जैसे बारिश के बाद आसमान साफ़ हो जाता है ठीक उसी तरह रश्मि के दिमाग में सारी
बातें साफ़ हो चुकी हैं लेकिन इस बेमौसम बारिश ने मन से आँख तक जिस कदर जल-जमाव कर
दिया है कि उससे उबरने की कोई गुंजाइश फ़िलहाल नहीं दिखती. रसोई में सुमन को
जल्दी-जल्दी काम निपटाने का निर्देश दे दिया है लेकिन ख़ुद उसके दिमाग को एक ही बात
पिछले कई रोज़ से धीमे-धीमे मथ रही है. सिरदर्द फिर शुरू हो चुका है. चाय की प्याली
लेकर कुछ पल के लिए बालकनी में टिक जाना भी आज राहत नहीं दे रहा.
रत्नेश ने आज सुबह ही बताया. परसों
शनिवार को दिन दो बजे की फ़्लाइट है. अमिय को फाइनली चले जाना है. घर से दूर,
उससे दूर. दिक्कत यह है कि रश्मि अभी
तक यह बात स्वीकार नहीं कर पाई है. अभी तो उसने अमिय के बिना अकेले रहने की कोई
तैयारी भी नहीं की है, फ़ैसले का तो सवाल ही नहीं उठता. इतना बड़ा फ़ैसला रत्नेश ने
उसकी मर्ज़ी के बिना लिया है और रश्मि ख़ुद को ठगे जाने की शिकायत भी नहीं कर पा रही
क्योंकि रत्नेश के ही शब्दों में “ये
अमिय की बेहतरी के लिए ही है यार. तुम एक ज़िम्मेदार माँ हो कर नहीं समझोगी तो कैसे
चलेगा ?”
उसकी इस दलील ने रश्मि को हमेशा की तरह चुप करा
दिया. वो कह नहीं पाई कि ‘एक ज़िम्मेदार माँ’ होना सिद्ध करने के लिए ये कीमत होती
है क्या ? वो हमेशा की तरह ये भी नहीं पूछ पाई कि इसकी, उसकी, हर किसी की बेहतरी
के लिए सारे फ़ैसले करने का अधिकार हमेशा रत्नेश के पास ही क्यों रहता है ?
वो
भी तो कुछ है. उसका भी तो कोई वजूद है, कोई राय है. किसी की भी बेहतरी के लिए
सोच पाना उससे नहीं हो पायेगा, ऐसा क्यों लगता है रत्नेश को ?
घड़ी पर निगाह जाती है सात बस बजने ही
वाले हैं. कुछ ही देर में रत्नेश आयेंगे अमिय को लेकर. ढेर सारे सामानों और
गिफ्ट्स से उसे लादे हुए. यही तय हुआ है. हॉस्टल जाने की बात पर बुरी तरह अपसेट
हुए अमिय को शीशे में उतारने के लिए रत्नेश ने वही तरीका आजमाया था जिसके लिए वो
दुनिया भर में जाने जाते रहे हैं.
“तुम समझती नहीं हो रश्मि. काम अपने
मुताबिक करवाना हो तो ये सब करना पड़ता है.”
किसी भी ख़ास मौके पर अफ़सरों और
ठेकेदारों के घर गाड़ी भर-भर तोहफ़े पहुँचाते रत्नेश को टोकने पर यही उत्तर हमेशा
हाज़िर रहता है. उनका हमेशा से ये गहरा विश्वास रहा है कि बिना घूस और उपहार दिए
कोई काम नहीं करवाया जा सकता. बाहरी दुनिया में इस विश्वास की वजह वो समझ सकती है
लेकिन जब रत्नेश यही फ़लसफ़ा अपने निजी रिश्तों पर लागू करते हैं तो रश्मि का मन
कड़ुआहट से भर जाता है. जीवन में भावना, संवेदना, प्यार, स्नेह,
अपनेपन
की जगह को बाज़ार से ख़रीदे गए कीमती तोहफ़ों से कैसे भरा जा सकता है ? यह बात वो कभी नहीं समझ पाती. बस देखती
रहती है, जीवन की हर तिक्तता-रिक्तता को अवसरानुकूल छोटे-बड़े तोहफ़ों से पाटते,
पोंछते, संवारते रत्नेश को.
