शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

ये कविता नहीं.........!


वो एक नदी
जिसे बहुत करीब से जानती हूँ मैं...,
वो एक नदी
जिसे बहुत करीब से महसूस किया है , देखा है, छुआ है मैंने...,
वो नदी
 मेरे रास्ते में तब पडी थी, जब,
ज़िन्दगी को  देखने-समझने-जीने की चाह लिये,
अपने रास्ते खुद बनाने की ज़िद का बोझ उठाए,
सिर पर 
किसी विरासत, आश्वासन और अनुभव की छाँव का 
बन्दोबस्त किये बिना
निकली थी मैं
अपने बन्द घेरों से बाहर
बरसों पहले....!
हाँ 
तब से जानती हूँ उसे,
तब से जानती है 
वो भी मुझे...!

इस लम्बे सफ़र में कई बार
उसकी धार से भर कर अंजुरी भर उम्मीदें
खुद को फिर चलने के लिये तैयार किया है मैंने...,
कई बार पीकर 
उसकी धार से सुकून की चंद घूँट...
तल्ख हालात से सूखते अपने हलक को तर किया है मैंने...,
  
कई बार यूँ भी हुआ है कि
पहुँची हूँ उसके किनारे पर
चुप-चाप, सवालों का बोझ  लिये
और फिर 
सारा बोझ वहीं छोड- उतार,
  लौटी हूँ हल्की होकर 
वापस
अपने आकाश में उडान भरने को तैयार...,
यूँ ही जारी रहा है बरसों से हमारा मिलना......,
उसका.... , अपनी की धार के साथ बहते चले जाना 
और
मेरा.... , हर उडान के बाद थक कर उसके किनारे पर
इसी उम्मीद में आना
कि
थकान के बाद उभरने वाली प्यास को
एक नदी से बेहतर कौन समझेगा ?


लेकिन अब 
कुछ अरसे से 
बातें-मुलाकातें
जाने  क्यों नहीं रही वो पुरानी जैसी,
कुछ घट सी रही है नदी और उसका पाट...,
जाकर उसके कूल-किनारों पर भी
नही भीग पाता
मन-ज़ेहन पहले की तरह,

बदल से लिये  हैं उस नदी की धार ने रास्ते...
अंजुरी भर लेने की कोशिश में 
झुकती तो हूँ लेकिन पानी में अक्स भी नही दिख पाता 
पहले की तरह....
सचमुच घट  रही है नदी....
सिर्फ़ मेरे लिये या.........
कह नहीं सकती....,

सुना है
बदलते वक्त और मौसम के साथ बदल जाता है बहुत कुछ,
बनते-बिगडते हैं कई समीकरण,
घटते-बढते है कई विश्वास ,
टूटते-बनते हैं कई आधार ,
लेकिन 
प्यास और पानी का रिश्ता कभी नही बदलता,

इसी कहन पर यकीन रख कर अब भी लौटती हूँ उस नदी के पास ,
बार-बार, लगातार,
थामे ये उम्मीद कि
कभी-कभी 
तेज़ धूप के मौसम में जब जल भाप बन कर उड जाता है 
तो घट जाते हैं  नदी के पाट,
मगर
फिर जब वही भाप बादल बन कर बरसने का मौसम लौटता है 
तो वापस अपने कुदरती वेग के साथ 
हहराने लगती हैं नदियाँ,
बह निकलती हैं रुकी धारें 
दौडती-मचलती
और बुझा जाती हैं बरसों से जोडी हुई...
सारी की सारी प्यास 

 अभी धूप तेज़ है तो...,
इसके बाद शायद
बारिश हो और भर जाए मेरी नदी भी
पूरी की पूरी
पहले की तरह,
मै फिर से ज़रा झुक कर देख पाऊँ अक्स अपना...,
भर सकूँ अपनी अंजुरी,
महसूस कर सकूँ उसके कूल-किनारों पर पहुँच कर
नमी पहले जैसी...
आज इसी उम्मीद की डोर थामे फिर लौटना है उसी नदी के किनारे 
जिसे
जिसे बहुत करीब से जानती हूँ मैं...,
जिसे बहुत करीब से महसूस किया है , देखा है, छुआ है मैंने...,
                                                             जिसे जानती हूँ  बरसों से ..... !

3 टिप्‍पणियां:

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बिलकुल सच कहा है आपने कि "प्यास और पानी का रिश्ता कभी नही बदलता"

पूरी कविता दिल को छू लेने वाली और भावविह्वल कर देने वाली है.

सादर
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मैं नेता हूँ

Kalpana ने कहा…

पहले शब्द से आखिर तक पहुंचते-पहुंचते मैं भी सराबोर हो गई...बडी जानी-पहचानी सी...बहुत ही करीब...बहुत अपनी सी लगी ये नदी....फ़िर याद आया ये तो वही नदी है... शाश्वत सनातन...बरसों से बिना किसी उम्मीद ..बिना किसी चाह के यूं ही अनवरत बहती हुई... अपने किनारों पर खडे हर प्यासे की प्यास बुझाती... हर राही की थकान उतारती...तो फ़िर अगर घट रही है उसकी धार,नही भींग पाता उसके किनारिं पर मन-जेहन, तो उसकी इस असमर्थता का दोशी कौन है..नदी??? या फ़िर.......

Unknown ने कहा…

बदलते वक्त और मौसम के साथ बदल जाता है बहुत कुछ,
बनते-बिगडते हैं कई समीकरण,
घटते-बढते है कई विश्वास ,
टूटते-बनते हैं कई आधार ,
लेकिन
प्यास और पानी का रिश्ता कभी नही बदलता....

बहुत खूब कहा आपने,पूरी रचना में उपरोक्त पंक्तियां दिल को गहरे तक छू गईं.यह रचना आपकी एक सार्थक अभिव्यक्ति है,जो भावविह्वल कर देने वाली है.

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