शायद आपको पता हो कि भारतीय समाज में पाया जाता है एक 'मध्यमवर्गीय तबका'। उच्च वर्ग की तरह कई पीढ़ियों के जीवनयापन की चिंताओं से मुक्त नहीं, ना ही निम्न वर्ग की तरह रोज़ कुआं खोद कर प्यास बुझाने को अभिशप्त। फिर भी अपने निश्चित दुखों के सहारे सुख के साधन ढूंढता, गरीबी की सारी पहचान पर दिखावटी चादर डालकर अमीर अनुभव करने के स्वप्न सुख में डूबा हुआ 'मध्यमवर्ग'।
यक़ीन मानिए एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति बुरा नहीं होता लेकिन उसका संतोषधन तब किसी काम का नहीं रहता, जब उसे खींच-खींच के बाज़ार में सिर्फ़ यह दिखाने के लिए खड़ा कर दिया जाता है कि उसके पड़ोसी के घर उससे ज़्यादा बड़ी गाड़ी, उससे ज़्यादा बड़ा घर, उससे ज़्यादा बैंक बैलेंस मौजूद है। उसका सारा जीवन पड़ोसी की बराबरी करने में निकलता है लेकिन हाँ, वह फिर भी बुरा नहीं होता। आप यह भी कह सकते हैं कि उसके पास बुरा होने के लिए पर्याप्त वक़्त नहीं होता। अपनी रोज़ी-रोटी के लिए 12 घंटे के व्यवसाय या फिर 8 घंटे की नौकरी में उलझा यह मध्यमवर्ग अवसादग्रस्त होकर भी अवसादग्रस्त दिखने के लिए स्वतंत्र नहीं है। इसे बराबर यह माहौल बनाए रखना होता है कि यह बहुत ख़ुश है, संतुष्ट है और लगातार समृद्धि की ओर बढ़ता हुआ उच्च वर्ग में प्रवेश को तत्पर है। बच्चों की शादी, पढ़ाई, अपने लिए घर, ज़मीन नौकरी में प्रोविडेंट फंड और पेंशन यह सब ठीक-ठाक हो जाए तो संसार में और धरती पर सबसे सुखी व्यक्ति माना जा सकता है। कम से कम वह तो स्वयं को मानता ही है। बड़े-बड़े सपने नहीं देखता लेकिन बड़े-बड़े सपने पर बातें करने से पीछे नहीं हटता। कहीं ना कहीं उसके अवचेतन में यह बात बैठी होती है कि बड़ा सोचने से ही बड़ा बनते हैं। यह अलग बात है कि बड़ा होने की ललक कभी-कभी उसे आजीवन त्रिशंकु बनाए रखती है।
लग्ज़री के नाम पर दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ पारिवारिक समारोह, बच्चों के साथ महीने में दो एक बार मॉल में जाकर फिल्में देख लेना, रेस्टोरेंट में जाकर खाना खा लेना और साल भर में एकाध बार कहीं बाहर वेकेशंस प्लान कर लेना इनकी ज़रूरतों में शामिल होता है।
बेशक यह तबका 'रोज़ कमाना-रोज़ खाना' के त्रासद घेरे से बाहर होता है लेकिन यह भी सच है कि इनकी जमापूंजी एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो महीने तक इन्हें निश्चिंत रख सकती है। यह अरसा बीतते-बीतते इसके चेहरे पर भी भावी भूख और आगत आपदाओं का भय पसारने लगता है।
कोविड-19 के इस आपातकाल में जहाँ मानव जाति के सामने अब तक के सबसे भयभीत और व्यथित करने वाले दृश्य उपस्थित हो रहे हैं ऐसे में इस मध्यमवर्गीय प्रजाति (?) की चिंताएं स्वतः ही non essentials की श्रेणी में डाल दी गई है। फिर भी यह सच तो अपनी जगह मौजूद है ही कि एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति के भी अपने दुख हैं। अपना डर, अपनी आशंका, अपने दुःस्वप्न हैं और सच मानिए यह सब उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं जितना सोचा जा सकता है।
