शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

एक धोखा ...!


ये सहरा किस कदर फैला हुआ है ।
समंदर का मुझे धोखा हुआ है ।
तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।
पटकती है लहर , सिर साहिलों पर ,
ये मंजर मेरा भी देखा हुआ है ।
बनेगी बात कैसे अब हमारी ,
ये धागा , बेतरह उलझा हुआ है ।
प्रतिमा !!!!!!!!

6 टिप्‍पणियां:

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रतिमा जी ...........बस लिखती रहे । दुर्गापू्जा की हार्दिक शुभकामनायें ।

dhiraj ने कहा…

achha hai likhti rahe

M VERMA ने कहा…

तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।
बहुत खूब --

Unknown ने कहा…

registan me samandar ka dhokha---
aapna tasveer bahut khoob lagayee hai. sahra sachmuch saagar sa dikhta hai . bahut achchhi gajal......
keep writing !

daanish ने कहा…

sach hai ....
aise falak mein parvaaz ke liye kisi ki bhi ijaazat ki zarurat darkaar nahi hoti
aapka takhayyul hi aapki pehchaan hai .
mubaarakbaad
---MUFLIS---

दिगम्बर नासवा ने कहा…

तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है...........

बहुत सुन्दर लिखा है .......... लाजवाब बयान किया है रेत के समुन्दर को .........

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