गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

#किताबों_वाली_प्रतिमा #किताबों_की_प्रतिमा !!

"WORLD BOOK DAY"
आज दिल से एक बात से स्वीकार करना चाहती हूँ।
मैं वैसी हूँ जैसा 'मुझे किताबों ने बना दिया है।'
वो किताबें, जो तब मेरे पास रहीं जब कोई और नहीं था। वो किताबें जो तब मेरी दोस्त बनीं जब मुझे दोस्ती का अर्थ भी नहीं मालूम था। मेरा बचपन मोबाइल, टीवी, सिनेमा ही नहीं बल्कि यात्राओं, समारोहों और आयोजनों से भी रिक्त था। मेरे उस बचपन में सखियों रिश्तेदारों हमउम्रों की उपस्थिति भी नहीं थी। अपने उस एकाकी बचपन में कुछ भी कहने-सुनने के लिए मेरे पास सिर्फ़ एक ही शख़्स था, वह थी मेरी माँ और किसी भी घर संभालने और बनाने वाली स्त्री की तरह उनके पास भी समय का अभाव था। सो उन्होंने अपनी बातूनी और कल्पना में खोई रहने वाली, स्वप्नजीवी बेटी को किताबें और पत्रिकाएं पकड़ा दीं ताकि वह हरदम उनका दिमाग ना खाया करे। इस चक्कर में उन्होंने मुझे अपनी किताबों तक जाने का अधिकार दे दिया। जाहिर है उनके पास भी कोई आला दर्जे की लाइब्रेरी नहीं थी। पढ़ने के उनके अपने निजी शौक ने उनके सिरहाने और अलमारी में कुछ किताबों का ज़ख़ीरा बना दिया था बस..., जहाँ तक मेरी पहुँच भी हो गयी। फिर मैंने बेरोकटोक हर पत्रिका, हर किताब पढ़ी।
चंपक, नंदन, पराग, चंदा मामा, मधुर मुस्कान, लोटपोट, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी से लेकर सरिता, मुक्ता, मनोरमा, गृहशोभा, मेरी सहेली, मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां, मायापुरी, फिल्मी दुनिया, माधुरी, धर्म युग....(सूची जारी)
गुलशन नंदा, रानू, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक से लेकर मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चंद, हरिशंकर परसाई, शिवानी, ममता कालिया, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी.....(सूची जारी) मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन और धर्मवीर भारती से लेकर मिर्जा ग़ालिब, अहमद फ़राज़, साहिर लुधियानवी, सरदार अली जाफ़री, गुलज़ार, जावेद अख़्तर, बशीर बद्र......(सूची जारी) (इंग्लिश या किसी अन्य भाषा किताबें शायद इसलिए नहीं पढ़ पाई क्योंकि मम्मी के संग्रह में वह शामिल नहीं थीं।) यह कक्षा 2 से कॉलेज तक की सूची है इसके बाद इसकी लंबाई बढ़ती ही गई। आज भी बढ़ गई है।
आपको यह सूची ख़ासी बेढब लग सकती है।ख़ासतौर पर शुरुआत में। कहाँ लोटपोट और कहाँ धर्मयुग ? कहाँ गुलशन नंदा और कहाँ मुंशी प्रेमचंद ? लेकिन मेरे लिए यह किताबें दरअसल उत्कृष्टता या गुणवत्ता के आधार पर महत्व नहीं रखती थीं। मेरे लिए तो हर किताब एक कहानी थी और हर कहानी एक रोमांच। जितनी लम्बी कहानी, उतना लम्बा रोमांच। अब याद करती हूँ तो वाकई हँसी आती है। नानी जब भी हमारे यहाँ आती थीं वह समय मेरे लिए कर्फ्यू लगने जैसा होता था क्योंकि उनको मेरे हाथ में किताबें पसंद नहीं होती थीं। या यूँ कहें कि उनके लिए किताबों का एक ही मतलब होता था, कोर्स की किताबें। उसी दौरान एक और (बुरी ??) आदत लग गई थी मुझे। खाना खाते हुए किताब पढ़ना या कह सकते हैं किताब पढ़ते हुए खाना खाना। इस बात पर कितनी डांट खाई है याद नहीं। पाप-पुण्य क्या नहीं समझाया गया। विद्या माँ और अन्न देवता के रूठ जाने का भय भी मुझे सुधार नहीं सका।
