इन दिनों मैं बहुत परेशान हूँ । दिन भर के काम की थकान के बाद जिन चीज़ों से मन बहलाती थी उनका बड़ा बुरा हाल हो गया है । सबके चेहरे बदल गए हैं , नाम गुम गए हैं। सब अपना रास्ता ही भूल गए हैं । मैं बात कर रही हूँ किसी समय में अपने फेवरेट (?) रहे उन धारावाहिकों की , जिन्हें देखना तो दूर सोचने भर से दिमाग हिलने सा लगता है । वो तब की बात थी और ये अब की बात है । तकरीबन दो साल हुए होगें , सास बहु के अझेल हो चुके प्रपंच रुपी धारावाहिकों की भीड़ में ठंडी पुरवाई सी आई थी हमारी आनंदी, बालिका - वधु। शाये-शाये के भयानक इफेक्ट्स और भयावह साजिशों के जाल में उलझे मन ने ईश्वर का लाख धन्यवाद दिया था कि कम से कम अब प्राइम टाइम के हारर से छुटकारा मिलेगा और शांत मन से मनोरंजन हो सकेगा । साथ ही साथ दिल ने लाख - लाख दुआएं दी थी उस भले मानस को , जिसने टी आर पी के अंधे शोर के बीच बाल विवाह जैसे अति संवेदनशील मुद्दे पर धारावाहिक बनाने का जोखिम भरा साहस दिखाया। बात में दम था । छोटी सी आनंदी ने रातों रात साजिशों का व्यूह भेदन करते हुए न सिर्फ सिर दर्द बन गयी बड़ी बहुओं को बाहर का रास्ता दिखाया बल्कि मनोरंजन के साथ शिक्षा और जागरूकता का संगम कर टेलीविज़न की दुनिया में क्रांति ला दी । आनंदी की नन्ही , मासूम अदाओं पर दिल फ़िदा हुआ और तभी इच्छा और तपस्या नाम की दो मासूम कलियों ने उतरन के ज़रिये मन मोह लिया । गरीबी - अमीरी की दीवार तोड़ते हुए निःस्वार्थ दोस्ती निभाती ये दो बच्चियां हरदिलअज़ीज़ बन गयी । कम से कम मैं तो इन तीनों बच्चियों की दीवानी रही ही । समय बीतता रहा जीवन के साथ धारावाहिक की कहानी भी आगे बढती रही । कभी - कभी मन सशंकित होता ज़रूर कि कही टी आर पी की आग में ये तीनों भी झुलस न जाये । फिर लगता .... अरे नहीं , इतने सधे हुए गंभीर विषय के भटकने की गुंजाइश ही कहाँ होगी ? लेकिन जय हो , उनकी जो बाज़ार की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं (या जानने का मुगालता पाले हुए हैं)। देखते ही देखते इन दोनों धारावाहिकों की शक्ल ऐसी बदली कि अब तो पूरी डरावनी की श्रेणी में आ गए हैं । जिस स्टोरी लाइन को लेकर बात शुरू हुयी थी वो स्टोरी कहाँ गयी , ये एक बड़ा रहस्य है । बाल विवाह की सारी समस्याएं खानदानी दुश्मनी ,अविश्वसनीय चमत्कारनुमा घटनाक्रम और महाबोरिंग रोने - धोने में ऐसी खोयीं कि देखने वाले सिर धुनते रह गए। हर एपिसोड के अंत में आने वाला ब्रम्ह वचन भी असर छोड़ कर ऊटपटांग की श्रेणी में जा पहुंचा । मोरल ऑफ़ द स्टोरी ये रहा कि आप आराम से छोटी बच्चियों के विवाह कीजिये , हम उम्र से या दुगनी उम्र वाले से , कुछ समय बाद खानदानी दुश्मनी की खुरपेंच में फंसने और एक दो बच्चे पैदा करने के बाद सब की सब लाइन पर आ जायेगीं और आप आराम से कह सकेगें 'आल इज वेल '। दूसरी तरफ का हाल भी कुछ ज्यादा अलग नहीं । अगर आप