रविवार, 20 सितंबर 2009

ऐसा हो जाने दो ...

सदाएदिल को हवाओं में बिखर जाने दो ।
उदास रात की तक़दीर संवर जाने दो ।
ग़मों के बोझ को कब तक उठाए रक्खोगे ,
अब तो पत्थर को कलेजे से उतर जाने दो ।
फूल की तरह इनसे खुशबुएँ भी उठ्ठेगीं ,
पहले ज़ख्मों को ज़रा और निखर जाने दो ।
कैसे तुम रोकोगे उड़ते हुए परिंदे को ,
मन की मर्ज़ी है ,वो जाता है जिधर ,जाने दो ।

प्रतिमा !!!!!!!!

2 टिप्‍पणियां:

Chandan Kumar Jha ने कहा…

कैसे तुम रोकोगे उड़ते हुए परिंदे को ,
मन की मर्ज़ी है ,वो जाता है जिधर ,जाने दो ।


कोई नहीं रोक सकता उन्हें ………………………बहुत सुन्दर रचना । शुभकामनायें । आभार ।

vijay kumar sappatti ने कहा…

amazing line ..udaas raaty ki takdeer ko sanwar jaane do ..



main kuch na kahunga ji

vijay

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