मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मन खामोश है , कहीं कोई आवाज़ नहीं ... फिर भी कुछ है जो बयाँ होना चाहता है-




                              मेरे साथ रहता था साया हमेशा 
मगर इन दिनों हम अलग हो गए हैं .
उसे ये शिकायत थी मुझसे  
कि उसको मिटाने की खातिर ही मैं यूं 
अंधेरों में चलता हूँ ,
ताकि वो मेरा तआकुब न कर पाए ,
लेकिन 
मुझे ये शिकायत थी , 
मैं रौशनी में अकेला भी चल सकता था ...,
अँधेरे में जिस वक्त मुझको ज़रूरत थी अहबाब की ,
वो गायब था , उसका निशाँ भी नहीं था ,
 
मेरे साथ रहता था साया मेरा ,
शरीक -ए - हयात और साथी मेरा ,
मगर 
इन दिनों हम अलग हो गए हैं !!!


एक बार फिर शुक्रिया (हमेशा की तरह) गुलज़ार साहब के अल्फाज़ का ...,
मेरे खामोश ज़ेहन को ज़ुबां देने के लिए ! 
 

1 टिप्पणी:

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

गुलज़ार साहब की बात ही कुछ और है...उनकी इस रचना को साझा करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.

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