लॉक डाउन का पाँचवा दिन है।
सुबह-सुबह पुलिस की जीप और अनाउंसमेंट से आँख खुलती
है, “आप
लोग कृपया ध्यान दीजिए। अनावश्यक रूप से सड़कों पर न निकलें। अपने-अपने घरों में
जाएं।”
मैं घर में ही हूँ।
अपने कमरे की सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की से बाहर
देखती हूँ। तकरीबन दो सौ
मीटर लम्बी उसके आगे एक घुमाव लेती सड़क पर लोगों की
आवाजाही लगी हुई है। स्कूटर, साइकिल, पैदल,
ठेला, लोग चल रहे हैं। सड़क पर एक तरफ़ हॉस्पिटल
और दूसरी तरफ़ दवा की दुकानें हैं। कुछ लोग जो दवाएं लेने आये हैं, मैं उनके लिए दुआ करती हूँ।
फलों और सब्ज़ी के ठेलों पर कुछ भीड़ सी लगी है। हर कोई
हड़बड़ी में दिख रहा है। खरीदने वाले ज़रूरत भर सामान ले कर निश्चिन्त होना चाह रहे
हैं और ठेले वाला इस जल्दी में कि सारा माल बिक जाये ताकि उसके पास भी अगले कुछ
दिनों के लिए निश्चिन्त होने का सामान हो सके। मैं अपनी खिड़की से उसे देखते हुए
सोच रही हूँ कि इसे अपने घर के लिए भी कुछ सब्ज़ी अलग से रख लेनी चहिये। उम्मीद है
रख ली होगी।
ऊपर से शांत दिख रहा सड़क पर चल रहा हर शख्स भीतर ही
भीतर एक अजीब अफरा-तफरी में है।
दिन के ग्यारह बजते - बजते सड़क आहिस्ता - आहिस्ता ख़ाली
होने लगती है। आम दिनों में ट्रैफ़िक जाम और हॉर्न की आवाज़ से भरी सड़क पर सन्नाटा
पसर जाता है। ज़रूरी सामान लेने घरों के बाहर निकले लोग वापस घरों में दुबक जाते
हैं। सभी ‘होम अरेस्ट’ हैं।
पुलिस जीप से दिन भर में कम से कम दस बार एनाउंसमेंट
होता है, ‘लॉक डाउन चल रहा है. घरों के अन्दर रहें।’
मैं अपने तीसरी मंजिल पर बने कमरे की खिड़की से अन्दर
रह कर भी बाहर देख सकती हूँ। गलियों के शहर ‘मेरे बनारस’ में बहुत से लोगों को शायद यह सहूलियत नहीं है। वो गलियों में रहते हैं।
सड़क तक आने के लिए उन्हें कभी-कभी आधा किलोमीटर तक चलना पड़ता है।उनकी परेशानी
दूसरे तरह की है। बनारस जैसे मिज़ाजी शहर में ‘लॉक डाउन’
का मतलब है अपनेआप से ही दूर हो जाना। नेमी लोग मन्दिर नहीं जा पा
रहे। गंगा मईया का दर्शन, पूजन, स्नान
नहीं कर पा रहे। कचौड़ी-जलेबी-मलाई-रबड़ी तो दूर जीवन का आधार ‘पान’ का मिलना भी मुहाल हो गया है। ऐसे जीवन के बारे
में किसी ने नहीं सोचा था। हमने बड़े से बड़े संकट से जूझने की, बड़ी से बड़ी लड़ाई में जीतने की तैयारी कर रखी थी मगर इसकी नहीं। दुश्मन
सामने हो तो हम सीना ठोंक कर घर से चिल्लाते-गरियाते बाहर निकलने और निपट लेने की
धमकी देने में तो एक्सपर्ट थे लेकिन दुश्मन की आशंका से ही घर के भीतर कैद हो जाने
का विचार तक हमारी संस्कृति में नहीं था अमल तो दूर की बात है। फिर ऐसे दुश्मन का
किया भी क्या जाए जो अदृश्य है। अदृश्य दुश्मन से तो कोई अदृश्य शक्ति ही बचा सकती
है। अभी तो महादेव भी कुछ नहीं कर रहे। सुना है वह भी लॉक डाउन में हैं तो सिवाय
प्रतीक्षा की कोई दूसरा रास्ता नहीं।
मेरे कमरे की खिड़की से ठीक सामने सड़क के उस पार की
इमारत की छत पर एक जोड़ा बंदर-बंदरिया रोज़ बैठ कर अपना समय बिताया करते हैं।
निर्विकार, निर्लिप्त भाव से एक-दूसरे की जुएँ बीनते या करवट लेकर एक
मुद्रा में देर तक पड़े हुए. कभी – कभी दोनों में से कोई एक