मुझे गुलशन नंदा पढ़ते हुए देखकर नानी ने एक दफ़ा मम्मी को इतना कोसा कि मम्मी ने मुझे पीट दिया। उन पर इल्ज़ाम था कि उन्होंने मुझे ग़लत किताबों की लत लगा दी है। इसके बाद मैं छिप-छिप कर वह सारी 'वर्जित' किताबें पढ़ने लगी। जिस उम्र तक अक्सर बच्चों को चित्रकथाएं दी जाती हैं ताकि वह रंगीन फोटो देखकर किताबों में रुचि पैदा कर सकें उस उम्र में सरसों सी बारीक छपाई वाले गुलशन नंदा और रानू के उपन्यास मुझे इतना भाते थे कि मैं सबकी निगाहें बचा कर तीन-चार दिन में इन्हें चट कर जाती थी। अपराध पत्रिका हो या साहित्यिक पत्रिका पढ़ने में मज़ा आना चाहिए था फिर दो दिन में पूरी मैगज़ीन ख़त्म करने की गारंटी मेरी। हाँ, मेरे पास भी वैसी वाली यादें भी हैं कि जिस पुड़िया में चनाज़ोर गरम लेकर आई उसे खोलकर पढ़ा भी ज़रूर। कोई भी पन्ना बचता नहीं था।
इस तरह जो-जो भी पढ़ा, उस उम्र में वो सब समझ कितना पाई यह नहीं जानती लेकिन इतना तय है कि इस वैविध्यपूर्ण पाठन ने मेरे शब्दकोश को बहुत वृहद कर दिया। हिन्दी भाषा पर जितना अधिकार बना, वह इस शिक्षणेत्तर पठन पाठन से ही बना, वरना हिन्दी मेरा विषय कभी नहीं थी। पिछले 20 वर्षों से मंच संचालिका के रूप में, बिना एक शब्द भी लिखे, मंच से उद्घोषणा करने की मेरी शैली के पीछे शायद इन्हीं पत्रिकाओं और पुस्तकों का हाथ है जो मेरे अवचेतन में कहीं परमानेंट फोल्डर बन कर सेव हो चुकी हैं। कोई भी विषय हो मंच संचालन करते वक़्त मुझे कभी शब्दों के लिए भटकना नहीं पड़ता। कैसे मुझे भी नहीं पता। बस इतना जानती हूं कि शब्द खुद-ब-खुद दिमाग़ के किसी कोने से निकलकर जुबान तक आते जाते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि कह कर भूल भी जाती हूँ कि क्या कहा था।माँ ने तो शायद मेरा ध्यान बँटाने के लिए मुझे किताबों की ओर मोड़ा था। किताबों के चयन में भी उनकी ज़्यादा सलाह शामिल नहीं होती थी। फिर भी उनकी शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने खिलौने से ज़्यादा मेरी किताबों की फ़रमाइश पूरी की, वह भी सब की नाराज़गी मोल लेकर। सोचती हूँ, मेरी चयनक्षमता पर उन्हें भरोसा रहा होगा या वह जानती थीं कि मैं निकाल ही लूँगी अपने काम का कुछ।
थोड़ा अफ़सोस तो होता है, जब लगता है कि जितना कुछ पढ़ा था उसका इस्तेमाल बोलकर कर डाला।
इतना बोला कि जाने क्या-क्या दोहराया।
बस लिख नहीं पाई उतना, जितना लिखना था।
या फिर वैसा, जैसा लिखना था।
आज तो दावे से कह सकती हूँ कि मेरी (आकार की दृष्टि से) नन्हीं सी लाइब्रेरी में सचमुच उत्कृष्टता और गुणवत्ता की दृष्टि से संग्रहणीय पुस्तके मौजूद हैं। कुछ पढ़ ली गई हैं। कुछ पढ़ी जानी बाक़ी हैं लेकिन मैं बिना हुए कृतघ्न हुए स्वीकारना चाहती हूँ कि बचपन से आज तक मैंने जो कुछ भी पढ़ा, वो सब मेरे काम आया। उन सबने मुझे परिपक्व बनाया।
चाहती हूँ कि अगर अब चंदेक किताबें लिख भी पाऊँ तो मरने से पहले कोई काम पूरा कर पाने की संतुष्टि तो कमा लूँ।
"I have always imagined that Paradise will be a kind of library." Jorge Luis Borges



मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

क़ैद में ज़िन्दगी !


