गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

युनुस भाई के बहाने...!

ये बात तो आप भी मानेंगे कि दुनिया में जो कुछ होता है उसके पीछे कोई न कोई वजह ज़रूर होती है. हर होनी का कोई न कोई बहाना ज़रूर बन जाता है.अब अगर ये सच है तो बिलाशक मेरे आकाश के इस सफ़हे पर उतरने वाले अल्फ़ाज़ की वजह हैं युनुस भाई. 
युनुस भाई बोले तो, युनुस खान... विविध भारती मुंबई की वो हरदिलअज़ीज़ आवाज़, जिसके तार्रुफ़ के लिये मेरे लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं. एक दफ़ा अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा के दौरान जब मैंने गुलमर्ग की ऊँचाइयों पर विविध भारती सुनते हुए लोगो को देखा  था तो तहेदिल से महसूस और स्वीकार किया था कि जो चीज़ें हिन्दुस्तान को एक छोर से दूसरे छोर तक जोडे रखतीं हैं, विविध भारती उनमें से ही एक है तो इस लिहाज़ से युनुस खान को भी किसी तार्रुफ़ की ज़रूरत नहीं. 
तो बिना कुछ और कहे सीधे अपनी बात पर आती हूँ.
युनुस भाई की मेहरबानी से एक बेहद कीमती, नायाब और अपने दिल के  बहुत करीब रहने वाले एहसास से एक नये अंदाज़ में रूबरू हुई हूँ मैं. 
उनकी मेहरबानी ये कि उन्होंने अपने ब्लोग और लिंक्स के ज़रिये ये बेशकीमती चीज़ अपने चाहने वालों और अपने दोस्तो से बाँटी है और वो चीज़ है - गुलज़ार साहेब की रूहानी शायरी से सजा बेहद खूबसूरत               " गुलज़ार कैलेन्डर "
कैलेन्डर है तो ज़ाहिर है तारीखें भी हैं जो साल के साथ बदल जायेंगी, पुरानी हो जायेंगी.लेकिन इस कैलेन्डर पर सजे अल्फ़ाज़ का नशा पुरानी शराब सा बढता ही जाना है इसमें कोई शक नहीं. 
इसको देखा तो जाने कब से बंद मन के दरीचे जाने कैसे खुदबखुद खुल गये और उनसे भीतर आकर यादों की खुश्बू ने मानों मेरे सारे वजूद को खुद में समेट लिया. मेरे तसव्वुरात मुझे हाथ पकड कर वहाँ ले गये, जहाँ से गुज़र चुके एक अरसा हुआ... मगर लगता है जैसे अभी कल... नहीं, बस कुछ पल पहले की बात है.......
क्या वक्त था, जब हम गुलज़ार को पढते नहीं, जिया करते थे, उनके अल्फ़ाज़ को पिया करते थे. १९९७ से २००१ तक का वो दौर जब आकाशवाणी वाराणसी में हम कुछ दोस्तो का वो अंतरंग सा दायरा, जिसका मर्कज़ थे गुलज़ार..., अपने अल्फ़ाज़ की शक्ल में. 
तब ज़िंदगी को समझने का हमारा सीधा फ़लसफ़ा हुआ करता था गुलज़ार समझना. यानी " जिन लाहौर नही वेख्या........" की तर्ज़ पर जिसने गुलज़ार को नही समझा उसने कुछ नही समझा...और गुलज़ार को समझना कोई हँसी-खेल तो था नहीं. अल्फ़ाज़ का ये जादूगर कब-कहाँ-किस तिलस्म में बाँध दे, क्या पता. सबकी कोशिश रहती कि बस उस हर तिलस्म की तह तक पहुँचा जा सके क्योंकि उसे तोडना कोई नहीं चाहता था.
मैं इस मामले में उन खुशनसीब लोगो में थी जिन्हें गुलज़ार को समझने के लिये कभी किसी ज़ेहनी मशक्कत से नहीं गुज़रना पडा. उनकी कलम से निकला हर लफ़्ज़ सीधे मेरे दिल तक यूँ पहुँचता रहा है मानों अपना ठिकाना खोज रहा हो. कई दफ़ा सिर्फ़ ये सोच कर रोई हूँ मैं कि आखिर इस शाएर ने मेरे मन को , मेरे दर्द को अपने लफ़्ज़ में कैसे लिख डाला ? हाँ... उस आसमान के सामने खुद के एक ज़र्रे से भी कमतर होने की हकीकत को स्वीकारते हुए भी अनगिनत बार मैंने अपने मन को उनके लफ़्ज़ में साँस लेते महसूसने की गुस्ताखी की है.  
मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पडा है.....ये नज़्म जब सुनी है, जैसे सारा जिस्म ही कानों में तब्दील हो गया है कि कहीं कोई एहसास छूट न जाए सुनने से.
गुलज़ार की सिर्फ़ रूमानी और रूहानी शायरी से ही इश्क नहीं किया हमने बल्कि उनके उस मासूम दुलार ने भी हमें कई बार रुलाया है जिस पर उनकी प्यारी बिटिया बोस्की (मेघना गुलज़ार) का एकाधिकार है   
" बिट्टू रानी बोस्की-बूँद गिरी है ओस की..."  
और एक स्वीकारोक्ति ये कि हर दफ़ा इन लाइनों ने बेवजह ही बोस्की से ईर्ष्या करने पर मजबूर सा किया है .
क्या दिन थे....! गुलज़ार साहब का शाहकार मरासिम हमारे जीने की वजह बन गया था.
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोडा करते...,
वक्त की शाख से लम्हे नहीं तोडा करते...! 