उठ कर थोड़ी दूर तक टहलने चला जाता है और दूसरा बड़े ही अन्यमनस्क भाव से पड़ा-पड़ा
उसे जाते, फिर लौटते देखता रहता है। घर की कुछ ना खुलने वाली
खिड़कियों के बाहरी हिस्से में बहुत सारे कबूतरों ने डेरा बना रखा है। यह हाल सारे
शहर में है। सड़क पर कुत्ते, गाय आराम से कहीं भी बैठे नज़र
आते हैं। उनको अब तेज़ भागती गाड़ियों का खौफ़ नहीं रहा। आजकल सुबह – शाम तरह-तरह के पक्षियों और चिड़ियों की चहचहाहट साफ़ सुनाई दे रही है। मैं
अनुमान लगाने की कोशिश करती हूँ कि क्या इन जीव-जन्तुओं को इस समय मनुष्य पर
मंडराते भयावह संकट का कोई आभास होगा ? क्या इस बात से
उन्हें कोई फ़र्क पड़ता होगा ? या ये पक्षी, जानवर, और दूसरे जीव प्रकृति पर शासन करने का दम्भ
पाले हुए मनुष्यों को इस समय ख़ुद ही डरा हुआ देख मन ही मन राहत या बदला पूरा होने
जैसी ख़ुशी महसूस कर रहे होंगे ? अगले ही पल अपनी इस
अजीबोग़रीब कल्पना पर ख़ुद ही मुस्कुराती हूँ।
लॉक डाउन का छठा दिन है और ऐसा सिर्फ मेरे कमरे की खिड़की के बाहर बिछी 200 मीटर लंबी सड़क पर नहीं बल्कि सवा अरब जनसंख्या वाले हमारे पूरे देश है।
सांस्कृतिक विभिन्नताओं और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं वाले इस देश में पहली बार है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से
बंगाल तक सब एक ही रफ़्तार का शिकार हो गए हैं। न कोई ज़्यादा धीमा, न कोई ज़्यादा तेज़। अमीर-ग़रीब, मूर्ख-ज्ञानी सबकी दिनचर्या समान हो गयी है।
देश इसके लिए तैयार ही नहीं था। होता भी कैसे ? पिछली चार
पीढ़ियों के लोगों के लिए यह ऐसा पहला तजरबा जो है। इस नातजुर्बेकारी ने कुछ खौफ़नाक
मंज़र भी दिखाये हैं।
कल सुबह के अखबारों और समाचारों में दिखाई देती
तस्वीरों ने अच्छे अच्छों का दिल बैठा दिया है। दिल्ली में अपने-अपने घरों की ओर
लौट पड़े लाखों लोगों की भीड़. रोज़गार, ठिकाना ही नहीं अपना
भरोसा और उम्मीद खो चुके, अपने शहरों की ओर लौट रहे, नहीं बल्कि भाग रहे ये लोग, इस बात से बेअसर,
बेफ़िक्र कि बाक़ी देश इस वक़्त उन्हें एक बड़े ख़तरे की तरह देख रहा है।
घर लौट कर भी लौट नहीं सके हैं ये। थकान, भूख, प्यास से बचते हुए पहुँचे उन्हें बाहर ही रोका गया। कीटनाशक दवा से नहलाया
गया। अपने ही देश में शरणार्थी बने सिर पर सामान और गोद में बच्चे उठाये मीलों
पैदल चले जाते ये लोग 1947 के बंटवारे का दृश्य याद कराते रहे। तर्क ये है कि
इन्हें, जहाँ थे, वहीँ रुकना चाहिए था।
तथ्य ये है कि इन्हें, जहाँ थे वहाँ सुरक्षित व बेफ़िक्र होने
का वो भरोसा नहीं दिलाया जा सका। अब वो ख़तरे के सन्देशवाहक बन कर चारों तरफ़ बिखर
गये हैं। ग़लती किसकी ? पता नहीं। आशंका है कि कहीं सबको
ख़ामियाज़ा न भुगतना पड़े।
यह लॉक डाउन दुनिया भर में है। वाशिंगटन में रहने वाली
भाभी ने मैसेज में बताया है। सभी ‘क्वेरेंटाइन’ में हैं। स्वीडेन से एक दोस्त का
वॉयस मैसेज मिला है। उसे जून तक वहीँ ज़िन्दा रहने का संघर्ष करना होगा। वापसी के
बाद भी सब कुछ तुरन्त ठीक होने के आसार कम हैं। पहली बार सारी दुनिया डरी हुई है।
लॉक डाउन का सातवाँ दिन है। मैं कुछ – कुछ दार्शनिक हो रही हूँ। कुदरत के सिलेबस में कोई ऐसा भी चैप्टर है, किसने सोचा था ?