लॉक डाउन का पाँचवा दिन है।


सुबह-सुबह पुलिस की जीप और अनाउंसमेंट से आँख खुलती है, “आप लोग कृपया ध्यान दीजिए। अनावश्यक रूप से सड़कों पर न निकलें। अपने-अपने घरों में जाएं।
मैं घर में ही हूँ।
अपने कमरे की सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की से बाहर देखती हूँ। तकरीबन दो सौ
मीटर लम्बी उसके आगे एक घुमाव लेती सड़क पर लोगों की आवाजाही लगी हुई है। स्कूटर, साइकिल, पैदल, ठेला, लोग चल रहे हैं। सड़क पर एक तरफ़ हॉस्पिटल और दूसरी तरफ़ दवा की दुकानें हैं। कुछ लोग जो दवाएं लेने आये हैं, मैं उनके लिए दुआ करती हूँ।
फलों और सब्ज़ी के ठेलों पर कुछ भीड़ सी लगी है। हर कोई हड़बड़ी में दिख रहा है। खरीदने वाले ज़रूरत भर सामान ले कर निश्चिन्त होना चाह रहे हैं और ठेले वाला इस जल्दी में कि सारा माल बिक जाये ताकि उसके पास भी अगले कुछ दिनों के लिए निश्चिन्त होने का सामान हो सके। मैं अपनी खिड़की से उसे देखते हुए सोच रही हूँ कि इसे अपने घर के लिए भी कुछ सब्ज़ी अलग से रख लेनी चहिये। उम्मीद है रख ली होगी।
ऊपर से शांत दिख रहा सड़क पर चल रहा हर शख्स भीतर ही भीतर एक अजीब अफरा-तफरी में है।
दिन के ग्यारह बजते - बजते सड़क आहिस्ता - आहिस्ता ख़ाली होने लगती है। आम दिनों में ट्रैफ़िक जाम और हॉर्न की आवाज़ से भरी सड़क पर सन्नाटा पसर जाता है। ज़रूरी सामान लेने घरों के बाहर निकले लोग वापस घरों में दुबक जाते हैं। सभी होम अरेस्ट हैं।
पुलिस जीप से दिन भर में कम से कम दस बार एनाउंसमेंट होता है, ‘लॉक डाउन चल रहा है. घरों के अन्दर रहें।
मैं अपने तीसरी मंजिल पर बने कमरे की खिड़की से अन्दर रह कर भी बाहर देख सकती हूँ। गलियों के शहर मेरे बनारसमें बहुत से लोगों को शायद यह सहूलियत नहीं है। वो गलियों में रहते हैं। सड़क तक आने के लिए उन्हें कभी-कभी आधा किलोमीटर तक चलना पड़ता है।उनकी परेशानी दूसरे तरह की है। बनारस जैसे मिज़ाजी शहर में लॉक डाउनका मतलब है अपनेआप से ही दूर हो जाना। नेमी लोग मन्दिर नहीं जा पा रहे। गंगा मईया का दर्शन, पूजन, स्नान नहीं कर पा रहे। कचौड़ी-जलेबी-मलाई-रबड़ी तो दूर जीवन का आधार पान का मिलना भी मुहाल हो गया है। ऐसे जीवन के बारे में किसी ने नहीं सोचा था। हमने बड़े से बड़े संकट से जूझने की, बड़ी से बड़ी लड़ाई में जीतने की तैयारी कर रखी थी मगर इसकी नहीं। दुश्मन सामने हो तो हम सीना ठोंक कर घर से चिल्लाते-गरियाते बाहर निकलने और निपट लेने की धमकी देने में तो एक्सपर्ट थे लेकिन दुश्मन की आशंका से ही घर के भीतर कैद हो जाने का विचार तक हमारी संस्कृति में नहीं था अमल तो दूर की बात है। फिर ऐसे दुश्मन का किया भी क्या जाए जो अदृश्य है। अदृश्य दुश्मन से तो कोई अदृश्य शक्ति ही बचा सकती है। अभी तो महादेव भी कुछ नहीं कर रहे। सुना है वह भी लॉक डाउन में हैं तो सिवाय प्रतीक्षा की कोई दूसरा रास्ता नहीं।

