आजकल मेरे शहर में प्रगति कार्य ज़ोरों पर है और चूंकि मेरे शहर में हर प्रगति कार्य की शुरुआत सड़क की खुदाई से होती है इसलिए अब आलम ये है कि शहर की लगभग सारी मुख्य सड़कें या तो खोदी जा चुकी हैं या फिर खोदी जाने वाली हैं । इस अनवरत और धुआंधार सड़क खुदाई के चलते मेरा शहर मैदानी से पहाड़ी और शहरी से ग्रामीण क्षेत्र में तब्दील हो चुका है । चूंकि प्रगति की बहुत जल्दी थी इसलिए ये व्यवस्था नहीं बनाई गयी कि एक काम पूरा हो जाने के बाद ही दूसरे काम में हाथ लगाया जाये और हर तरफ एक साथ ही काम शुरू हो गया । अब अगर घर से ऑफिस की दूरी घड़ी देख कर आधे घंटे की है तो बेहतर ये होगा कि घर से दो घंटे (बिना किसी अतिश्योक्ति के) पहले निकला जाए वरना टाइम पर पहुँचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है । कारण --- हर मुख्य चौराहे और रास्ते पर बेतहाशा - बेतरतीब जाम । तेज़ धूप, चिलचिलाती गर्मी में घंटो जाम में फंसने का दर्द वही जानता है जिसने ये त्रासदी झेली हो । इस स्थिति का असर धीरे - धीरे ज़हर सा फैलता जा रहा है । पहले जहाँ रिक्शे और ऑटो वालों से झिक - झिक की नौबत कभी - कभार ही आती थी वहाँ अब शायद ही कोई दिन हो जब ऐसा न होता हो । लगता है सब पगला गए हैं । धूल - धूप - गर्मी - जाम और घंटों की फजीहत से बौखलाए लोग जैसे दिमागी संतुलन खोते से जा रहे हैं । एक तरह की मानसिक त्रासदी के शिकार होते जा रहे हैं सब के सब । दिमाग और शरीर की ऊर्जा सडकों पर खोने के बाद घर पहुँचने पर इतनी हिम्मत भी बाकी नहीं रहती कि सुकून के चन्द पल घरवालों के साथ बिताये जा सके । दिन भर दिलोज़ेहन में इकट्ठा तनाव और शोरगुल इस हालत में नहीं छोड़ता कि शाम के कुछ लम्हे चैन से गुज़ारे जाएँ ।
माटी में बीज सा ख़ुद को बोना, बरखा सा ख़ुद ही बरसना, फिर उगना ख़ुद ही जंगली फूल सा. कांटना-छांटना-तराशना-गढ़ना ख़ुद को आसान नहीं होता. सिद्धि प्राप्त करनी होती है ख़ुद तक पहुँचने के लिए. धार के विपरीत बहना पड़ता है थकान से भरी देह उठाये तय करना पड़ता है रास्ता बिलकुल अकेले. दूसरों पर जय पाने से पहले ख़ुद को जय करना (जीतना) होता है...तब बनता है कोई "स्वयंसिद्ध" !!
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