ज़िन्दगी में choosy होने के अपने फ़ायदे हैं . ख़ासतौर पर जब चारों ओर बाज़ार सजा हो तो चयन वाकई सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया बन जाता है.मैं फिल्मों की दीवानी तो नहीं लेकिन शौक़ीन ज़रूर हूँ . जब काम करते-करते या एक जैसे रूटीन की एकरसता बोरियत और फिर झुंझलाहट की हद तक बढ़ जाए तो कोई अच्छी सी फिल्म देख लेने का प्रोग्राम कुछ नयापन ले आता है. लेकिन अच्छी फिल्म का चुनाव कठिन है . प्रोमोज़ के दम पर कोई राय बनाना अब सुरक्षित नहीं रहा . वजह.... प्रोमो अब सच नहीं बोलते . वरना लोगों को तीस मार खाँ देखने के बाद सिर नहीं धुनना पड़ता. ऐसे में छठी इन्द्री का सहयोग तो अपेक्षित रहता ही है साथ ही साथ सिनेमाघर में अच्छी फिल्म की मौजूदगी भी ज़रूरी हो जाती है . ऐसे में बीते मंगलवार को संयोग अच्छा रहा . फिल्म देखने की इच्छा हुई और एक नाम पर निगाहें जा कर रुक गयीं NO ONE KILLED JESSICA. पहले से ही सोच था कि ये फिल्म देखनी है . निर्णय गलत नहीं निकला .
फ़िल्में मैं ज़रा सोच- विचार कर ही देखती हूँ . अपनी इस अक्लमंदी पर फिर खुश होने का मौका था ये . पीपली लाइव के बाद दूसरी बार भी एक सार्थक सिनेमा देखने को मिला . साफ़ शब्दों में कहूं तो दिल-दिमाग हिला गयी जेसिका की ये ' सच्ची ' कहानी . फिल्म कई मायनों में विशिष्ट कही जा सकती है . पीपली लाइव में हुई प्रेस और मीडिया की छीछालेदर के बाद नो वन ........ ने बड़ी ईमानदारी से मीडिया के उस सजग / सकारात्मक पहलू को उजागर किया है जिसे समाज के सोते हुए ज़मीर को कई दफा बुरी तरह झकझोर कर जगा देने का श्रेय प्राप्त है .
याद आ जाते है जेसिका , नीतीश, रुचिका ,रूपम पाठक जैसे न जाने कितने मामले , जिनमें मीडिया ने तथाकथित ताकतवर और सत्ताधारियों की नाक में नकेल पहना दी और न्याय को हक़दार तक पहुँचाने का रास्ता बनाया . मीरा गेती के किरदार में रानी मुखर्जी पत्रकारिता की एकदम ताज़ा तरीन परिभाषा गढ़ती दिखाई पड़ती हैं जहाँ हर हादसे में स्टोरी खोजने वाला मीडिया गलत को सही करने के एक मौके के लिए भी उतना ही संवेदनशील होता दिखता है .
याद आ जाते है जेसिका , नीतीश, रुचिका ,रूपम पाठक जैसे न जाने कितने मामले , जिनमें मीडिया ने तथाकथित ताकतवर और सत्ताधारियों की नाक में नकेल पहना दी और न्याय को हक़दार तक पहुँचाने का रास्ता बनाया . मीरा गेती के किरदार में रानी मुखर्जी पत्रकारिता की एकदम ताज़ा तरीन परिभाषा गढ़ती दिखाई पड़ती हैं जहाँ हर हादसे में स्टोरी खोजने वाला मीडिया गलत को सही करने के एक मौके के लिए भी उतना ही संवेदनशील होता दिखता है .
इसके समानांतर ही मीरा गेती बड़े शहर में ,अपने बड़े मिशन पर लगी, अपनी बड़ी प्रोफाइल के प्रति गौरवान्वित होती, हर दम सजग , तेज़, स्वावलंबी और जुनूनी उस आधुनिक लड़की की भी प्रतिनिधि है जो अकेले रहती है , जिंदगी अपनी शर्तों पर जीती है , सिगरेट पीती है , गालियाँ भी दे सकती है ,अपनी पसंद का काम करती है , खतरें और बॉयफ्रेंड्स वगैरह उसके लिए कोई मायने नहीं रखते, और वो हर गलत को सही करने की कोशिश ज़रूर करती है .याद नहीं पड़ता कि ऐसा महिला किरदार पिछली दफ़ा किस फिल्म में देखा होगा .उसे देख कर एक बार उसकी तरह हो जाने का जी करता है .कारण --- मीरा गेती के पास वो है , जो एक आम हिन्दुस्तानी औरत के पास कम ही मिलता है ................ GUTS.
