शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

ज़िद...!


अपनी ही ख्वाहिशों की आग में जल जाऊं मैं ।
दिल को ये ज़िद है कि अब खाक़ में मिल जाऊं मैं ।
नज़र में ले के कोई ख्वाब जी नहीं सकती ,
मेरे हालत चाहते हैं , बदल जाऊं मैं ।
ग़ज़ब की भीड़ है , इक शोर मचा है हरसू ,
काश , इन सबसे कहीं दूर निकल जाऊं मैं ।
छूके महसूस कर चुकी हूँ , चाँद-तारों को ,
कैसे अब टूटे खिलौनों से बहल जाऊं मैं ।
मेरे अहसास जम गए हैं , बर्फ़ की मानिंद ,
फिर कोई आग लगाओ कि पिघल जाऊं मैं ।
''मैं '' प्रतिमा ...!

6 टिप्‍पणियां:

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत सी बेहतरीन रचना , सुन्दर !!!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ग़ज़ब की भीड़ है , इक शोर मचा है हरसू ,
काश , इन सबसे कहीं दूर निकल जाऊं मैं .......

पर ऐसा होता kahaan है ........ इतना आसान नहीं है भीड़ को छोड़ कर जाना

सुन्दर लिखा है बहुत ही ...........

Urmi ने कहा…

मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ही ख़ूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये रचना काबिले तारीफ है!

Vibha Rani ने कहा…

बहुत बहुत धन्यवाद आपका. आपक मेल आईडी नहीं खोज पाई, इसलिये इस पर लिख रही हू. मेल करे- gonujha.jha@gmail.com पर. फिर बातैन करते हैन.

M VERMA ने कहा…

फिर कोई आग लगाओ कि पिघल जाऊं मैं ।"
बहुत खूबसूरत लगा ये जज्बा. जमे हुए एहसासो के लिये आग --
बहुत खूबसूरत

संजय भास्‍कर ने कहा…

सच में बहुत ही सुन्दर रचना दीदी ...

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