ऐ हादसे,
सोचा तो था कि तुम्हें बयाँ करना है लफ़्ज़ ब लफ़्ज़........,
बिखेर देनी हैं अपने अल्फ़ाज़ के ज़रिये तुम्हारी धज्जियाँ , ठीक वैसे ही, जैसे तुमने अपने अचानक आघात से बिखेर दिया है बहुत कुछ......., सराबोर कर डालना है तुम्हें उसी सियाही से, जिससे तुमने एकाएक ही बिगाड डाले हैं जाने कितने रंग.......,
डुबो देना है तुम्हें भी आँसुओं के उसी सैलाब में, जो तुमने बिना किसी संवेदना के ला दिया है कई ज़िन्दगियों में.....,
सोचा तो था कि तुम्हें बयाँ करना है लफ़्ज़ ब लफ़्ज़........,
बिखेर देनी हैं अपने अल्फ़ाज़ के ज़रिये तुम्हारी धज्जियाँ , ठीक वैसे ही, जैसे तुमने अपने अचानक आघात से बिखेर दिया है बहुत कुछ......., सराबोर कर डालना है तुम्हें उसी सियाही से, जिससे तुमने एकाएक ही बिगाड डाले हैं जाने कितने रंग.......,
डुबो देना है तुम्हें भी आँसुओं के उसी सैलाब में, जो तुमने बिना किसी संवेदना के ला दिया है कई ज़िन्दगियों में.....,
सोचा तो था कि कोसना है तुम्हें जी भर....,
धिक्कारना है तुम्हें सामर्थ्य भर....,
नेस्तनाबूद कर डालना है तुम्हारे हो जाने की सच्चाई को....,
मिटा डालनी हैं वो सारी तहरीरें,जो चीख-चीख कर दे रही हैं खबर तुम्हारे घट चुकने की.... ,
धिक्कारना है तुम्हें सामर्थ्य भर....,
नेस्तनाबूद कर डालना है तुम्हारे हो जाने की सच्चाई को....,
मिटा डालनी हैं वो सारी तहरीरें,जो चीख-चीख कर दे रही हैं खबर तुम्हारे घट चुकने की.... ,
सोचा तो बहुत था कि लेकर अपनी मूक अभिव्यक्ति का सहारा, उँडेल दूँगी अपने भीतर अनायास ही भर गये दुख को खुद से कहीं दूर.......,
पा जाउँगी निजात उस अवसाद से जो अपने ही में अचानक सिमटा चला आ रहा है मेरे आस-पास ....,
पा जाउँगी निजात उस अवसाद से जो अपने ही में अचानक सिमटा चला आ रहा है मेरे आस-पास ....,
कि अपनी अभिव्यक्ति की ताकत पर बहुत नाज़ था मुझे....,
लेकिन अब जब लिखने बैठी हूँ तो जाना है कि ......,
नहीं......., कुछ भी नहीं लिख सकूँगी मैं ...!
भावों ने मान ली है हार..., शब्दों ने खडे कर दिये हैं हाथ.......,
भावों ने मान ली है हार..., शब्दों ने खडे कर दिये हैं हाथ.......,
और सारे अर्थ..., वो तो मानों कहीं जा दुबके हैं, कहीं दूर किसी अँधेरे कोने में अपना मुँह छिपाए........,
और मानना ही पड रहा है मुझे कि नहीं.., कुछ नहीं लिख पाउँगी मैं.....,
नही बदल पाउँगी तुम्हारे घट जाने को....,
अब रहना ही होगा हमें - हम सबको इस क्रूर सच्चाई के साथ कि तुम घट ही गये हो असमय, अचानक,अप्रत्याशित....,
और हतप्रभ हूँ मैं
क्योंकि ये जानना भी तुमसे कम हादसा नहीं
कि कुछ हादसों की शिद्दत हर अभिव्यक्ति से गहरी होती है
और कुछ ज़ख्म किसी भी सूरत कभी भरे नहीं जा सकते...!
क्योंकि ये जानना भी तुमसे कम हादसा नहीं
कि कुछ हादसों की शिद्दत हर अभिव्यक्ति से गहरी होती है
और कुछ ज़ख्म किसी भी सूरत कभी भरे नहीं जा सकते...!
5 टिप्पणियां:
"क्योंकि ये जानना भी तुमसे कम हादसा नहीं
कि कुछ हादसों की शिद्दत हर अभिव्यक्ति से गहरी होती है ..."
एक अलग ही अंदाज़ में मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति!
सादर
बहुत बढ़िया रचना
sparkindians.blogspot.com
श्री चित्रगुप्त पूजन और भाई दूज की शुभ कामनाएं!
सादर
हादसो की शक्ल होती है,सुपारी किलर जैसी.
क्रूर काल के हाथो बिके सुपारी किलर जैसी
मनाही है जिसे यह सोचने की ,कि उसका निशाना कौन है
नही सोचना है,कि कितना ज़रूरी है
उसका होना ,उसके अपनो के लिये .
तबाही अन्जाम देने के बाद ,सोचता भी हो शायद,
चीखे-कराहे सुन कर जाग जाता हो नीन्द से
सहम जाता हो किसी बच्चे की तरह,
जिसने ऐसी गलती कर दी हो , जो अब कभी सुधर नही सकती.
हादसों की तो फ़ितरत ही है बिना कुछ सोचे-समझे कभी भी...कहीं भी...कैसे भी...घट जाना...कब सोचा है इसने अपने घट जाने के बाद की भयावहता के बारे में?...क्रूर...संवेदनहीन...ये हादसे घट जाने के बाद ...दूर खडे तमाशबीन से देखते रहते हैं उसके घट जाने से मची तबाही के भयावह मंजर...ओर उससे उपजी.... बेबसी..लाचारी में लिपटी दर्दनाक संवेदनाओं को.....
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