माटी में बीज सा ख़ुद को बोना, बरखा सा ख़ुद ही बरसना, फिर उगना ख़ुद ही जंगली फूल सा. कांटना-छांटना-तराशना-गढ़ना ख़ुद को आसान नहीं होता. सिद्धि प्राप्त करनी होती है ख़ुद तक पहुँचने के लिए. धार के विपरीत बहना पड़ता है थकान से भरी देह उठाये तय करना पड़ता है रास्ता बिलकुल अकेले. दूसरों पर जय पाने से पहले ख़ुद को जय करना (जीतना) होता है...तब बनता है कोई "स्वयंसिद्ध" !!
बुधवार, 29 जुलाई 2009
(4) वो दिन हवा हुए ...
बचपन में कहावत सुना करते थे '' घर की मुर्गी दाल बराबर '' , जिसका मतलब था ' घर की बेहतरीन चीज़ को भी बाहर की चीज़ की तुलना में कमतर समझाना । सीधे शब्दों में मुर्गी के सामने दाल की कोई बिसात नही थी , और दाल से तुलना करना मुर्गी का अपमान था । लेकिन अब ज़माना बदल चुका है जनाब ! अब दाल और मुर्गी की तुलना के पहले ज़रा सावधानी बरतें , क्योंकि ये दाल का अपमान होगा। जी हां, महंगाई के इस दौर में दाल ने अपनी हैसियत में खासा इजाफा कर लिया है और इसकी पीली रंगत ने सोने के तेवर अख्तियार कर लिए हैं । वैसे आम आदमी के लिए ये कोई अच्छी ख़बर तो नही है बल्कि इससे मन ही दुखता है क्योंकि अब तो दाल रोटी खा कर प्रभु के गुन गाना भी आसान नही रहा ।दाल ने कीमत के अब तक के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और बेचारा गरीब आदमी अपनी टूटी कमर और फूटी किस्मत लिए बस यही सोच रहा है कि क्या अब सचमुच दाल रोटी की जगह मुर्ग बिरियानी खानी होगी ? बेचारे ने अपने और अपने बच्चों के लिए इतनी अच्छी दुआ तो कभी ख्वाब में भी नही मांगी थी ..... !
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2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
लिखते रहिये
चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
गार्गी
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