इस आपातकाल में अपने इन तमाम डरों और दुःस्वप्नों से दूर भागने और कबूतर की तरह आँख बंद करके इनसे निष्प्रभावी दिखने का प्रयास करते मध्यमवर्ग ने ख़ुद को अवसाद से दूर रखने के लिए कुछ रास्ते ईजाद किये। जैसे अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाकर फ़ेसबुक पर डालना, कविताएं लिखना, गीत गाना, अच्छी-अच्छी बातें करना, जिससे यह बताया जा सके कि वह बहुत निश्चिंत और ख़ुश है। अपनेआप में मगन। उसे कोई भी अवसाद छू नहीं गया है लेकिन इस बात के लिए उनकी ख़ासी आलोचना की गई। यहाँ तक कि अब यह सब करने के लिए मध्यमवर्ग ख़ुद को अपराधी मान रहा है।
जबकि सच यह है कि यह थोड़ा आत्मकेंद्रित तो कहा जा सकता है लेकिन अपराधी नहीं, और आत्मकेंद्रित तो यह वर्ग हमेशा से था। कोई और विकल्प भी नहीं है इसके सामने। सामाजिक और आर्थिक रूप से मध्यमवर्ग के पास ऐसी कोई ताकत नहीं होती जिससे वह परिस्थितियों को आमूलचूल बदल देने का साहस कर सके। ऐसे में मध्यमवर्गीय लोग अपना-अपना देखने में ही विश्वास रखते हैं। अब भी वह ऐसा कर रहे हैं। यह अपराध नहीं है। हर किसी को अपने अवसाद से लड़ने का अधिकार है। तरीक़ा अलग हो सकता है। यह उनके लड़ने का तरीक़ा है। इसे बुरा नहीं कह सकते।
कोविड-19 के आफ्टर इफेक्ट में इसके दुष्प्रभाव का एक बड़ा हिस्सा इसी वर्ग को झेलना होगा। उनके सामने एक ऐसी लंबी लड़ाई है जिसमें खुलकर उतरने की तैयारी भी उन्होंने कभी नहीं की।
मेरे एक मित्र ने (जिनका अच्छा ख़ासा चल रहा निजी व्यवसाय कोविड-19 के चलते तबाह होने के कगार पर है) ने अपना डर मुझसे यह कहते हुए साझा किया था कि 'हम तो किसी से मुफ़्त का राशन भी नहीं माँग पाएंगे क्योंकि सामने वाला कहेगा कि आपके घर में तो कार है। जबकि वह कार EMI से ली गई है।'
आज जब देश तकरीबन 2 महीने की पूर्ण बंदी यानी लॉक डाउन के भयावह यथार्थ से जूझते हुए इतिहास के अब तक के सबसे विवश समय का साक्षी होने को बाध्य है। लाखों की संख्या में पैदल ही देश का ओर-छोर नापते, भूख-प्यास से बिलबिला कर दम तोड़ते, ट्रेन की पटरी पर कट कर मरते या बस और ट्रक से कुचलकर मारे जाते गरीबों-मजदूरों द्वारा अपने ही देश में किए जा रहे महापलायन को देखने पर मजबूर है।
ऐसे में मध्यमवर्ग अपनेआप को अवसाद के ब्लैक होल में समाने से रोकने का भरपूर प्रयास कर रहा है क्योंकि उसे मालूम है कि जो कुछ भी हो रहा है, उसका दृष्टा बने रहने के अलावा उसके सामने फिलहाल कोई दूसरा चारा नहीं है। जिसे योगदान या प्रयास कहा जा सकता है, अपनी तनख्वाह का कुछ अंश दान कर या फिर अपने आसपास के कुछ भूखे लोगों को भोजन करवाकर, वह अपने हिस्से का यह योगदान कर चुका है। इससे ज़्यादा वो क्या करे, यह सोच पाना फिलहाल उसकी सामर्थ्य के बाहर है। ऐसे में बस एक ही काम है जिसे करने से आशा की कुछ उम्मीद बनती है और वह है अपने आप को मजबूत और सकारात्मक रखना ताकि आगत परिस्थितियों का सही मनोदशा के साथ सामना किया जा सके।
जब उसकी ऐसी कोशिशों को लक्ष्य किया जाता है तो वह ख़ुद भी अपराध बोध से घिर जाता है -
अपनी नज़रों में गुनाहगार ना होते क्योंकर,
दिल ही दुश्मन है मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह।
हालांकि मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई भी कोशिश ग़लत कहीं जाने चाहिए। अवसाद को अगर आना ही है तो वो दबे पाँव आएगा ही लेकिन जितनी देर उसे टाला जा सके डाला जाना ही चाहिए। ख़ुद को ख़ुशी का दिलासा देते हुए मुसीबत का समय बीत जाए तो इसमें क्या बुरा है ?
यक़ीन मानिए एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति बुरा नहीं होता लेकिन उसका संतोषधन तब किसी काम का नहीं रहता, जब उसे खींच-खींच के बाज़ार में सिर्फ़ यह दिखाने के लिए खड़ा कर दिया जाता है कि उसके पड़ोसी के घर उससे ज़्यादा बड़ी गाड़ी, उससे ज़्यादा बड़ा घर, उससे ज़्यादा बैंक बैलेंस मौजूद है। उसका सारा जीवन पड़ोसी की बराबरी करने में निकलता है लेकिन हाँ, वह फिर भी बुरा नहीं होता। आप यह भी कह सकते हैं कि उसके पास बुरा होने के लिए पर्याप्त वक़्त नहीं होता। अपनी रोज़ी-रोटी के लिए 12 घंटे के व्यवसाय या फिर 8 घंटे की नौकरी में उलझा यह मध्यमवर्ग अवसादग्रस्त होकर भी अवसादग्रस्त दिखने के लिए स्वतंत्र नहीं है। इसे बराबर यह माहौल बनाए रखना होता है कि यह बहुत ख़ुश है, संतुष्ट है और लगातार समृद्धि की ओर बढ़ता हुआ उच्च वर्ग में प्रवेश को तत्पर है। बच्चों की शादी, पढ़ाई, अपने लिए घर, ज़मीन नौकरी में प्रोविडेंट फंड और पेंशन यह सब ठीक-ठाक हो जाए तो संसार में और धरती पर सबसे सुखी व्यक्ति माना जा सकता है। कम से कम वह तो स्वयं को मानता ही है। बड़े-बड़े सपने नहीं देखता लेकिन बड़े-बड़े सपने पर बातें करने से पीछे नहीं हटता। कहीं ना कहीं उसके अवचेतन में यह बात बैठी होती है कि बड़ा सोचने से ही बड़ा बनते हैं। यह अलग बात है कि बड़ा होने की ललक कभी-कभी उसे आजीवन त्रिशंकु बनाए रखती है।
लग्ज़री के नाम पर दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ पारिवारिक समारोह, बच्चों के साथ महीने में दो एक बार मॉल में जाकर फिल्में देख लेना, रेस्टोरेंट में जाकर खाना खा लेना और साल भर में एकाध बार कहीं बाहर वेकेशंस प्लान कर लेना इनकी ज़रूरतों में शामिल होता है।
बेशक यह तबका 'रोज़ कमाना-रोज़ खाना' के त्रासद घेरे से बाहर होता है लेकिन यह भी सच है कि इनकी जमापूंजी एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो महीने तक इन्हें निश्चिंत रख सकती है। यह अरसा बीतते-बीतते इसके चेहरे पर भी भावी भूख और आगत आपदाओं का भय पसारने लगता है।
कोविड-19 के इस आपातकाल में जहाँ मानव जाति के सामने अब तक के सबसे भयभीत और व्यथित करने वाले दृश्य उपस्थित हो रहे हैं ऐसे में इस मध्यमवर्गीय प्रजाति (?) की चिंताएं स्वतः ही non essentials की श्रेणी में डाल दी गई है। फिर भी यह सच तो अपनी जगह मौजूद है ही कि एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति के भी अपने दुख हैं। अपना डर, अपनी आशंका, अपने दुःस्वप्न हैं और सच मानिए यह सब उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं जितना सोचा जा सकता है।
इस आपातकाल में अपने इन तमाम डरों और दुःस्वप्नों से दूर भागने और कबूतर की तरह आँख बंद करके इनसे निष्प्रभावी दिखने का प्रयास करते मध्यमवर्ग ने ख़ुद को अवसाद से दूर रखने के लिए कुछ रास्ते ईजाद किये। जैसे अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाकर फ़ेसबुक पर डालना, कविताएं लिखना, गीत गाना, अच्छी-अच्छी बातें करना, जिससे यह बताया जा सके कि वह बहुत निश्चिंत और ख़ुश है। अपनेआप में मगन। उसे कोई भी अवसाद छू नहीं गया है लेकिन इस बात के लिए उनकी ख़ासी आलोचना की गई। यहाँ तक कि अब यह सब करने के लिए मध्यमवर्ग ख़ुद को अपराधी मान रहा है।