मेरे कमरे की खिड़की से ठीक सामने सड़क के उस पार की इमारत की छत पर एक जोड़ा बंदर-बंदरिया रोज़ बैठ कर अपना समय बिताया करते हैं। निर्विकार, निर्लिप्त भाव से एक-दूसरे की जुएँ बीनते या करवट लेकर एक मुद्रा में देर तक पड़े हुए. कभी कभी दोनों में से कोई एक उठ कर थोड़ी दूर तक टहलने चला जाता है और दूसरा बड़े ही अन्यमनस्क भाव से पड़ा-पड़ा उसे जाते, फिर लौटते देखता रहता है। घर की कुछ ना खुलने वाली खिड़कियों के बाहरी हिस्से में बहुत सारे कबूतरों ने डेरा बना रखा है। यह हाल सारे शहर में है। सड़क पर कुत्ते, गाय आराम से कहीं भी बैठे नज़र आते हैं। उनको अब तेज़ भागती गाड़ियों का खौफ़ नहीं रहा। आजकल सुबह शाम तरह-तरह के पक्षियों और चिड़ियों की चहचहाहट साफ़ सुनाई दे रही है। मैं अनुमान लगाने की कोशिश करती हूँ कि क्या इन जीव-जन्तुओं को इस समय मनुष्य पर मंडराते भयावह संकट का कोई आभास होगा ? क्या इस बात से उन्हें कोई फ़र्क पड़ता होगा ? या ये पक्षी, जानवर, और दूसरे जीव प्रकृति पर शासन करने का दम्भ पाले हुए मनुष्यों को इस समय ख़ुद ही डरा हुआ देख मन ही मन राहत या बदला पूरा होने जैसी ख़ुशी महसूस कर रहे होंगे ? अगले ही पल अपनी इस अजीबोग़रीब कल्पना पर ख़ुद ही मुस्कुराती हूँ।

लॉक डाउन का छठा दिन है और ऐसा सिर्फ मेरे कमरे की खिड़की के बाहर बिछी 200 मीटर लंबी सड़क पर नहीं बल्कि सवा अरब जनसंख्या वाले हमारे पूरे देश है। 


सांस्कृतिक विभिन्नताओं और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं वाले इस देश में पहली बार है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक सब एक ही रफ़्तार का शिकार हो गए हैं। न कोई ज़्यादा धीमा, न कोई ज़्यादा तेज़। अमीर-ग़रीब, मूर्ख-ज्ञानी सबकी दिनचर्या समान हो गयी है। देश इसके लिए तैयार ही नहीं था। होता भी कैसे ? पिछली चार पीढ़ियों के लोगों के लिए यह ऐसा पहला तजरबा जो है। इस नातजुर्बेकारी ने कुछ खौफ़नाक मंज़र भी दिखाये हैं।
कल सुबह के अखबारों और समाचारों में दिखाई देती तस्वीरों ने अच्छे अच्छों का दिल बैठा दिया है। दिल्ली में अपने-अपने घरों की ओर लौट पड़े लाखों लोगों की भीड़. रोज़गार, ठिकाना ही नहीं अपना भरोसा और उम्मीद खो चुके, अपने शहरों की ओर लौट रहे, नहीं बल्कि भाग रहे ये लोग, इस बात से बेअसर, बेफ़िक्र कि बाक़ी देश इस वक़्त उन्हें एक बड़े ख़तरे की तरह देख रहा है। घर लौट कर भी लौट नहीं सके हैं ये। थकान, भूख, प्यास से बचते हुए पहुँचे उन्हें बाहर ही रोका गया। कीटनाशक दवा से नहलाया गया। अपने ही देश में शरणार्थी बने सिर पर सामान और गोद में बच्चे उठाये मीलों पैदल चले जाते ये लोग 1947 के बंटवारे का दृश्य याद कराते रहे। तर्क ये है कि इन्हें, जहाँ थे, वहीँ रुकना चाहिए था। तथ्य ये है कि इन्हें, जहाँ थे वहाँ सुरक्षित व बेफ़िक्र होने का वो भरोसा नहीं दिलाया जा सका। अब वो ख़तरे के सन्देशवाहक बन कर चारों तरफ़ बिखर गये हैं। ग़लती किसकी ? पता नहीं। आशंका है कि कहीं सबको ख़ामियाज़ा न भुगतना पड़े।

