
ये सहरा किस कदर फैला हुआ है ।
समंदर का मुझे धोखा हुआ है ।
तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।
पटकती है लहर , सिर साहिलों पर ,
ये मंजर मेरा भी देखा हुआ है ।
बनेगी बात कैसे अब हमारी ,
ये धागा , बेतरह उलझा हुआ है ।
प्रतिमा !!!!!!!!
6 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रतिमा जी ...........बस लिखती रहे । दुर्गापू्जा की हार्दिक शुभकामनायें ।
achha hai likhti rahe
तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।
बहुत खूब --
registan me samandar ka dhokha---
aapna tasveer bahut khoob lagayee hai. sahra sachmuch saagar sa dikhta hai . bahut achchhi gajal......
keep writing !
sach hai ....
aise falak mein parvaaz ke liye kisi ki bhi ijaazat ki zarurat darkaar nahi hoti
aapka takhayyul hi aapki pehchaan hai .
mubaarakbaad
---MUFLIS---
तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है...........
बहुत सुन्दर लिखा है .......... लाजवाब बयान किया है रेत के समुन्दर को .........
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