गुरुवार, 6 मई 2010

देर आया ,क्या दुरुस्त भी आयेगा ??????????/


वैसे तो संसार का हर धर्म दया , करुणा और क्षमा की शिक्षा देता है और विशेषकर हम भारतीय इस शिक्षा को सही अर्थो में आत्मसात भी करते रहे हैं ,मगर कभी - कभी अन्याय और अत्याचार उन हदों के पार चला जाता है जहाँ किसी भी नैतिक शिक्षा की कोई भूमिका नहीं रह जाती वहाँ होता है सिर्फ क्रोध , तिलमिलाहट तीव्र आक्रोश और रगों में सुलगता लावा जो सिर्फ और सिर्फ प्रतिशोध लेना और अत्याचारी को दंड देना चाहता है २६/११ को भारत की अस्मिता पर हुए आतंकी हमले के बाद शायद हर भारतीय ने ही अपनी रगों में इसी लावे को पिघलता महसूस किया है । ऊपर से सितम ये कि अपनी - अपनी जगह रह कर - रुक कर सिवाय देखते रहने के कुछ किया भी नहीं जा सकता क्योकि दंड देना एक कानूनी और संवैधानिक प्रक्रिया है जिसके अपने तरीके हैं, प्रावधान हैं , जिनमे समय लगता है , प्रतीक्षा करनी पड़ती है शुक्र है कि प्रतीक्षा - काल बीता और छः मई , २०१० को वो फैसला ही गया जिस पर पूरे देश की नज़र टिकी थी अजमल कसाब को अंततः सज़ा--मौत का फ़र्मान सुना दिया गया ये वो शख्स है जिसकी बेरहमी ने ऐसा कहर बरपा किया था जिसमे जाने कितनी जिंदगियां ख़त्म हो गयीं , कितनी बर्बाद हो गयीं और कितनी ही हमेशा - हमेशा के लिए जिंदा लाशों में तब्दील हो गयीं एक ऐसा जुर्म , जिसके लिए रहम की सोचना भी गुनाह सरीखा है अदालत ने मुजरिम को वही सज़ा दी , जिसका वो हकदार था फ़ैसला आने में वक्त लगा , मगर आया तो मन को ठंडक मिली लेकिन .............
बात अभी खत्म पर नहीं पहुंची है ये फैसला तो कुछ देर के लिए दर्द का एहसास भुला देने वाली दर्दनिवारक दवा की गोली जैसा है ,दर्द का पूरा इलाज नहीं और अब सवाल है यही कि क्या ....... दर्द का पूरा इलाज होगा ? कसाब की अंधी दरिंदगी ने जिन जिंदगियों को हमेशा के लिए अंधे कुएं में धकेल दिया , क्या...... उन्हें न्याय मिलेगा ?
क्या इस सज़ा के फ़ैसले पर अमल होगा ?
या फिर --------------------------------------------------- ???


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