सोमवार, 9 नवंबर 2009

तुम्हें गैरों से कब फ़ुरसत, हम अपने ग़म से कब ख़ाली ,
चलो बस हो चुका मिलना , न हम ख़ाली - न तुम ख़ाली !
बड़ी अजब सी कैफियत होती है , जब मन में कहने को बहुत कुछ हो लेकिन कहने के लिए न अल्फाज़ हों , न वक्त की मोहलत । और तो और सुनने वालो को भी सुनने की फ़ुरसत न हो । ऐसे में अचानक ही महसूस होता है जैसे सब कुछ बेकार , बेवजह , बेसबब है। ये ज़िंदगी , ये दुनिया , ये लोग , सब कुछ ... । एक शैतान अँधेरा , जाने किधर से आता है और सारे वजूद को अपनी गिरफ्त में ले लेता है । कुछ यूँ ही सी रही , मन की हालत पिछले दिनों ... । दुनियावी मसरूफियात में उलझा मशीन बना ये जिस्म और इसके भीतर किसी और ही सतह पर पता नहीं क्या खोजता , तलाशता, भटकता , छटपटाता मन ... । लेकिन शुक्र है । अंधेरे की शैतानी जब हद से बढ़ जाती है , रौशनी , किसी न किसी दरार से मेरे भीतर आने का रास्ता बना ही लेती है । तो ...... एक बार फिर मन रोशन है । मैं फिर अपनी धुन में चल पडी हूँ। पसार लिए हैं फिर से पंख , अपने आकाश में परवाज़ भरने के लिए ... !

2 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार झा ने कहा…

बहुत ही सुंदर लिखा आपने ...लिखती रहें

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Her andhere ki baad roushni aati है .......... aur roshni hi raasta dikhati है .......... bahoot achha likha है ......

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