सन 2020 की रॉकेट से भी तेज़ स्पीड वाली ज़िन्दगी
कितनी अच्छी कट रही थी। दिन के घण्टों से ज़्यादा तो अप्वाइंटमेंट होते थे हमारे।
एक पूरी भीड़ थी जो हमें हमारे ‘होने’ का
बोध कराती थी। हर सुबह को नया तमाशा, हर रात नया जश्न। एक
छद्म संतुष्टि, एक खोखली पहचान, एक शोर
भरी संस्तुति ही सही लेकिन ज़िन्दगी तो मस्त थी। मानो कोई कमी नहीं। सब कुछ ख़रीदने
के आदी थे। खाने से लेकर ख़ुशी तक... हर चीज़ ऑनलाइन। बस वक़्त नहीं था। अब वक़्त मिला
है तो पता ही नहीं कि इसका करना क्या है ? इतने सारे वक़्त को
सिर्फ़ अपने साथ रह कर जीना हमें आता ही नहीं ? सुपरफास्ट
लाइफ़ को जैसे कोई पॉवर ब्रेक लग गया है।
अच्छा है कि यह लॉक डाउन किसी गृहयुद्ध या विश्व
युद्ध के कारण नहीं हुआ है। शुक्र है कि इस लॉक डाउन में हमें अपने पड़ोस रहने
वाले किसी दूसरे मजहब के लोगों से कोई ख़तरा नहीं है। इसीलिए हम फ़िलहाल एक-दूसरे को
जान से मारने की कोई योजना नहीं बना रहे। इसके लिए कोई हथियार या रणनीति तैयार
नहीं कर रहे। गनीमत है कि इस ख़तरे से निपटने के लिए हमें अपने-अपने लोगों के साथ
झुण्ड, सेना, जुलूस या भीड़ की शक्ल में बाहर
निकल कर नारे लगाते हुए शक्ति प्रदर्शन नहीं करना है बल्कि हमें एक-दूसरे से बहुत
दूर अपने-अपने घरों में सिमटे रहना है। जो जितना दूर, जितना
अकेला होगा वो अपने लिए, अपनों के लिए उतना ही महफूज़ होगा।
सोचने की बात है। हमने किस-किस को अपना दुश्मन माना।
ज़ात, धर्म, हिंदू,
मुसलमान, ईराक़, ईरान, अमेरिका, जापान. गोरा, काला,
अगड़ा, पिछड़ा, पड़ोसी
मुल्क तो खैर एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते ही हैं। अपनी-अपनी कौम को मज़बूत करने
की जुगत लगाते रहे ताकि दूसरी कौम को मारकर ज़िन्दा रहें। सारी दुनिया में एकछत्र
राज कर सकें। एक दूसरे पर हमला करना ही रक्षा का तरीका समझते रहे।
प्रकृति ने एक बार फिर हमें समझाया है कि हमारी ख़ुद
की हैसियत एक ‘जीव’ से ज़्यादा की नहीं। बुरा न लगे
तो ‘जीव’ को ‘कीड़ा’ भी पढ़ा जा सकता है।
हमें दरअसल अपनेआप से ही ख़तरा है। ख़ुद को बचाने के लिए कहीं हमला नहीं करना बल्कि
अपनेआप को किसी एकांत में, आइसोलेशन में डाल देना है। किसी
और से नहीं अपने अंदर पल रही विषाक्तता से जीतना है। दूसरों के लिए निरंतर
प्रार्थना करते रहना है। कुदरत का कहर दीन-धर्म, रंग-नस्ल
देख कर नहीं आता। हॉलीवुड की फ़िल्मों की तरह पहली बार पूरी मानवजाति ख़तरे में है.