पिछ्ली बार जब पा के बारे में अपने विचार लिख रही थी तो मैंने कहा था कि विद्या बालन मेरी पसंदीदा अभिनेत्री नहीं हैं . मगर यकीन जानिए तब से अब तक मेरी राय पूरी तरह बदल चुकी है . परिणीता ,पा , लगे रहो ......, इश्किया और अब जेसिका .... (ये मेरे फ़िल्में देखने का क्रम है...) बिना पूर्वाग्रह के कहूं तो विद्या वाकई कमाल हैं . कोई एक किरदार दूसरे से मेल नहीं खाता और न ही एक विद्या दूसरी विद्या से मेल खाती हैं . हर बार नई.....
परदे के बाहर उनकी चर्चा चाहे जिस वजह से हो लेकिन परदे पर विद्या को काट पाना वाकई मुश्किल है बशर्ते उन्हें सही किरदार और निर्देशक मिले . सबरीना लाल के किरदार में विद्या ने एक बार फिर खुद के ही लिए एक नई लकीर खींच दी है .
इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी मेरे हिसाब से है, इसका संवेदनशील ट्रीटमेंट .एक सच्ची घटना का नाटकीयकरण करना आसान नहीं होता वो भी तब , जब उस पर बॉक्स ऑफिस का बोझ भी लाद दिया जाये, मगर निर्देशक राजकुमार गुप्ता असीम बधाइयों के पात्र हैं कि उन्होंने विषय को मसालेदार मुम्बईया फिल्म या नीरस वृत्तचित्र बन जाने के दोनों ही खतरों से बचा कर वहाँ लाकर खड़ा कर दिया जहां देखने वाले बारह साल पुराने जेसिका लाल हत्याकांड से खुद को यूं हिलता महसूस करते हैं जैसे ये घटना अभी ही कहीं हमारे आस-पास घट रही हो . जेसिका के लिए निकाले गए कैंडल मार्च में शरीक होने की ज़रुरत महसूस होने लगती है . फिल्म कई बार अन्दर तक झकझोर देती है . अगर इस केस के चलने के दौरान किसी ने उस पर विशेष ध्यान न दिया हो तो फिल्म देख कर अनजाने ही अपराध बोध सा होने लगता है .दिल्ली की फितरत पर तंज करती ये फिल्म मानों पूरे हिंदुस्तान के ज़मीर को चुभती सी लगती है .....आखिर जेसिका की जगह किसी की भी बहन या बेटी हो सकती थी . so called हाई प्रोफाइल लोगों के चूहों से धुकधुकाते छोटे -छोटे दिलों की भी पोल खोलती है ये फिल्म .
जेसिका लाल की भूमिका में Myra Karn का चयन गज़ब है. लगता है खुद जेसिका ही हो . हर किरदार अपनी जगह सटीक ...संगीत भावों को सहलाता , तसल्ली देता हुआ सा .
वैसे पसंद अपनी-अपनी का जुमला पुराना है फिर भी एक दोस्त की हैसियत से कहना चाहूंगी ये फिल्म (अगर मुमकिन हो तो ...) ज़रूर देखें .
हमारे हिंदी मुम्बइया फिल्म जगत में ऐसी फिल्म कम ही बनती हैं जिनमें कोई लटका- झटका न हो , कम से कम एक (ज़्यादा से ज़्यादा दस - पंद्रह ) रोमांटिक गाने न हों , हीरो तो छोड़िये, नायिका का एक बॉय फ्रेंड तक न हो और तो और सारा बोझ नायिका के कंधों पर हो फिर भी उसमें कुछ दम हो .
Producer Ronnie Screwvala और निर्देशक राजकुमार गुप्ता की दिलेरी और संवेदनशील रचनात्मकता को सलाम करते हुए उम्मीद करती हूँ कि सत्ता और ताकत पर, सच और हिम्मत को हमेशा ही तरजीह देने वालों को ये फिल्म ज़रूर अच्छी लगेगी ,
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