"WORLD BOOK DAY"
आज दिल से एक बात से स्वीकार करना चाहती हूँ।
मैं वैसी हूँ जैसा 'मुझे किताबों ने बना दिया है।'
वो किताबें, जो तब मेरे पास रहीं जब कोई और नहीं था। वो किताबें जो तब मेरी दोस्त बनीं जब मुझे दोस्ती का अर्थ भी नहीं मालूम था। मेरा बचपन मोबाइल, टीवी, सिनेमा ही नहीं बल्कि यात्राओं, समारोहों और आयोजनों से भी रिक्त था। मेरे उस बचपन में सखियों रिश्तेदारों हमउम्रों की उपस्थिति भी नहीं थी। अपने उस एकाकी बचपन में कुछ भी कहने-सुनने के लिए मेरे पास सिर्फ़ एक ही शख़्स था, वह थी मेरी माँ और किसी भी घर संभालने और बनाने वाली स्त्री की तरह उनके पास भी समय का अभाव था। सो उन्होंने अपनी बातूनी और कल्पना में खोई रहने वाली, स्वप्नजीवी बेटी को किताबें और पत्रिकाएं पकड़ा दीं ताकि वह हरदम उनका दिमाग ना खाया करे। इस चक्कर में उन्होंने मुझे अपनी किताबों तक जाने का अधिकार दे दिया। जाहिर है उनके पास भी कोई आला दर्जे की लाइब्रेरी नहीं थी। पढ़ने के उनके अपने निजी शौक ने उनके सिरहाने और अलमारी में कुछ किताबों का ज़ख़ीरा बना दिया था बस..., जहाँ तक मेरी पहुँच भी हो गयी। फिर मैंने बेरोकटोक हर पत्रिका, हर किताब पढ़ी।
चंपक, नंदन, पराग, चंदा मामा, मधुर मुस्कान, लोटपोट, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी से लेकर सरिता, मुक्ता, मनोरमा, गृहशोभा, मेरी सहेली, मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां, मायापुरी, फिल्मी दुनिया, माधुरी, धर्म युग....(सूची जारी)
गुलशन नंदा, रानू, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक से लेकर मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चंद, हरिशंकर परसाई, शिवानी, ममता कालिया, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी.....(सूची जारी) मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन और धर्मवीर भारती से लेकर मिर्जा ग़ालिब, अहमद फ़राज़, साहिर लुधियानवी, सरदार अली जाफ़री, गुलज़ार, जावेद अख़्तर, बशीर बद्र......(सूची जारी) (इंग्लिश या किसी अन्य भाषा किताबें शायद इसलिए नहीं पढ़ पाई क्योंकि मम्मी के संग्रह में वह शामिल नहीं थीं।) यह कक्षा 2 से कॉलेज तक की सूची है इसके बाद इसकी लंबाई बढ़ती ही गई। आज भी बढ़ गई है।
आपको यह सूची ख़ासी बेढब लग सकती है।ख़ासतौर पर शुरुआत में। कहाँ लोटपोट और कहाँ धर्मयुग ? कहाँ गुलशन नंदा और कहाँ मुंशी प्रेमचंद ? लेकिन मेरे लिए यह किताबें दरअसल उत्कृष्टता या गुणवत्ता के आधार पर महत्व नहीं रखती थीं। मेरे लिए तो हर किताब एक कहानी थी और हर कहानी एक रोमांच। जितनी लम्बी कहानी, उतना लम्बा रोमांच। अब याद करती हूँ तो वाकई हँसी आती है। नानी जब भी हमारे यहाँ आती थीं वह समय मेरे लिए कर्फ्यू लगने जैसा होता था क्योंकि उनको मेरे हाथ में किताबें पसंद नहीं होती थीं। या यूँ कहें कि उनके लिए किताबों का एक ही मतलब होता था, कोर्स की किताबें। उसी दौरान एक और (बुरी ??) आदत लग गई थी मुझे। खाना खाते हुए किताब पढ़ना या कह सकते हैं किताब पढ़ते हुए खाना खाना। इस बात पर कितनी डांट खाई है याद नहीं। पाप-पुण्य क्या नहीं समझाया गया। विद्या माँ और अन्न देवता के रूठ जाने का भय भी मुझे सुधार नहीं सका।
