अब भी अच्छी तरह याद हैं बचपन के वो दिन । कोमल सपनों के मन की डाल पर फरने के दिन । सब कुछ कितना सुन्दर था । वो हर रिश्ता, हर नाम , हर चीज़ , जो मन के पास थी , आस-पास थी , मानों ज़िन्दगी का ही हिस्सा थी । जैसे उनके ही दम पर जीवन चल रहा हो । उनके बगैर भी जीवन है ये सोचना भी असंभव था । उनमें से ही एक था मोहल्ले का डाकिया और उसकी लाई हुयी चिट्ठियाँ । इंतज़ार के वो भी क्या हसीं पल थे । नानी की , मासी की ,सबसे बढ कर दोस्तों की चिट्ठियाँ , जो रहते तो अपने ही शहर में थे लेकिन उनसे भी बात करने लिए नीले अंतर्देशीय और पीले पोस्टकार्ड का सहारा लेना बेहद आत्मीय और सहज लगता था । अब की तरह घंटों मोबाइल से चिपके रहने का तो सवाल ही नहीं था ,क्योंकि मोबाइल ही नहीं था । तब स्कूल से लौट कर माँ से पूछना - '' कोई चिट्ठी आई क्या ?'' और जवाब में ' नहीं ' मिलने पर धूप वाली खड़ी दोपहरी में दरवाज़े पर जा कर डाकिये की राह देखना .... , क्या आनंद था उसमें , ये व्यक्त करना शब्दों के बस का नहीं । चिट्ठी में क्या लिखा है , उसका सुख तो पढ़ कर मिलता , लेकिन लिफाफे को छूने का सुख उससे कहीं बढ कर होता , मानों लिखने वाले के हाथ की खुशबू सीधे हम तक आ पंहुची हो । कॉलेज तक ये सिलसिला चलता रहा । फिर मानों समय ने अपनी जादुई झाड़ू फेरी हो , सालों कैसे बीत गए ,पता ही नहीं चला । सब कुछ बदलता रहा और पिछले पांच - छः सालों में तो इस बदलाव की गति कुछ ज्यादा ही तेज़ हो गयी । इस गति के बहाव में सबके साथ हम भी बहे इसलिए कुछ बदलता सा महसूस नहीं हुआ , लेकिन कल अचानक बहुत दिनों बाद मोबाइल पर विविध भारती सुन रही थी । फरमाईशी गानों का कार्यक्रम चल रहा था और फरमाईशें थीं एस ० एम० एस ० के ज़रिये । बेशक अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप विविध - भारती पर बज रहे गाने बहुत कर्णप्रिय थे लेकिन मेरे मन की किसी सतह पर कहीं और कुछ और ही याद बज रही थी । याद आ रहे थे आकाशवाणी के वो दिन , फरमाईशी प्रोग्राम के लिए आने वाली चिट्ठियों के वो ढेर के ढेर और हमारा घंटों वो पत्र छांटना ... । एक ही श्रोता परिवार के बीसियों पोस्टकार्ड देखना और कहना - '' हे भगवान ! कैसे दीवाने लोग हैं ? पता नहीं इतना टाइम कैसे निकाल लेते हैं ? '' और सच कहूं फरमाईशों के एस ० एम ० एस ० के बीच मुझे अचानक ही वो दीवाने लोग बेहद याद आने लगे । ... तो विविध - भारती से भी चिट्ठियाँ गयी ? हम तो पहले ही आधुनिकता की दुहाई दे कर एक क्लिक पर बात कह डालना सीख चुके थे । अब कोई दीवानगी में डूब कर किसी को पाती पर पाती नहीं भेजा करेगा । किसी के पास समय नहीं। न लिखने का, न पढने का । शार्ट मैसेजेज़ और मेल्स का ज़माना है और यही शायद अब हमारी ज़रुरत भी । वैसे तो इस पूरे किस्से में बदलने वालों में हमारा भी नाम आता है लेकिन जाने क्यों मन में हूक सी उठी । कार्यक्रम के स्वरुप में ये बदलाव निश्चित रूप समय के साथ कदम से कदम मिलाने के लिए किया गया है लेकिन ये बदलाव मन को सोचने पर मजबूर कर गया । अब क्या सचमुच गुम जाएगी पाती ? और शायद साथ ही साथ गुम जायेगे पाती लिखने वाले और पाती पा कर उसमें लिखने वाले किसी अपने के हाथों की खुशबू खोजने वाले दीवाने लोग ... !
माटी में बीज सा ख़ुद को बोना, बरखा सा ख़ुद ही बरसना, फिर उगना ख़ुद ही जंगली फूल सा. कांटना-छांटना-तराशना-गढ़ना ख़ुद को आसान नहीं होता. सिद्धि प्राप्त करनी होती है ख़ुद तक पहुँचने के लिए. धार के विपरीत बहना पड़ता है थकान से भरी देह उठाये तय करना पड़ता है रास्ता बिलकुल अकेले. दूसरों पर जय पाने से पहले ख़ुद को जय करना (जीतना) होता है...तब बनता है कोई "स्वयंसिद्ध" !!
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