शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

ये समय खुद को बधाई देने का है.

बात का संदर्भ निश्चित रूप से राष्ट्रीय है लेकिन इस वक्त मन सिर्फ़ अपने शहर के बारे में बात करने का हो रहा है और स्पष्ट कर दूँ कि इसके पीछे वजह , विचारों का संकुचन नहीं , बल्कि भावों की गहनता है. कल यानी तीस सितम्बर की तारीख हमारे इम्तहान का क्षण था .न सिर्फ़ एक व्यक्ति बल्कि एक लोकतन्त्र के रूप में भी हमारे कसौटी पर कसे जाने का दिन था कल. बीस साल पहले और उससे भी आगे साठ साल पहले की तल्ख यादों और कटु अनुभवों ने मन को न चाहते हुए भी कमज़ोर सा बना रखा था.
कुछ भी नहीं होगा के विश्वास को अगर कुछ हो गया तो... की आशंका का दंश लाख कोशिशों के बाद भी डस रहा था. सबकी तरह हम भी शाम ढलने के पहले घर पहुँच जाने को उत्सुक थे. मन में अपने लिये भय नही,हाँ जल्दी वापस लौट कर घर वालों को आश्वस्त करने का भाव ज़रूर था. ये बात और कि फ़ैसला क्या और किसके पक्ष में ? जैसे सवाल सोच के दायरे से भी कोसों दूर ही थे. इच्छा थी तो इतनी कि जो भी हो , सब सकुशल निकल जाए. फिर शाम हुई, देश का बहुप्रतीक्षित फ़ैसला आया और सब कुछ कुशलता से बीत गया.शाम के गहराने के साथ ही शहर बनारस की विश्व प्रसिद्ध अलमस्ती सडकों को गुलज़ार कर गयी. सारी आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए काशी की गंगा-जमनी तहज़ीब ने एक बार फिर अपना परचम लहरा दिया.
हम तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं अपने शहर के लोगों के,मीडिया के और प्रशासन के जिन्होंने मिल कर-हाथ से हाथ मिला कर न सिर्फ़ इस इम्तहान का सामना किया बल्कि अव्वल भी आये.
एक बार फिर जीती इन्सानियत,
एक बार फिर जीता बनारस !
होठों पर फिर आया एक शेर...

कभी तो यूँ हो कि दोनों का काम चलता रहे,
हवा भी चलती रहे और दिया भी जलता रहे !

5 टिप्‍पणियां:

शरद कोकास ने कहा…

ऐसा बनारस हमेशा बना रहे

Vibha Rani ने कहा…

Banaras ka 'ras' 'ban' rahe.

अनिल कान्त ने कहा…

शेर बहुत पसंद आया हमें

pratima sinha ने कहा…

धन्यवाद अनिल जी,बात अच्छी होना ही काफ़ी नहीं है,उसे समझने की सलाहियत भी होनी चाहिये.आप अल्फ़ाज़ की गहराई तक पहुँचे ये महत्वपूर्ण बात है. ये मेरा भी पसंदीदा शे’र है. लेकिन हाँ , शे’र मेरा नहीं है.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

Respected Mam,
Bahut achha laga aap ke blog par aakar.

Sadar
Yashwant
http://jomeramankahe.blogspot.com

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