शाम से आँख में नमी सी है.
आज फिर आपकी कमी सी है.
वक्त रहता नहीं कहीं टिक कर,
इसकी आदत भी आदमी सी है.



सीने में जल रहा है क्यों बुझता नहीं धुँआ.
उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुँआ.
आँखो से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं,
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुँआ.



 मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे...!

जब जितनी बार सुना , हर बार रूह ने शिद्दत से लिखने वाले का शुक्रिया अदा किया कि शोर से भरी इस दुनिया में कुछ तो तस्कीन का सामान है.गुलज़ार साहेब को पढना जितना खूबसूरत एहसास  है, उन्हें उनकी ही आवाज़ में सुनना उतना ही हसीं तजुर्बा है. 
आज भी ज़िन्दगी को समझने का अपना फ़लसफ़ा (गुस्ताखी के साथ) कमोबेश वही है... जो गुलज़ार को नहीं समझ सकता, उसके लिये ज़िन्दगी को समझना भी कुछ मुश्किल ही है. एक ऐसा शाएर , जिसकी खासियत ये नही कि उसे आस्कर से नवाज़ा गया है बल्कि उसकी खासियत ये है कि वो रूह की ज़ुबान में लिखता है . युनुस भाई का एक बार फिर शुक्रिया, ठहरे हुए पानी में कंकर सा कुछ फेंकने के लिये..., गुज़र चुके वक्त में फिर लौटने का रास्ता दिखाने के लिये. लिखने के लिये अभी भी बहुत कुछ बाकी है लेकिन अगर एक बार फिर गुलज़ार साहब का आसरा लूँ तो बात को ज़्यादा खूबसूरती से खत्म कर सकूँगी -
एक पुराना मौसम लौटा, यादों की पुरवाई भी.
ऐसा तो कम ही होता है , वो भी हों तन्हाई भी.

 खामोशी का हासिल भी एक लंबी सी खामोशी है , 
उनकी बात सुनी भी हमने,अपनी बात सुनाई भी.

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

गुलज़ार कैलेन्डर- अच्छा रहा जानना..

बहुत अच्छा लगा आलेख.

Yunus Khan ने कहा…

गुलज़ार हमारी सांसों में, हमारी धड़कनों में बसे हैं प्रतिमा जी। आपका लिखा पढ़कर यूं लगा कि आप अपने नहीं मेरे अनुभवों के बारे में कह रही हैं। शुक्रिया इस पोस्‍ट के लिए।

Sarita Tripathi ने कहा…

विविध भारती, यूनुस खान, गुलजार कैलेंडर, मरासिम, पुखराज उफ, क्या-क्या याद दिला दिया आपने प्रतिमा, याद आ गया वो सुनहरा दौर जब हम गुलजार को साझा पढ़ा और जीया करते थे। इंसान के दिलोदिमाग पर दुनियादारी की कितनी भी परतें क्यों न चढ़ जाएं, खूबसूरत चीजें हमेशा दिल की गहराइयों में जिंदा रहती हैं।

बंद शीशों के परे देख, दरीचों के उधर
सब्ज पेड़ों पे, घनी शाखों पे, फूलों पे वहां
कैसे चुपचाप बरसता है मुसलसल पानी

कितनी आवाजें हैं, ये लोग हैं, बातें हैं मगर
जहन के पीछे किसी और ही सतह पे कहीं
जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर तेरा।

अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...