मन खामोश है , कहीं कोई आवाज़ नहीं ... फिर भी कुछ है जो बयाँ होना चाहता है-
माटी में बीज सा ख़ुद को बोना, बरखा सा ख़ुद ही बरसना, फिर उगना ख़ुद ही जंगली फूल सा. कांटना-छांटना-तराशना-गढ़ना ख़ुद को आसान नहीं होता. सिद्धि प्राप्त करनी होती है ख़ुद तक पहुँचने के लिए. धार के विपरीत बहना पड़ता है थकान से भरी देह उठाये तय करना पड़ता है रास्ता बिलकुल अकेले. दूसरों पर जय पाने से पहले ख़ुद को जय करना (जीतना) होता है...तब बनता है कोई "स्वयंसिद्ध" !!
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
शनिवार, 6 नवंबर 2010
ऐ हादसे,
सोचा तो था कि तुम्हें बयाँ करना है लफ़्ज़ ब लफ़्ज़........,
बिखेर देनी हैं अपने अल्फ़ाज़ के ज़रिये तुम्हारी धज्जियाँ , ठीक वैसे ही, जैसे तुमने अपने अचानक आघात से बिखेर दिया है बहुत कुछ......., सराबोर कर डालना है तुम्हें उसी सियाही से, जिससे तुमने एकाएक ही बिगाड डाले हैं जाने कितने रंग.......,
डुबो देना है तुम्हें भी आँसुओं के उसी सैलाब में, जो तुमने बिना किसी संवेदना के ला दिया है कई ज़िन्दगियों में.....,
सोचा तो था कि तुम्हें बयाँ करना है लफ़्ज़ ब लफ़्ज़........,
बिखेर देनी हैं अपने अल्फ़ाज़ के ज़रिये तुम्हारी धज्जियाँ , ठीक वैसे ही, जैसे तुमने अपने अचानक आघात से बिखेर दिया है बहुत कुछ......., सराबोर कर डालना है तुम्हें उसी सियाही से, जिससे तुमने एकाएक ही बिगाड डाले हैं जाने कितने रंग.......,
डुबो देना है तुम्हें भी आँसुओं के उसी सैलाब में, जो तुमने बिना किसी संवेदना के ला दिया है कई ज़िन्दगियों में.....,
सोचा तो था कि कोसना है तुम्हें जी भर....,
धिक्कारना है तुम्हें सामर्थ्य भर....,
नेस्तनाबूद कर डालना है तुम्हारे हो जाने की सच्चाई को....,
मिटा डालनी हैं वो सारी तहरीरें,जो चीख-चीख कर दे रही हैं खबर तुम्हारे घट चुकने की.... ,
धिक्कारना है तुम्हें सामर्थ्य भर....,
नेस्तनाबूद कर डालना है तुम्हारे हो जाने की सच्चाई को....,
मिटा डालनी हैं वो सारी तहरीरें,जो चीख-चीख कर दे रही हैं खबर तुम्हारे घट चुकने की.... ,
सोचा तो बहुत था कि लेकर अपनी मूक अभिव्यक्ति का सहारा, उँडेल दूँगी अपने भीतर अनायास ही भर गये दुख को खुद से कहीं दूर.......,
पा जाउँगी निजात उस अवसाद से जो अपने ही में अचानक सिमटा चला आ रहा है मेरे आस-पास ....,
पा जाउँगी निजात उस अवसाद से जो अपने ही में अचानक सिमटा चला आ रहा है मेरे आस-पास ....,
कि अपनी अभिव्यक्ति की ताकत पर बहुत नाज़ था मुझे....,
लेकिन अब जब लिखने बैठी हूँ तो जाना है कि ......,
नहीं......., कुछ भी नहीं लिख सकूँगी मैं ...!
भावों ने मान ली है हार..., शब्दों ने खडे कर दिये हैं हाथ.......,
भावों ने मान ली है हार..., शब्दों ने खडे कर दिये हैं हाथ.......,
और सारे अर्थ..., वो तो मानों कहीं जा दुबके हैं, कहीं दूर किसी अँधेरे कोने में अपना मुँह छिपाए........,
और मानना ही पड रहा है मुझे कि नहीं.., कुछ नहीं लिख पाउँगी मैं.....,
नही बदल पाउँगी तुम्हारे घट जाने को....,
अब रहना ही होगा हमें - हम सबको इस क्रूर सच्चाई के साथ कि तुम घट ही गये हो असमय, अचानक,अप्रत्याशित....,
और हतप्रभ हूँ मैं
क्योंकि ये जानना भी तुमसे कम हादसा नहीं
कि कुछ हादसों की शिद्दत हर अभिव्यक्ति से गहरी होती है
और कुछ ज़ख्म किसी भी सूरत कभी भरे नहीं जा सकते...!
क्योंकि ये जानना भी तुमसे कम हादसा नहीं
कि कुछ हादसों की शिद्दत हर अभिव्यक्ति से गहरी होती है
और कुछ ज़ख्म किसी भी सूरत कभी भरे नहीं जा सकते...!
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
दीये की आदत...
दीये की कुछ आदत ही ऐसी है कि वो खुशियाँ अकेले नहीं मनाता..., जलता है तो उजियार का उपहार सबको बाँटता ज़रूर है. कम हो या ज़्यादा... प्रकाशित होने का सुख सबसे साझा करता है. एक हो या अनेक, दीये की उपस्थिति को नकारना संभव नहीं, क्योंकि दीया अपने होने को किसी से छिपा कर नहीं रखता, न ही अपने आलोक का धन अपनी ही मुठ्ठी में दबा कर रखता है. इसीलिये तो सूर्य की निर्विवाद और निरंतर उपस्थिति के बावजूद दीये की महत्ता आज भी अपनी जगह अटल स्थापित है.
इसी नन्हे, क्षणभंगुर, नश्वर, परन्तु एक सतत, शाश्वत, अनश्वर प्रकाश को अपने भीतर समाए, हमें हर तिमिर से लडने की शक्ति और विश्वास देते दीये के प्रति आभार प्रकट करने का पर्व है दीपावली. आकाश में सूरज-चाँद-सितारों और ज़मीन पर बनावटी-नकली रोशनी बिखेरती बिजली की लडियों के बावजूद अपनी सादगी, सौम्यता और सात्विकता से सत से असत एवं तम से ज्योति की ओर जाने का संदेश देते दीये से कुछ सीखने का पर्व है दीपावली.
मेरे सभी अपनों को इस शुभ प्रकाश पर्व की असीम शुभ कामनाएं !!!
शुभ दीपावली
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