यह लॉक डाउन दुनिया भर में है। वाशिंगटन में रहने वाली भाभी ने मैसेज में बताया है। सभी ‘क्वेरेंटाइन’ में हैं। स्वीडेन से एक दोस्त का वॉयस मैसेज मिला है। उसे जून तक वहीँ ज़िन्दा रहने का संघर्ष करना होगा। वापसी के बाद भी सब कुछ तुरन्त ठीक होने के आसार कम हैं। पहली बार सारी दुनिया डरी हुई है।

लॉक डाउन का सातवाँ दिन है। मैं कुछ कुछ दार्शनिक हो रही हूँ। कुदरत के सिलेबस में कोई ऐसा भी चैप्टर है, किसने सोचा था


सन 2020 की रॉकेट से भी तेज़ स्पीड वाली ज़िन्दगी कितनी अच्छी कट रही थी। दिन के घण्टों से ज़्यादा तो अप्वाइंटमेंट होते थे हमारे। एक पूरी भीड़ थी जो हमें हमारे होनेका बोध कराती थी। हर सुबह को नया तमाशा, हर रात नया जश्न। एक छद्म संतुष्टि, एक खोखली पहचान, एक शोर भरी संस्तुति ही सही लेकिन ज़िन्दगी तो मस्त थी। मानो कोई कमी नहीं। सब कुछ ख़रीदने के आदी थे। खाने से लेकर ख़ुशी तक... हर चीज़ ऑनलाइन। बस वक़्त नहीं था। अब वक़्त मिला है तो पता ही नहीं कि इसका करना क्या है ? इतने सारे वक़्त को सिर्फ़ अपने साथ रह कर जीना हमें आता ही नहीं ? सुपरफास्ट लाइफ़ को जैसे कोई पॉवर ब्रेक लग गया है।
अच्छा है कि यह लॉक डाउन किसी गृहयुद्ध या विश्व युद्ध के कारण नहीं हुआ है। शुक्र है कि इस लॉक डाउन में हमें अपने पड़ोस रहने वाले किसी दूसरे मजहब के लोगों से कोई ख़तरा नहीं है। इसीलिए हम फ़िलहाल एक-दूसरे को जान से मारने की कोई योजना नहीं बना रहे। इसके लिए कोई हथियार या रणनीति तैयार नहीं कर रहे। गनीमत है कि इस ख़तरे से निपटने के लिए हमें अपने-अपने लोगों के साथ झुण्ड, सेना, जुलूस या भीड़ की शक्ल में बाहर निकल कर नारे लगाते हुए शक्ति प्रदर्शन नहीं करना है बल्कि हमें एक-दूसरे से बहुत दूर अपने-अपने घरों में सिमटे रहना है। जो जितना दूर, जितना अकेला होगा वो अपने लिए, अपनों के लिए उतना ही महफूज़ होगा।
सोचने की बात है। हमने किस-किस को अपना दुश्मन माना। ज़ात, धर्म, हिंदू, मुसलमान, ईराक़, ईरान, अमेरिका, जापान. गोरा, काला, अगड़ा, पिछड़ा, पड़ोसी मुल्क तो खैर एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते ही हैं। अपनी-अपनी कौम को मज़बूत करने की जुगत लगाते रहे ताकि दूसरी कौम को मारकर ज़िन्दा रहें। सारी दुनिया में एकछत्र राज कर सकें। एक दूसरे पर हमला करना ही रक्षा का तरीका समझते रहे।
प्रकृति ने एक बार फिर हमें समझाया है कि हमारी ख़ुद की हैसियत एक जीव से ज़्यादा की नहीं। बुरा न लगे तो जीवको ‘कीड़ा’ भी पढ़ा जा सकता है। हमें दरअसल अपनेआप से ही ख़तरा है। ख़ुद को बचाने के लिए कहीं हमला नहीं करना बल्कि अपनेआप को किसी एकांत में, आइसोलेशन में डाल देना है। किसी और से नहीं अपने अंदर पल रही विषाक्तता से जीतना है। दूसरों के लिए निरंतर प्रार्थना करते रहना है। कुदरत का कहर दीन-धर्म, रंग-नस्ल देख कर नहीं आता। हॉलीवुड की फ़िल्मों की तरह पहली बार पूरी मानवजाति ख़तरे में है.
प्रकृति अब अपनी सत्ता फिर से अपने हाथ में लेने जा रही है। आने वाले समय में हमें प्रकृति की इस ताकत के आगे नतमस्तक होना होगा। इस ताकत का मुक़ाबला किसी श्लोक-मन्त्र अथवा आयत-कलमे से नहीं बल्कि सिर्फ़ विज्ञान से किया जा सकता है और विज्ञान प्रकृति के ही अनंत रहस्यकोष में छुपी हुई वह कुंजी है जिससे कुछ रहस्यों को खोलने में इंसान कामयाब हो जाता है। अगर आप विज्ञान को मनुष्य की उपलब्धि समझते हैं तो जान लीजिये कि अभी मात्र .00001 (दशमलव शून्य, शून्य, शून्य, शून्य एक) प्रतिशत  ही रहस्य खोल पाने में मनुष्य सफल हो सका है।

