सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

ऑळ इज़ वेल ...!

हर तरफ चर्चा है , ऑळ इज़ वेल । जब दिल सचमुच परेशान हो , कोई हल न सूझ रहा हो और बिला वजह का टेंशन दिमाग में घुसने की कोशिश में लगा हुआ हो , उस वक्त ये कहना वाकई बहुत तसल्ली देता है कि ऑळ इज़ वेल । अब ये बात दूसरी है कि सब कुछ वाकई वेल हो भी, ये कतई ज़रूरी नहीं । बस ये मान लेना होता है कि सब ठीक -ठाक है फिर तनाव कुछ ही देर के लिए सही भाग तो जाता ही है । सच कहा है गुलज़ार साहब ने - दिल तो बच्चा है जी , बात -बेबात यूहीं उछला , मचला , बहका करता है । बात परेशानी की हो या न हो जब ज़िद पर आ जाये तो परेशान हुए बिना मान नहीं सकता । खुद तो उलझेगा ,साथ ही दिमाग को भी उलझा देगा । फिर हो गयी मिनटों - घंटों की नहीं , दिनों की छुट्टी । कहीं ,किसी काम में मन नहीं लगेगा , कभी न घटने वाली किसी अनहोनी की आशंका जीना मुश्किल कर देगी और हर घड़ी बस यही एहसास कचोटता रहेगा कि अपने साथ सब कुछ बुरा ही बुरा हो रहा है । और फिर वो सारा वक्त काटना इस कदर मुश्किल हो जायेगा जिसका बयान मुश्किल है । दूसरों का नहीं जानती लेकिन मेरे साथ अक्सर ऐसा हो जाता है । संवेदनशीलता और अतिसंवेदनशीलता में शायद सिर्फ एक मनोरोग का ही अंतर है जिसका शिकार कभी -कभी मैं न चाहते हुए भी हो जाती हूँ । मगर जब से ऑळ इज़ वेल का गुरुमंत्र पाया है (थैंक्स टू थ्री ईडियट्स ) तब से इस बच्चे को बहलाना सीख गयी हूँ । जहां भी , जब भी किसी गड़बड़ की आशंका हुई नहीं कि तुरंत इससे कहती हूँ - चुप हो जा बच्चे , ऑळ इज़ वेल । अब ये नहीं कह सकती कि ये बच्चा इस मन्त्र की शक्ति को कितना स्वीकारता है ( क्योंकि इसकी उछल - कूद जारी रहती है) , लेकिन इतना ज़रूर है कि इन तीन अल्फ़ाज़ ने उस यकीन को कुछ और पुख्ता कर दिया है कि सुख - दुःख दरअसल मन की ही स्थितियां हैं । ये मन जैसा चाहता है , बाहर की दुनिया , लोग, हालात वैसे ही लगने लगते है ।

1 टिप्पणी:

शरद कोकास ने कहा…

जो लोग अति संवेदन शील होते हैं उनके लिये आल इस वेल कभी नही हो सकता इसलिये कि वे दुनिया को अपनी नज़रों से देखते है किसी की दिखाई हुई दुनिया की तर्ह नही इसीलिये वे लोग सच्चे और सही इंसान होते हैं । आप ने यह महसूस किया है यह अच्छी बात है ।

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