शादी के बाद पहली, दूसरी,
तीसरी
सालगिरहें बीतीं. कभी रत्नेश उस पार्टी में शामिल नहीं हुए जिसे वो ख़ुद ही प्लान और अरेंज करते थे. एक बार पहुँचे भी तो
सबके वापस जाने के वक्त तक. रत्नेश की व्यस्तता और उससे भी कहीं ज़्यादा उनके
स्वभाव से रश्मि ज्यों-ज्यों वाकिफ़ होती गयी, त्यों-त्यों
उसने विरोध भी शुरू किया.
“ क्या ज़रूरत है इस सब की. चलिए साथ-साथ
मंदिर हो लेते हैं बस. भगवान का आशीर्वाद ही तो ज़रुरी है. ”
“”कैसी बात करती हो यार. आफ्टर ऑल मेरे
फ्रेंड्स ,कलिग्ज़, और ऑफिस वालों को तो पार्टी देनी ही होगी. उनके
हर फंक्शन में नहीं जाते हम ?”
रत्नेश सामाजिक आदान-प्रदान और दायित्वों
की पूर्ति को सबसे ऊपर रखते थे. ये बात और कि इन सबके बीच रश्मि की सिर्फ़ रत्नेश
के साथ मंदिर जाकर माथा टेकने की इच्छा हमेशा अधूरी ही रह गयी क्योंकि रत्नेश के
मुताबिक ये तो कभी भी किया जा सकता था. जो कभी भी किया जा सकता था वही पिछले
पन्द्रह सालों में कभी नहीं किया गया.
रश्मि बालकनी से किचन की ओर लौटते हुए
रत्नेश को फोन लगाया “कब तक आ रहे हैं आप लोग ?”
“मम्मा बस आ रहे...” रत्नेश ड्राइव कर
रहे थे. फोन अमिय ने उठाया था. उसने चहकती हुई आवाज़ में बताया कि अभी वो रिबोक के
शो रूम जा रहे हैं उसके बाद घर. साथ ही साथ अपनी वाली स्पेशल चीज़ मैक्रोनी बनाने
की फ़रमाइश भी कर दी. अमिय की स्पेशल का मतलब होता है माँ के हाथ की बनी मैक्रोनी.
सुमन कितना भी अच्छा पका दे उसे नहीं भाता. सौ शिकायतों की लिस्ट तैयार रहती है. बचपन
से उसकी यही आदत है. चाहे कुछ भी हो खाना उसे रश्मि का बनाया ही चाहिए और कभी
ज़्यादा मूड हो तो हाथ से खिलाने की फ़रमाइश भी अलग से.
अब क्या होगा ? कैसे रहेगा वो हॉस्टल
में ? कैसे खायेगा माँ के हाथ का खाना बिना शिकायत के ? रश्मि के पेट में मरोड़ सी
उठी.
रत्नेश से कहा था तो उनका जवाब था “रश्मि ये कुछ ज़्यादा ही नहीं हो गया ? कम
ऑन यार. कोई ममाज़ ब्वाय थोड़े ही बनाना है उसे. हॉस्टल में बच्चे जाते ही इसलिए हैं
कि अकेले मैनेज करना सीख पायें. धीरे-धीरे वो भी सब सीख लेगा. मैंने भी सीखा था.
क्लास नाइन्थ में हॉस्टल में गया. एक साल होम सिकनेस रही फिर सब ठीक हो गया. एक
स्ट्रांग और सेल्फ़ इंडिपेंडेंट जेंटलमैन बन कर निकला.”
“लेकिन अमिय अभी क्लास फाइव में है.
बहुत छोटा है. मेरे बगैर रहने की आदत नहीं है उसे......और मुझे भी उसके बगैर.”