लॉक डाउन का आठवाँ दिन है और मैं इस लम्बी, एकाकी समयावधि की सार्थकता के बारे में सोच रही हूँ। 


हमारा सबसे प्रिय और सुलभ बहाना ‘क्या करें ? वक़्त ही नहीं मिलता।’ अभी के लिए अपना अर्थ खो चुका है लेकिन इस अतिरिक्त मिले वक़्त में हमें सब कुछ मनचाहा कर पाने की छूट नहीं मिली है। जैसे ढेर सारे प्रतिबंधों में घिरे अतिरिक्त ओवर्स, जो चाहे वो शॉट नहीं मार सकते। घर की सीमाओं में रह कर क्या कर सकते हैं हम ? कुछ गढ़ सकते हैं, रच सकते हैं, सहेज सकते हैं, जी सकते हैं। सोशल मीडिया पर बच्चों के साथ खेलते, कहानियाँ सुनाते पिताओं की तस्वीरें, पत्नी के कामों में हाथ बंटाते पतियों की तस्वीरें, घर के अन्दर मिलजुल कर खिलखिलाते चेहरे वाली तस्वीरें सुख पहुँचा रही हैं लेकिन कब तक ? थक जाना, ऊब जाना मानव स्वभाव है। फिर उसके बाद क्या ? सुना है पिछले छः दिनों में थम सी गयी इंसानी रफ़्तार के चलते प्रदूषण अचानक कम हो गया है. शोर कम हो गया है। हवा में घुला ज़हर घट रहा है। ओज़ोन लेयर रिपेयर हो रही है। पृथ्वी कुछ दिनों के लिए स्वास्थ्य लाभ कर रही है लेकिन यह शाश्वत नहीं है। यह लॉक डाउन ख़त्म हो जायेगा। जीवन धीरे-धीरे ही सही अपने ढर्रे पर लौट आयेगा। सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा लेकिन क्या हम भी पहले जैसे रहेंगे या कुछ बदलेगा हममें ? क्या हम पहले से कुछ ज़्यादा समझदार हो पाएंगे ? अपनी रफ़्तार पर संयम लगाना सीख सकेंगे ? स्वीकार कर सकेंगे कि सबसे शक्तिशाली हम नहीं बल्कि प्रकृति है ?
मैं सोच रही हूँ कि क्या इस लॉक डाउन के बाद हम कुछ संवेदनशील हो सकेंगे ? क्या हम उन ‘कुछ लोगों’ का दर्द भी समझ सकेंगे जो सालोंसाल से ‘लॉक डाउन’ में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं ? उन औरतों की तकलीफ़ महसूस कर सकेंगे जो सामान्य दिनों में भी लॉक डाउन रहने को विवश होती हैं, वो भी जीवन भर के लिए ? मैं सोच में डूबी हूँ. 

लॉक डाउन का नौवां दिन है. 


उम्मीद है आज से तेरहवें दिन ये बंदिशें (सम्भवतः) हट जायेंगी. फिर हम पहले की ही तरह सड़कों पर चीखते-चिल्लाते टूट पड़ेंगे. अपनी-अपनी रफ़्तार में दौड़ पड़ेंगे.

लेकिन क्या हम पहले से अधिक ‘मनुष्य’ भी हो पायेंगे ??


अवसाद के भय से जूझता मध्यमवर्ग !

शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह  कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक...