मैं चीजों को अपनी आँख से देख कर परखने की आदी हूँ , दूसरो की राय मुझ पर कम ही असर डालती है । लेकिन ये कोई शाश्वत सत्य नहीं । कभी - कभी स्थितियां इसके उलट भी हो जाती हैं । जैसा कि आज का उदहारण... । अभी - अभी "पा " से मिल कर लौटी हूँ और मन भावों से भरा हुआ है । रविश कुमार जी के कस्बे में अक्सर ही आना - जाना होता है । बहुत सारी बातें दिल के बहुत करीब आ कर छू जाती हैं ,जैसे उनकी वन रूम सेटहा , दिल्ली की जिंदगी का रोजनामचा । जब उनका दावा पढ़ा कि "पा " सिर्फ "पा " की फिल्म नहीं और भी बहुत कुछ है , सच कहूं , तब से ही मन में खलबली मची हुई थी कि कितनी जल्दी इस फिल्म को देख डालूँ । वैसे मैं फिल्म रिलीज़ होने के तीन - चार हफ़्तों के बाद ही (अगर वो सिनेमा घर में लगी रह जाए तो ...) देखना पसंद करती हूँ लेकिन शायद रविश जी की समीक्षात्मक पोस्ट का ही असर था कि मैंने दूसरा हफ्ता पूरा होते ही इसे देख लिया और अब मैं निर्विवाद रूप से कह सकती हूँ कि ........."सचमुच कमाल है !" कहानी , ट्रीटमेंट , प्रस्तुतीकरण बेहद प्रभावशाली बन पड़े हैं । ये एक नेकनीयत से बनाई गयी फिल्म है जो कई मायनों में हतप्रभ करती है, क्योंकि पूरी फिल्म में बनावट का कहीं नाम-ओ-निशान भी नहीं । अभिषेक बच्चन , परेश रावल , अरुंधती नाग को उनके किरदारों से अलग कर के देख पाने की कोशिश नाकाम हो जाती है । विद्या बालन शायद डाक्टर विद्या ही है , याद करना मुश्किल होता है कि इससे पहले किसी दूसरे किरदार में भी उन्हें देखा है। अपने किरदार की इतनी मौलिक , इतनी असली और इतनी विश्वसनीय छवि उकेर पाने का श्रेय विद्या को दे या निर्देशक बाल्की को , ये तय कर पाना कुछ कठिन है । साफ़ कर दूं कि विद्या बालन मेरी पसंदीदा अभिनेत्री कतई नहीं हैं , मगर "पा " देखने के बाद सिवाय इस प्रतिक्रिया के,मेरे पास कुछ और नहीं है । और अमिताभ बच्चन ......, उनको देखने के बाद तो मन में उठता है बस एक ही सवाल कि 'अब और ... क्या ?' अभी और कितने परीक्षण बाकी हैं "बिग बी " की प्रयोगशाला में । जिस देश में चालीस तक पहुंचते-पहुंचते ये कहने का रिवाज़ हो कि ' अब क्या नया करना ..., अब तो बुढ़ा गए । ' वहाँ असल बुढापे तक यौवन की उर्जा , जोश और जीजिविषा की ऐसी हनक बनाए रखने वाले को महानायक नहीं तो और क्या कहा जायेगा ! झुर्रीदार चेहरों के साथ जबरन रोमांटिक होने का मुगालता जीते अभिनेताओं के लिए अमिताभ बच्चन साक्षात् किवदंती हैं । ऐसे विविध किरदार , वोभी इस उम्र में, किसी को भी जलन हो सकती है। मुझे ख़ुशी है कि मैंने सही समय पर कसबे से इसके बारे में सूचना पायी और अपने व्यस्त होने के सारे बहाने दरकिनार कर के ये फिल्म देख आई । आप भी इसे एक बार ज़रूर देखें । वैसे भी आजकल अच्छी फ़िल्में देखने का सुअवसर कम ही मिलता है ।
प्रतिमा !