या फिर ये दोनों ही समाज की मुख्य - धारा से अलग, हाशिये पर पड़ी वो बेचारी कौमें हैं जिन पर निरंतर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना इस महान समाज का कर्तव्य है और अधिकार भी , ताकि महानता का आभामंडल जगमगाता रहे । प्रश्न काफी देर तक जेहन में उमड़ते -घुमड़ते रहे मगर उत्तर कोई भी नही मिला । कमजोरों को विशेष सुविधाएं मिले ,इससे किसी को कोई इनकार नही , मुझे तो बिल्कुल भी नही ,लेकिन किसी को जबरदस्ती कमज़ोर सिद्ध करना ...? ये कहां का न्याय है ? जिस देश में एक महिला ही देश की प्रथम नागरिक हो, जिस देश की नारी की शौर्य गाथाएं विश्व प्रसिद्द हों और नारी के शक्ति स्वरुप की पूजा की जाती हो,वहां महिला होने के नाते ऐसी सुविधायें लेना और देना दोनों ही विचित्र स्थिति है । सच तो ये है कि शारीरिक रूप से कुदरतन अक्षम व्यक्ति को भी एक हद तक ही मदद दरकार होती है क्योकि लक्ष्य हमेशा मन की शक्ति से ही साधे जाते हैं ।आश्चर्य है कि ख़ुद को विकलांगों की श्रेणी में पाकर हम महिलाएं कभी कोई विरोध दर्ज क्यों नहीं करतीं ? ये महज,आराम से मिल रही सुविधाओं को पाते रहने की सहज मानवीय वृत्ति है या वाकई एक प्रकार की मानसिक विकलांगता का कोई लक्षण... ? मैं इन जिज्ञासाओं का उत्तर पाती इससे पहले ही मेरा नंबर आ गया और मैं टिकट ले कर उस जगह से हट गयी , जिसकी शोभा ये तहरीर बढ़ा रही थी । अपने इन सवालों के कटघरे में मैं भी हूं क्योंकि मैंने भी इस सुविधा का फायदा उठाया , लेकिन जवाब पाने की इच्छा मन में ज्यों की त्यों है कि शायद अगर सही जवाब मिल जाए तो कभी इस कटघरे से निकल सकूं ।
क्या आपके पास है जवाब ... ?

5 टिप्‍पणियां:

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

dekhiye ham jis tarah se sochate he, us tarah ka vatavaran banaa lete he/ hame fir usi tarah ka sabkuchh pratit hone lagtaa he/ aapki rachna..nissandeh bahut umda aour sochane par vivash karne jesi he, magar.. eh bhi ho saktaa he ki vyavstha ke lihaaz se mahilao ko takleef naa ho isliye likha gayaa ho,, desh me hi nahi varan duniya me mahilayo ke liye vishesh kuchh to kiya jaataa hi he/ ise aap kisi bhi nazar se dekhe magar isake pichhe mahilao ko suvidha dena hi manshaa rahti he/ vese bhi kisi vishay ke do paksh to ho hi jaate he, tark karna..aapki tark shaqti ko prakat kartaa he/ lihaza..apani apani soch he yah to/ mujhe to isame esa koi karan nahi dikhataa jesa aapne likha he, vese yah bhi sambhav he ki aap mujhe ek purush maan kar is subject par bhi kisi 'vaad' ke havaale kar dengi/ kintu aapke vichaar behatar he, aour is aour jaroor dhyaan dena chahiye/

Chandan Kumar Jha ने कहा…

दीदी आपने बहुत ही ज्वंलत मुद्दे को उठाया है । समाज ने हमेशा दोहरे मापदंड अपनाये है । बहुत ही दुखःद है यह । लेकिन सिर्फ़ शोक व्यक्त कर हम जिम्मेदारी से बच नहीं सकते । अभी मेरे विचार परिपक्व नहीं हुए है । मंथन की प्रक्रिया जारी है । आभार

vijay kumar sappatti ने कहा…

pratima ,

extrmly sorry for late arrival..

aapne bahut hi ache issue par apni bebaak raay di hai .. mujhe is lekh ko padhkar bahut khushi hui.. aapne aurat ki asmita ko lekar samajit soch hai usko bakubhi bayan kiya hai ..

regards

itne acche post ke lie bus badhai hi badhai .

vijay

Urmi ने कहा…

आपने सही मुद्दे को लेकर बहुत ही सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है! बहुत खूब!

Vibha Rani ने कहा…

दर असल हम भी कंफ्यूज्ड हैं. जब सुविधा की बात आती है तो हम उस ओर को लपक लेते हैं, जैसे ट्रेन और बसों में महिलाओं की सीट का आरक्षण. टिकट काउंटर पर उनके लिए अलग काउंटर. वैसी जगहों पर हम अपनी सुविधा का लाभ उठा लेते हैं तो जब हम लाभ उठाते हैं तो उस लाभ के पीछे छुपी कुछ हाँनियों का भी हमें सामना करना ही होगा. सरकारी संस्थानों की अपनी मज़बूरियां होती हैं. अब बात हर व्यक्ति के अपने एटीचऊड की की जानी ज़रूरी है, क्योंकि बदलाव व्यक्ति ही ला सकता है.

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