प्रकृति अब अपनी सत्ता फिर से अपने हाथ में लेने जा
रही है। आने वाले समय में हमें प्रकृति की इस ताकत के आगे नतमस्तक होना होगा। इस
ताकत का मुक़ाबला किसी श्लोक-मन्त्र अथवा आयत-कलमे से नहीं बल्कि सिर्फ़ विज्ञान से
किया जा सकता है और विज्ञान प्रकृति के ही अनंत रहस्यकोष में छुपी हुई वह कुंजी है
जिससे कुछ रहस्यों को खोलने में इंसान कामयाब हो जाता है। अगर आप विज्ञान को
मनुष्य की उपलब्धि समझते हैं तो जान लीजिये कि अभी मात्र .00001 (दशमलव शून्य, शून्य,
शून्य, शून्य एक) प्रतिशत ही रहस्य खोल पाने में मनुष्य सफल हो सका है।
लॉक डाउन का आठवाँ दिन है और मैं इस लम्बी, एकाकी समयावधि की सार्थकता के बारे में सोच रही हूँ।
हमारा सबसे प्रिय और सुलभ बहाना ‘क्या करें ? वक़्त ही नहीं मिलता।’ अभी के
लिए अपना अर्थ खो चुका है लेकिन इस अतिरिक्त मिले वक़्त में हमें सब कुछ मनचाहा कर
पाने की छूट नहीं मिली है। जैसे ढेर सारे प्रतिबंधों में घिरे अतिरिक्त ओवर्स, जो
चाहे वो शॉट नहीं मार सकते। घर की सीमाओं में रह कर क्या कर सकते हैं हम ? कुछ गढ़
सकते हैं, रच सकते हैं, सहेज सकते हैं, जी सकते हैं। सोशल मीडिया पर बच्चों के साथ
खेलते, कहानियाँ सुनाते पिताओं की तस्वीरें, पत्नी के कामों में हाथ बंटाते पतियों
की तस्वीरें, घर के अन्दर मिलजुल कर खिलखिलाते चेहरे वाली तस्वीरें सुख पहुँचा रही
हैं लेकिन कब तक ? थक जाना, ऊब जाना मानव स्वभाव है। फिर उसके बाद क्या ? सुना है
पिछले छः दिनों में थम सी गयी इंसानी रफ़्तार के चलते प्रदूषण अचानक कम हो गया है.
शोर कम हो गया है। हवा में घुला ज़हर घट रहा है। ओज़ोन लेयर रिपेयर हो रही है।
पृथ्वी कुछ दिनों के लिए स्वास्थ्य लाभ कर रही है लेकिन यह शाश्वत नहीं है। यह लॉक
डाउन ख़त्म हो जायेगा। जीवन धीरे-धीरे ही सही अपने ढर्रे पर लौट आयेगा। सब कुछ पहले
जैसा हो जायेगा लेकिन क्या हम भी पहले जैसे रहेंगे या कुछ बदलेगा हममें ? क्या हम
पहले से कुछ ज़्यादा समझदार हो पाएंगे ? अपनी रफ़्तार पर संयम लगाना सीख सकेंगे ?
स्वीकार कर सकेंगे कि सबसे शक्तिशाली हम नहीं बल्कि प्रकृति है ?
मैं सोच रही हूँ कि क्या इस लॉक डाउन के बाद हम कुछ
संवेदनशील हो सकेंगे ? क्या हम उन ‘कुछ लोगों’ का दर्द भी समझ सकेंगे जो सालोंसाल
से ‘लॉक डाउन’ में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं ? उन औरतों की तकलीफ़ महसूस कर सकेंगे जो
सामान्य दिनों में भी लॉक डाउन रहने को विवश होती हैं, वो भी जीवन भर के लिए ? मैं सोच में डूबी हूँ.
लॉक डाउन का नौवां दिन है.
उम्मीद है आज से तेरहवें दिन ये बंदिशें (सम्भवतः) हट जायेंगी. फिर हम पहले की ही
तरह सड़कों पर चीखते-चिल्लाते टूट पड़ेंगे. अपनी-अपनी रफ़्तार में दौड़ पड़ेंगे.
2 टिप्पणियां:
तुमने लॉकडाउन को एक एक दिन जीकर शब्दों में ढाला है और बड़े विस्तार से। कलम चलती रहे ।
दीदी जितना जिया उतना लिख नहीं सकी। बस कोशिश कर पाई हूं थोड़ी सी।
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