गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

कुछ तो है....!

पहले था कुछ संदेह,
पर अब हो चला है विश्वास सा,

हाँ...,
मर चुकी हूँ मैं,
मर चुका है मेरे भीतर का वो “कुछ”,
जो ज़िन्दा रखता था मुझे,
हर पल- हर लम्हा...,

और अब उस “कुछ” के बगैर,
 काट रही हूँ सुबह-ओ-शाम अपने,
एक ज़िन्दा लाश की तरह... ;

हैरान हुए न आप...?
मैं भी हैरान हूँ अपने ही भीतर हुई इस मौत से,
नकारना चाहती हूँ इस बात को,
मुकरना      चाहती    हूँ इस   बात से,
छू कर खुद को,
 जैसे दिलाना चाहती हूँ यकीन खुद ही को,
 अपने अभी भी ज़िन्दा होने का,
लेकिन
छूने के बाद भी,
जब नही पाती कोई स्पंदन,कोई संवेग,
अपने ही वजूद में,

तो हो जाती हूँ
 पहले से भी ज़्यादा मायूस,हैरान,परेशान,

क्या हुआ...? कैसे हुआ...? कब हुआ ये हादसा...?
इसका भी एहसास नही मुझे,
एहसास है तो बस अपने भीतर कुछ खत्म जाने का,
अपने वजूद से कुछ गुज़र जाने का,
“कुछ” जो पहले हुआ करता था,
 मेरे मन के बिल्कुल करीब,
मेरे वजूद के कभी अलग न होने वाले हिस्से सा,
अब नहीं है मेरे पास,
तभी तो हो गया है ऐसा
कि
अब
मुझे कुछ नहीं छूता,
कुछ नहीं झकझोरता,
 उठ खडे होने,
 लक्ष्य साधने,
और 
लक्ष्य का संधान करने के लिये
 “कुछ” नहीं उकसाता,

ज़िन्दगी का एक-एक पल,
एक-एक साँस जी भर जीने की
 पहले सी इच्छा नहीं होती,

अपने होने को अंदाज़, 
अपनी रूह को आवाज़
और अपनी सोच को अल्फ़ाज़ देने की
पहले सी ज़िद भी नहीं होती,

और मर जाने का
इससे बढकर सुबूत क्या होगा कि
अब खुद के लिये
अपनों से,
परायों से,
 दुनिया से,
 यहाँ तक
कि खुद से भी
पहले की तरह लडना छोड दिया है मैंने,

बस यूँ ही जिये जाती हूँ,
बेमकसद,
बेमानी,
बेवजह,

बिना लडे, बिना कुछ कहे,
हवा के साथ उडते चले जाते,
 किसी बेचारे सूखे पत्ते की तरह
और अचानक अनायास ही
 उलझ पडती हूँ
अपने ही किसी उलझे खयाल की झाडियों में,

देखती हूँ..., सोचती हूँ ,
शाम ढले ढलती धूप के साथ,
 दीवारों से उतरते साये सा,
 ये क्या है ??
 जो अब भी मन के एक कोने में अटका है...
 जाने को तैयार,
 मगर रुका हुआ सा
,
क्या है ये...?
 कहीं “कुछ” तो नहीं...
हाँ....
कुछ तो है अभी भी...

आस फिर बँधती है...
शायद अभी मरा नहीं...,
खत्म नहीं हुआ पूरी तरह,
शायद..................,

विश्वास फिर संदेह का रूप ले रहा है,
नहीं ये मरा नहीं ,
खत्म नहीं हुआ,
“ कुछ”    तो है जो बचा है अभी मेरे भीतर,
शायद......
उस कोने में जहाँ मैं भी नहीं पहुँच सकी हूँ आज तक !

7 टिप्‍पणियां:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

रचना बहुत सुन्दर है पर इतना गम क्यूँ ?

M VERMA ने कहा…

बहुत उतार चढाव दिया है आपने रचना में
अंत में आशावादी स्वर सुन्दर लगा...
वह कुछ' जो मरा नही है मरेगा भी नही

Shikha Kaushik ने कहा…

shayad hum hdustani hi apni her rachna ka ant ek aasha ki kiran ke saath kar sakte hai .hum me hi hai vo sakti ki har hadsa jhel kar fir se uthh jate hai.ani bhala to sab bhala.kavita gahriye me doobti ja rahi thi ki aasha ka kinara dikhakar aapne man ko prasann kar diya.shukriya !

Sunil Kumar ने कहा…

rachna kai padavon se ho kar gujarti hai ant achha laga

pratima sinha ने कहा…

खुद के अभी भी ज़िंदा का ये संदेह यकीन के कुछ और पास पहुँच गया आपसब को अपने इतने करीब और जुडा हुआ पा कर. हाँ यही कुछ तो है जो हर हाल में ज़िंदा रखता है मुझे और बेशक उसे हमेशा जिलाये रखूँगी मैं, हर कीमत पर.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

देखती हूँ..., सोचती हूँ ,
शाम ढले ढलती धूप के साथ,
दीवारों से उतरते साये सा,
ये क्या है ??
जो अब भी मन के एक कोने में अटका है...

आप सही कह रही हैं शायद कुछ तो है...
बहुत ही अच्छी कविता.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

आप को सपरिवार दिवाली की शुभ कामनाएं.

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