रश्मि ने आख़िरी बात बहुत धीरे से कही थी, शायद मन में ही. रत्नेश सुन नहीं सके थे.
सुनकर भी फ़र्क नहीं पड़ना था.
“हॉस्टल के लिए निकलने का मतलब होता है
बच्चे का अपना ‘नीड़’ अपना ‘घोंसला’ छोड़ कर उड़ जाना...फिर वो वापस नहीं लौटते. उसे
कुछ दिन और हमारे साथ रहना चाहिए. अमिय को अभी कुछ और साल घर के प्यार-दुलार की,
हमारी केयर की ज़रूरत है. क्लास नाइन्थ में ही भेजेंगे उसे भी. तब तक कुछ और समझदार
हो जायेगा. अभी जल्दी क्या है ?”
“जल्दी है. जितनी जल्दी लाइफ़ के साथ
कदम मिलाना सीखे उतना अच्छा. आगे का टाइम हार्ड कम्पटीशन का है. मैं नहीं चाहता कि
वो बाक़ियों से पिछड़ जाए. अभी उसे इण्डिया के वन ऑफ़ दी बेस्ट हॉस्टल में एडमिशन मिल
रहा है. इस मौके को छोड़ना बेवकूफ़ी होगी. आगे चल कर इतनी आसानी से सीट नहीं मिलने
वाली. इट्स फ़ाइनल. अमिय इज़ गोइंग टू हॉस्टल.”
रत्नेश ने अपनी बात इतनी दृढ़ता से
खत्म की जैसे कोई न्यायाधीश आख़िरी फ़ैसला लिख कर कलम तोड़ दे. आगे किसी दलील की
गुंजाइश नहीं थी. रत्नेश की डिक्शनरी में इमोशनल होने का मतलब बेवकूफ होना था.
किचन में सुमन ने अपना काम
निर्देशानुसार जल्दी-जल्दी समेट दिया है. आज उसे भी घर जाने की जल्दी है. आते ही
उसने रश्मि को बता दिया था. उसकी दस साल की बेटी को बुखार है. उसे जल्दी घर
पहुँचना है. सुमन को जाने की इजाज़त दे कर रश्मि अमिय की फ़ेवरेट चीज़ मैक्रोनी बनाने
में जुट गयी. मन का बवंडर बदस्तूर चलता रहा.
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि रत्नेश
घर-परिवार या रश्मि की फ़िक्र नहीं करते. कोई फरमाइश, कोई भी ज़रूरत,
कैसी
भी माँग उसे कभी दोहरानी नहीं पड़ी बल्कि अक्सर लगता जैसे चीजों की ज़रूरतों के
मामले में रत्नेश को पूर्वाभास सा होता है. पुरानी टीवी की जगह नयी एलईडी लेने का
तो कुछ यूँ हुआ कि रश्मि जब तक ये तय करती कि मार्च के महीने में तमाम टैक्स और
देनदारियों के बीच इस किस्म का कोई खर्च किया भी जाए या नहीं, एलईडी घर पहुँच चुकी
थी.
“अरे बाद में भी ली जा सकती थी न...”
इस
बात पर रत्नेश की प्रतिक्रिया थी “बाद में क्यों ? तुम भी तो चाहती
थी न कि मानसी दीदी के आने से पहले हम पुरानी टीवी बदल डालें ? सो
मैं बदल दी. ” रश्मि लाजवाब हो गयी थी. ये तो सच था कि आठ सालों के
बाद अमेरिका से आ रही बड़ी बहन के आने से पहले एलईडी लेने की ख्वाहिश उसके मन में
थी. बिना कहे रत्नेश का समझ लेना उसे बहुत संतोष दे गया था. लेकिन हर भौतिक
ज़रूरत पर सब कुछ बिना कहे समझ लेने वाले रत्नेश इतने सालों के साथ के बावजूद जब
उसकी मानसिक और आत्मिक ज़रूरतों को नहीं समझ पाते हैं तो वो न चाहते हुए भी गहरे तक
आहत होती है. आख़िर सब कुछ कितनी बार और कितनी तरह से समझाया जा सकता है ? समाज में एक सुखी, सम्पन्न और संतुष्ट महिला की छवि उसे ख़ुश तो
करती है लेकिन मन का कोई कोना जैसे अनसुना, अनछुआ ही रह
जाता है.
