ज़िन्दगी के लिए यूं तो न जाने कितने फ़लसफ़े लिखे-कहे,समझे - समझाए गए हैं । लेकिन जब बात खुद की हो तो हमेशा ही एक उलझन घेर कर खड़ीहो जाती है । अक्सर मैं ज़िन्दगी को अपने समानांतर चलते हुए पाती हूँ । लेकिन हैरानी की बात ये कि मेरे समानांतर चलते हुए भी ये मेरे कदम से कदम या मेरी रफ़्तार से रफ़्तार नहीं मिलाती , बल्कि आगे पीछे ,दायें - बाएं , कभी तेज़ तो कभी धीमी चाल से चलती रहती है। चाहती तो मैं पूरे मन से हूँ कि हम दोनों की चाल एक रहे लेकिन वो भी चाहे तब तो ..... । कभी दूर से मुझे जलाते हुए इशारे करती है जैसे कह रही हो , देखो मैं कितनी खुश हूँ , छू सको तो छू लो मुझे , और ये तब होता है जब मैं अपने किसी बहुत ज़रूर काम में उलझी होती हूँ । उस वक्त चाह कर भी ज़िन्दगी को छू नहीं पाती। और कभी यूं भी होता है कि मैं अपने किसी बहुत अज़ीज़ , खुशगवार लम्हे में ग़ुम होकर एक - एक कतरा ख़ुशी पीने के लिए मचल रही होती हूँ कि तभी एक उदास सदा दे कर ज़िन्दगी पुकार लेती है मुझे , तब मैं चाह कर भी वो ख़ुशी भरे लम्हे जीभर के जी नहीं पाती और ज़िन्दगी की उदासियों में मन मार कर शरीक होना पड़ता है मुझे । है न अजीब बात ...... । क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी अपनी ज़िन्दगी मेरी हमकदम हो कर चले और मैं हर लम्हा सही मायनों में जी सकूं ...... , क्योंकि सांस लेना ही तो जीना नहीं होता ....... !
माटी में बीज सा ख़ुद को बोना, बरखा सा ख़ुद ही बरसना, फिर उगना ख़ुद ही जंगली फूल सा. कांटना-छांटना-तराशना-गढ़ना ख़ुद को आसान नहीं होता. सिद्धि प्राप्त करनी होती है ख़ुद तक पहुँचने के लिए. धार के विपरीत बहना पड़ता है थकान से भरी देह उठाये तय करना पड़ता है रास्ता बिलकुल अकेले. दूसरों पर जय पाने से पहले ख़ुद को जय करना (जीतना) होता है...तब बनता है कोई "स्वयंसिद्ध" !!
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