अमीरी - गरीबी की सीमाएं तोड़ कर दोस्ती हो जाने के फलसफे में यकीन करते हैं तो उतरन देखिये और अपने मुगालते से बाहर आईये । अगर आप गरीब है और अपनी औकात भूल कर पैसे वाले से दोस्ती करना चाहते हैं तो याद रखिये , कुछ सालों बाद आपका वही अज़ीज़ दोस्त अपनी साजिशों से आपका वो बुरा हाल करेगा कि आप दोस्ती क्या अपना नाम भी भूल जायेगें , बिलकुल इच्छा की तरह । इन दोनों सीरियल्स का जो कबाड़ा खुद इनके ही निर्माता - निर्देशक -लेखक द्वारा किया गया है , उसे देख कर रोना भी नहीं आ पाता। शायद ये सब बेचारे सिरे से भूल गए हैं कि उन्होंने अपना धारावाहिक किस कहानी को लेकर शुरू किया था और उस कहानी का मकसद क्या था ।या फिर शायद इन्हें अपने दर्शकों की बेवकूफी पर पूरा भरोसा है और ये सोचते हैं कि इनकी हर बेसिरपैर की प्रस्तुति पर हम दर्शक इनकी प्रशंसा के लिए बाध्य हैं । मैं किसी भी तरह विशेष कर इन दोनों धारावाहिकों के (क्योकि दुर्भाग्य से मैं इन्हें देखती हूँ ) नीति निर्माताओं तक अपनी ये गुहार पहुँचाना चाहती हूँ कि कृपा कर दर्शकों पर ये इमोशनल अत्याचार करना बंद करें । कहानी अगर आगे नहीं बढ सकती तो भगवान के लिए उसे ख़त्म कर दें , खींच - खींच कर हमारा बीपी न बढाए। हमारे दिमाग का दही करने के लिए ज़िन्दगी में और भी ढेरों दूसरे साधन (!) मौजूद हैं , आप कृपया कष्ट न उठायें । अभी जब आनंदी माथे के बीचों बीच गोली खा कर मरने के बजाये कोमा में चली गयी तो सच मानिये हम बहुत हँसे (क्या करें , रोना तो चाह कर भी नहीं आया) और खुद से शर्त भी लगा ली कि ये बच जाएगी और शर्त जीत भी गए , लेकिन सच मानिये मज़ा नहीं आया। अरे, बचाना ही था तो गोली हाथ - पाँव कही भी मरवा देते ।, सीधे दिमाग को निशाना लगाने की क्या ज़रुरत थी । कहीं ऐसा तो नहीं कि आनंदी के बहाने आप दर्शकों का दिमाग ब्लास्ट करना चाहते हैं । लेकिन अब ऐसा होना कुछ मुश्किल है । वो दिन हवा हुए जब मिहिर के मरने और तुलसी के जेल जाने पर हमारे साथ पूरा देश रोया करता था । अब हमें बेवक़ूफ़ बनाना उतना आसान नहीं रहा । अब हम थोड़े समझदार हो गएँ हैं ,इसीलिए ये गुज़ारिश कर रहें हैं कि ये इमोशनल अत्याचार बंद नहीं हुआ तो हम सीरियल्स देखना ही बंद कर देगें ।
माटी में बीज सा ख़ुद को बोना, बरखा सा ख़ुद ही बरसना, फिर उगना ख़ुद ही जंगली फूल सा. कांटना-छांटना-तराशना-गढ़ना ख़ुद को आसान नहीं होता. सिद्धि प्राप्त करनी होती है ख़ुद तक पहुँचने के लिए. धार के विपरीत बहना पड़ता है थकान से भरी देह उठाये तय करना पड़ता है रास्ता बिलकुल अकेले. दूसरों पर जय पाने से पहले ख़ुद को जय करना (जीतना) होता है...तब बनता है कोई "स्वयंसिद्ध" !!
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1 टिप्पणी:
हमने तो सीरियल्स देखने कबके बन्द कर दिये है ... तबसे सुखी हैं ।
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