कॉलबेल की आवाज़ आयी. दोनों लौट आये
हैं. दरवाज़ा खुलते ही अमिय अपने दोनों हाथों में ढेर सारे पैकेट्स सम्भालता हुआ
तेज़ी से अंदर घुसा और दौड़ कर सोफ़े पर चढ़ गया. “मम्मा ये देखो.
आज पापा ने मेरी पूरी लिस्ट की शॉपिंग करवा दी. आई लव यू पापाsss.” ये
जुमला रत्नेश के लिए था.
“लव यू टू चैम्पियन.” रत्नेश
के चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कान थी विश्व-विजेताओं सरीखी. उन्होंने गर्वीली आँखों
से रश्मि को देखा. मानो कह रहे हों ‘देखा, एवरीथिंग इज़ ओके
नाऊ.’ रश्मि ने गहरी साँस लेकर बेटे को देखा तो मन ऐंठने सा लगा. उसके दूर
जाने के ख्याल ने फिर उदास सा कर दिया.
पिछले पन्द्रह दिन से अमिय ने रो-रो कर
हलकान था. “मम्मा मुझे नहीं जाना.” उसे हॉस्टल नहीं जाना था. उसे इस बात से भी कोई
फ़र्क नहीं पड़ता था कि उसका एडमिशन शहर ही नहीं बल्कि देश के सबसे महंगे और
प्रतिष्ठित बोर्डिंग स्कूल में कराया जा रहा है. पिता द्वारा उसका ‘उज्ज्वल
और सफल भविष्य’ सुनिश्चित किया जा रहा है. दस साल के नन्हे
बच्चे से इतने कैलकुलेशन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती. अपने भविष्य से निस्पृह अमिय
अपने वर्तमान के लिए बेचैन था. हॉस्टल में मम्मा नहीं होगी. दोस्त नकुल नहीं होगा.
फिर वो वहाँ क्या करेगा ? कैसे रहेगा ?
पापा ने कहा ‘वहाँ नए दोस्त मिलेंगे.’
“लेकिन नकुल तो नहीं.”
अमिय इस डील से
सहमत नहीं था. यही समय था जब रत्नेश को अपनी मैन्युपुलेट करने की कला का परीक्षण
और क्रियान्वयन उस दस साल के बच्चे पर करना था. इसमें वो कभी नहीं हारे थे.
बड़ी-बड़ी डील की थी उन्होंने. उन्हें मालूम था अपनी बात कैसे मनवाई जाती है.
उन्होंने वही किया.
अमिय को उसकी पसन्द की हर चीज़ मिलेगी.
उसकी हर फ़रमाइश पूरी की जायेगी. वो सारे गिफ़्ट्स अभी ही दिला दिये जायेंगे जिसकी
लिस्ट उसने बर्थडे के लिए बना कर रखी है. सबसे विशेष बात वेकेशन में हॉस्टल से
लौटने के बाद उसे उसकी मनचाही जगह पर घुमाने ले जाया जायेगा. मम्मा तो हमेशा उसकी
है, उसके साथ है और रहेगी. हर मंथ मिलने आयेगी. और रही बात दोस्त की, तो हो सकता
है कि अमिय से हॉस्टल की तारीफ़ सुन कर नकुल के पापा भी अगले साल उसे उसी हॉस्टल
में भेज दें. तो दोनों दोस्त फिर मिल जायेंगे.