जबकि सच यह है कि यह थोड़ा आत्मकेंद्रित तो कहा जा सकता है लेकिन अपराधी नहीं, और आत्मकेंद्रित तो यह वर्ग हमेशा से था। कोई और विकल्प भी नहीं है इसके सामने। सामाजिक और आर्थिक रूप से मध्यमवर्ग के पास ऐसी कोई ताकत नहीं होती जिससे वह परिस्थितियों को आमूलचूल बदल देने का साहस कर सके। ऐसे में मध्यमवर्गीय लोग अपना-अपना देखने में ही विश्वास रखते हैं। अब भी वह ऐसा कर रहे हैं। यह अपराध नहीं है। हर किसी को अपने अवसाद से लड़ने का अधिकार है। तरीक़ा अलग हो सकता है। यह उनके लड़ने का तरीक़ा है। इसे बुरा नहीं कह सकते।
कोविड-19 के आफ्टर इफेक्ट में इसके दुष्प्रभाव का एक बड़ा हिस्सा इसी वर्ग को झेलना होगा। उनके सामने एक ऐसी लंबी लड़ाई है जिसमें खुलकर उतरने की तैयारी भी उन्होंने कभी नहीं की।
मेरे एक मित्र ने (जिनका अच्छा ख़ासा चल रहा निजी व्यवसाय कोविड-19 के चलते तबाह होने के कगार पर है) ने अपना डर मुझसे यह कहते हुए साझा किया था कि 'हम तो किसी से मुफ़्त का राशन भी नहीं माँग पाएंगे क्योंकि सामने वाला कहेगा कि आपके घर में तो कार है। जबकि वह कार EMI से ली गई है।'
आज जब देश तकरीबन 2 महीने की पूर्ण बंदी यानी लॉक डाउन के भयावह यथार्थ से जूझते हुए इतिहास के अब तक के सबसे विवश समय का साक्षी होने को बाध्य है। लाखों की संख्या में पैदल ही देश का ओर-छोर नापते, भूख-प्यास से बिलबिला कर दम तोड़ते, ट्रेन की पटरी पर कट कर मरते या बस और ट्रक से कुचलकर मारे जाते गरीबों-मजदूरों द्वारा अपने ही देश में किए जा रहे महापलायन को देखने पर मजबूर है।
ऐसे में मध्यमवर्ग अपनेआप को अवसाद के ब्लैक होल में समाने से रोकने का भरपूर प्रयास कर रहा है क्योंकि उसे मालूम है कि जो कुछ भी हो रहा है, उसका दृष्टा बने रहने के अलावा उसके सामने फिलहाल कोई दूसरा चारा नहीं है। जिसे योगदान या प्रयास कहा जा सकता है, अपनी तनख्वाह का कुछ अंश दान कर या फिर अपने आसपास के कुछ भूखे लोगों को भोजन करवाकर, वह अपने हिस्से का यह योगदान कर चुका है। इससे ज़्यादा वो क्या करे, यह सोच पाना फिलहाल उसकी सामर्थ्य के बाहर है। ऐसे में बस एक ही काम है जिसे करने से आशा की कुछ उम्मीद बनती है और वह है अपने आप को मजबूत और सकारात्मक रखना ताकि आगत परिस्थितियों का सही मनोदशा के साथ सामना किया जा सके।
जब उसकी ऐसी कोशिशों को लक्ष्य किया जाता है तो वह ख़ुद भी अपराध बोध से घिर जाता है -
अपनी नज़रों में गुनाहगार ना होते क्योंकर,
दिल ही दुश्मन है मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह।
हालांकि मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई भी कोशिश ग़लत कहीं जाने चाहिए। अवसाद को अगर आना ही है तो वो दबे पाँव आएगा ही लेकिन जितनी देर उसे टाला जा सके डाला जाना ही चाहिए। ख़ुद को ख़ुशी का दिलासा देते हुए मुसीबत का समय बीत जाए तो इसमें क्या बुरा है ?
- एक प्रतिनिधि (मध्यमवर्गीय-आम जनता)