मुझे गुलशन नंदा पढ़ते हुए देखकर नानी ने एक दफ़ा मम्मी को इतना कोसा कि मम्मी ने मुझे पीट दिया। उन पर इल्ज़ाम था कि उन्होंने मुझे ग़लत किताबों की लत लगा दी है। इसके बाद मैं छिप-छिप कर वह सारी 'वर्जित' किताबें पढ़ने लगी। जिस उम्र तक अक्सर बच्चों को चित्रकथाएं दी जाती हैं ताकि वह रंगीन फोटो देखकर किताबों में रुचि पैदा कर सकें उस उम्र में सरसों सी बारीक छपाई वाले गुलशन नंदा और रानू के उपन्यास मुझे इतना भाते थे कि मैं सबकी निगाहें बचा कर तीन-चार दिन में इन्हें चट कर जाती थी। अपराध पत्रिका हो या साहित्यिक पत्रिका पढ़ने में मज़ा आना चाहिए था फिर दो दिन में पूरी मैगज़ीन ख़त्म करने की गारंटी मेरी। हाँ, मेरे पास भी वैसी वाली यादें भी हैं कि जिस पुड़िया में चनाज़ोर गरम लेकर आई उसे खोलकर पढ़ा भी ज़रूर। कोई भी पन्ना बचता नहीं था।
इस तरह जो-जो भी पढ़ा, उस उम्र में वो सब समझ कितना पाई यह नहीं जानती लेकिन इतना तय है कि इस वैविध्यपूर्ण पाठन ने मेरे शब्दकोश को बहुत वृहद कर दिया। हिन्दी भाषा पर जितना अधिकार बना, वह इस शिक्षणेत्तर पठन पाठन से ही बना, वरना हिन्दी मेरा विषय कभी नहीं थी। पिछले 20 वर्षों से मंच संचालिका के रूप में, बिना एक शब्द भी लिखे, मंच से उद्घोषणा करने की मेरी शैली के पीछे शायद इन्हीं पत्रिकाओं और पुस्तकों का हाथ है जो मेरे अवचेतन में कहीं परमानेंट फोल्डर बन कर सेव हो चुकी हैं। कोई भी विषय हो मंच संचालन करते वक़्त मुझे कभी शब्दों के लिए भटकना नहीं पड़ता। कैसे मुझे भी नहीं पता। बस इतना जानती हूं कि शब्द खुद-ब-खुद दिमाग़ के किसी कोने से निकलकर जुबान तक आते जाते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि कह कर भूल भी जाती हूँ कि क्या कहा था।माँ ने तो शायद मेरा ध्यान बँटाने के लिए मुझे किताबों की ओर मोड़ा था। किताबों के चयन में भी उनकी ज़्यादा सलाह शामिल नहीं होती थी। फिर भी उनकी शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने खिलौने से ज़्यादा मेरी किताबों की फ़रमाइश पूरी की, वह भी सब की नाराज़गी मोल लेकर। सोचती हूँ, मेरी चयनक्षमता पर उन्हें भरोसा रहा होगा या वह जानती थीं कि मैं निकाल ही लूँगी अपने काम का कुछ।
थोड़ा अफ़सोस तो होता है, जब लगता है कि जितना कुछ पढ़ा था उसका इस्तेमाल बोलकर कर डाला।
इतना बोला कि जाने क्या-क्या दोहराया।
बस लिख नहीं पाई उतना, जितना लिखना था।
या फिर वैसा, जैसा लिखना था।
आज तो दावे से कह सकती हूँ कि मेरी (आकार की दृष्टि से) नन्हीं सी लाइब्रेरी में सचमुच उत्कृष्टता और गुणवत्ता की दृष्टि से संग्रहणीय पुस्तके मौजूद हैं। कुछ पढ़ ली गई हैं। कुछ पढ़ी जानी बाक़ी हैं लेकिन मैं बिना हुए कृतघ्न हुए स्वीकारना चाहती हूँ कि बचपन से आज तक मैंने जो कुछ भी पढ़ा, वो सब मेरे काम आया। उन सबने मुझे परिपक्व बनाया।
चाहती हूँ कि अगर अब चंदेक किताबें लिख भी पाऊँ तो मरने से पहले कोई काम पूरा कर पाने की संतुष्टि तो कमा लूँ।