एक दस साल के बच्चे को बहला देने के
लिए ये पर्याप्त था, शायद बहुत ज़्यादा. अमिय का रोना-धोना रत्नेश को भी बर्दाश्त
नहीं था सो उन्होंने ऐसी योजना तैयार की कि वो सचमुच रोना भूल गया. आज उसकी
फ़रमाइशों की फ़ाइनल लिस्ट भी पूरी हो गयी थी. वो खिलखिला रहा था.
“सो चैम्पियन, आर यू रेडी टू रॉक ?”
रत्नेश ने विजयी स्वर में पूछा.
“यस पापा” अमिय ने मानो डील पर अपना
फ़ाइनल सिग्नेचर किया.
रश्मि इस डील की मूक गवाह थी बस.
“लेट्स प्रिपेयर. परसों सुबह की
फ़्लाइट से हमें निकलना है. सारी पैकिंग अच्छे से देखना क्योंकि उसे तुम्हें ही अनपैक
करना होगा. और आगे से सारी चीज़ें भी ख़ुद सम्भालनी होंगी. ”
“बट पापा, आपने तो कहा था कि वहाँ
हॉस्टल में वार्डन अंकल-आंटी होते हैं जो.....”
“होते हैं लेकिन तुम केयरलेस नहीं हो
सकते. वो हॉस्टल होगा घर नहीं.”
अचानक अमिय के चेहरे पर मानो हल्का
भूरा रंग उतर आया. वो माँ से चिपक गया. बात मुँह से निकलने के साथ ही रत्नेश को
अपनी गलती का एहसास हुआ. उन्होंने अमिय को पुचकारते हुए कहा “...एंड आई नो दैट माय
चैंपियन विल मैनेज एवरीथिंग.” अमिय थोड़ी चुप रहा लेकिन फिर माँ के हाथों फ़रमाइश पर
बनी चीज़ मैक्रोनी और अभी-अभी खरीदे गए पसन्दीदा स्पोर्ट्स शूज़, जैकेट, बैट और स्कूल
बैग ने उसका मूड ठीक कर दिया. लेकिन रश्मि वहीँ अटकी रही. ‘वो हॉस्टल होगा घर
नहीं. ये क्या बोल रहे हैं रत्नेश और अब क्यों बोल रहे हैं ? क्या समझाना चाहते है
बच्चे को, जो ख़ुद नहीं समझना चाहते ?’
शनिवार जैसे सीधे दोपहर से ही शुरू
हुआ.
तैयारी, नाश्ता, एयरपोर्ट और फिर शाम तक अमिय के नए ठिकाने हॉस्टल तक सारा
समय यूँ बीता जैसे काँच के गोल कंचे ढलान पर लुढ़का दिए गए हों. रत्नेश की अमिय के
सामने रखी गयी तमाम शर्तों में से एक यह भी थी कि रोना बिलकुल नहीं है. रोने की कोई
बात ही नहीं है. हैप्पी – हैप्पी मूड में मम्मा-पापा को बाय बोलना है जब वो दोनों
उसे हॉस्टल में छोड़ कर लौट रहे हों.
रश्मि को पता था कि यह शर्त सिर्फ़ अमिय के लिए
नहीं थी, उस पर भी लागू होती थी. नए स्कूल पहुँचने के बाद एडमिशन सम्बन्धी सारी
औपचारिकतायें पूरी कर लेने तक रश्मि ने अपने पर कड़ा अंकुश लगाये रखा. आँसू जैसे
आँखों की देहरी पर टक्कर मार रहे थे लेकिन रश्मि ने ख़ुद को अजब ढंग से पथरीला
बनाये रखा. बल्कि कुछ को तो ऐसा लगा जैसे पिता से ज़्यादा माँ को बेटे को छोड़ने की
जल्दी हो.
सारी औपचारिकतायें पूरी करने के बाद रत्नेश ने सुपरिन्टेन्डेन्ट से
कहा... “अगर बच्चे के एडजस्टमेंट में कोई प्रॉब्लम हो तो हम एक-दो दिन होटल में
रुक सकते हैं. इफ़ यू सजेस्ट...”
“नहीं, नहीं बिलकुल नहीं मिस्टर
शुक्ला. एवरीथिंग इज़ ओके. आप लोग जा सकते हैं. वैसे भी हम बच्चे का बार-बार
पेरेन्ट्स से मिलना प्रेफ़र नहीं करते. शुरूआत में तो बिलकुल नहीं. ऐसे बच्चा
खामख्वाह इमोशनल होता है और एडजस्ट होने में टाइम लगाता है. एक बार वो सेट हो जाए
तो आप लोग नेक्स्ट छुट्टियों में एक राउण्ड लगा सकते हैं. फ़ोन वीक में एक बार
अलाउड है. आपको हालचाल मिलता रहेगा.”
सुपरिन्टेन्डेन्ट डॉ0 कालरा ने
इत्मीनान से कहा.
रश्मि ने अपने अन्दर एक पूरी दुनिया को उलटते-पलटते हुए महसूस
किया. जिस बच्चे की सूरत देखे बिना सुबह – शाम नहीं होती हो अब उससे मिलने के लिए
परमीशन लेनी होगी. जिसकी बक-बक उसका जीवन संगीत थी, उससे बात के लिए कोई एक दिन तय
होगा.
अमिय वादे के मुताबिक बिना रोये वार्डन
के साथ हॉस्टल में चला गया, ऐसी तसल्ली रत्नेश ने ज़ाहिर की. मगर उसके कुछ कहने के
लिए थरथराते होंठों और डबडबाई आँखों की उदासी शायद रश्मि ही देख पायी.
बच्चे को हॉस्टल के सुपुर्द करके दोनों
होटल लौटे तो लगा जैसे करने को कोई काम ही बाक़ी न रहा हो.
अगले दिन फ्लाइट से वापस
लौटते हुए दोनों ख़ामोश थे.
बातों के गुब्बारे उड़ाने वाला अमिय साथ नहीं था.
कुछ
वक़्त बाद रत्नेश ने विन्डो सीट पर खिड़की की ओर मुँह घुमाये बैठी रश्मि की हथेलियों
को अपने हाथ में थामते हुए हौले से कहा,
“रश्मि, आख़िर तो बच्चों को दूर भेजना ही पड़ता है. ये सच है न ? सब सीख लेते
हैं एडजस्टमेंट... एन्ड ही इज़ वेरी स्मार्ट. बहुत जल्दी एडजस्ट कर लेगा. सब कुछ
मैनेज करना सीख जायेगा.
डोन्ट वरी.”
रश्मि ने धीरे से रत्नेश की ओर सिर
घुमाया, “जानती हूँ. वो सीख जायेगा एडजस्टमेंट. मैनेज कर लेगा सब कुछ... आपके बिना
रहना भी..., मेरे बिना जीना भी... बस मुझे कुछ देर लगेगी एडजस्ट करने में.”
रत्नेश के हाथों में रश्मि की हथेलियाँ
भीग गयी.
उसने फिर से अपना मुँह खिड़की की ओर
घुमा लिया.
- प्रतिमा सिन्हा (लेखिका)
3 टिप्पणियां:
मेरी बात का मान रखा और ब्लॉग पर डाला । कहानी बहुत अच्ती लगी । इस समाज की सच्चाई को उजागर करती हुई ।
दीदी, आपके अमूल्य सुझाव को तो मानना ही है। ब्लॉग पर कहानी डालने से उसका महत्व बढ़ भी गया। आपका आभार। ऐसे ही आशीर्वाद बनाए रखिएगा। पूरे 7 साल बाद ब्लॉग को दोबारा जीवन देने की कोशिश कर रही हूं। देखती हूं कितनी कामयाबी मिलती है।
आपके ब्लॉग पर शायद मैं पहली बार आया हूँ और कमाल है की अब तक क्यों नहीं पहुंचा। अब अनुसरण कर लिया है अब तो नियमति रूप से आता रहूंगा। कहानी बहुत ही कमाल और प्रभावित करने वाली है शुक्रिया
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